अपनों से अपनी बात

November 1973

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युग निर्माण का दूसरा चरण परिवार निर्माण

युग निर्माण अभियान का प्रथम चरण आत्म निर्माण है। अभियान का दूसरा निर्माण है- परिवार निर्माण। आमतौर से हर मनुष्य परिवार बना कर रहता है जो लोग विवाह नहीं करते वे भी माँ-बाप बहिन-भाई आदि के साथ रहते हैं वह भी परिवार ही तो हुआ। स्त्री बच्चों तक ही तो परिवार की सीमा अवरुद्ध नहीं की जा सकती। इतना ही नहीं वैरागी, सन्त, महात्मा तक जमात-संगत बना कर रहते हैं। आश्रम, सम्प्रदाय, मण्डली बनाते हैं। गुरु शिष्यों की परम्परा चल पड़ती है और परिवार बन जाता है। छात्र और अध्यापकों का सम्बन्ध वस्तुतः एक परिवार ही है। प्राचीनकाल में गुरुकुल इसी आदर्श पर चलते थे। थोड़ी उदार दृष्टि का विकास हो तो यह परिधि देश, धर्म आदि की सीमा लाँघती हुई विश्व परिवार पर जा सकती है तब वसुधैव कुटुम्बकम् एक कल्पना नहीं व्यावहारिक सत्य दृष्टिगोचर होता है। पूर्ण एकाकी तो जड़, मृतक अथवा परमहंस ही रह सकता है सामान्य मनुष्य का जहाँ तक प्रश्न है उसे परिवार बना कर ही रहना पड़ता है। स्नेह-सहयोग का जब तक आदान-प्रदान हो तब तक आत्मा की अतृप्ति का समाधान मिलता नहीं।

परिवार एक प्रकार से छोटा राष्ट्र है। सुविस्तृत का छोटा संस्करण है। युगनिर्माण की क्षमता विकसित करने के लिए हमें परिवार निर्माण की पाठशाला में प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिए। भोजन वस्त्र की- शौक मौज की शिक्षा सुविधा की व्यवस्था बनाये रहने से ही परिवार की आवश्यकता पूर्ण नहीं हो जाती वरन् उस छोटे से क्षेत्र में ऐसा वातावरण बनाना पड़ता है जिसमें पलने वाले प्राणी हर दृष्टि से समुन्नत सुसंस्कृत बन सके। अधिक खर्च करने अधिक सुविधा साधन रहने से- नौकर, चाकरों की व्यवस्था रहने से घर साफ-सुथरा और सुसज्जित रह सकता है। सम्पन्नता के आधार पर बढ़िया भोजन-वस्त्र ऐश आराम विनोद मनोरंजन के साधन मिल सकते हैं। किन्तु व्यक्तित्व को समग्र रूप से विकसित कर सकने वाले सुसंस्कार केवल उपयुक्त वातावरण में ही सम्भव हो सकते हैं। ऐसा वातावरण कही बना बनाया नहीं मिलता- न कही खरीदा जा सकता है, उसे तो स्वयं ही बनाना पड़ता है।

प्राचीन काल के गुरुकुलों की बात दूसरी भी वहाँ उत्कृष्टता का वातावरण बना हुआ रहता था, घर परिवार में जो कमी रहती थी , उसकी पूर्ति वहां हो जाती थी, ऋषि अपने ज्ञान कर्म और प्रभाव से विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण की आवश्यकता पूरी किया करते थे। पर अब वैसे गुरुकुल , विद्यालय भी कहाँ है? इसे यदि पूरा न किया गया, घर में सुसंस्कृत वातावरण न बनाया जा सका, परिष्कृत परम्पराओं का प्रचलन न किया जा सका तो उस घर में रहने, पलने वाले लोग भूत वेताल बन कर ही रहेंगे। स्वास्थ्य , शिक्षा, चतुरता की दृष्टि से वे कितने ही ही अच्छे क्यों न हो, मानवी सद्गुणों से वंचित ही रहेंगे। कोई कितना कमाता है- कितना बड़ा कहाता है यह बात अलग है और किसका व्यक्तित्व कितना समुन्नत है, यह प्रश्न बिलकुल अलग है। सुख शान्ति पूर्वक रहने और अपने साथियों को प्रसन्न संतुष्ट रखने के लिए बड़प्पन की ही नहीं - महानता की आवश्यकता पड़ती है। उसी का उपार्जन मानव-जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। कोई परिवार इस दिशा में कितना सफल होता है उसकी उतनी ही सार्थकता मानी जा सकती है।

घर के वातावरण में यदि अवांछनीयताएँ, विकृतियाँ फैली पड़ी है तो इसका एकमात्र कारण सत्प्रवृत्तियाँ, सद्भावनाएँ उत्पन्न कर सकने वाले वातावरण का अभाव है। अन्धकार का अपना कोई अस्तित्व नहीं, प्रकाश का अभाव ही अंधकार है। ठीक यही बात पारिवारिक वातावरण पर लागू होती है जहाँ सद्भावनाओं को आरोपित पल्लवित न किया गया होगा वहाँ दुर्भावनाओं की दुष्प्रवृत्तियों की कँटीली झाड़ियों उगेंगी ही। बाहरी दृष्टि से लड़-झगड़ या मनोमालिन्य के दूसरे स्थूल कारण भी हो सकते हैं। उनका निवारण भी किया जा सकता है फिर भी आन्तरिक दुर्बुद्धि जहाँ बनी हुई है वहां द्वेष और क्लेश के लिए कुछ बहाने सामने आते ही रहेंगे और दुर्गन्ध भरी नारकीय सड़न उत्पन्न करते ही रहेंगे। ऐसे घर परिवार में रह कर कोई व्यक्ति न तो सुखी-संतुष्ट रह सकता है और न जीवन में महत्वपूर्ण प्रगति कर सकने योग्य गुण, कर्म, स्वभाव का अभ्यस्त हो सकता है।

अवांछनीय वातावरण में पलने वाले प्राणी हेय और गई गुजरी स्थिति में ही जिन्दगी गुजारते हैं। अधिक पैसा अधिक ठाठ-बाट और अधिक वैभव पाकर आदमी दूसरों को आकर्षित आतंकित कर सकता है पर उसकी सुख शान्ति में तनिक भी वृद्धि नहीं होती। आनन्द और उल्लास तो केवल सुसंस्कारी व्यक्तियों के हिस्से में ही आता है। वे ही स्वयं संतुष्ट रहते हैं और साथियों का आनन्द देते हैं। अभागे लोग पैसे को ही सब कुछ मानते और उसी के लिए मरते खपते हैं। विवेकवान जानते हैं कि परिष्कृत दृष्टिकोण से सद्भावनाओं से बढ़कर और कोई आनन्ददायक वस्तु इस संसार में नहीं है इसलिए वे इसके उपार्जन अभिवर्धन पर ध्यान देते हैं? भले ही पैसे की दृष्टि से उन्हें गरीबों की श्रेणी में ही क्यों न रहना पड़े।

परिवार निर्माण का अपना प्रयोजन इतना भर ही नहीं है जितना कि ग्रह -विज्ञान की प्रचलित पुस्तकों में बताया पढ़ाया जाता है। परिवार निर्माण की दृष्टि से भी यह आरम्भिक और उचित कदम है। पर उतना भर कर लेने पर भी कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। अमीर लोग गृहसज्जा के लिए नौकर रखते भी हैं। सफाई, व्यवस्था और सजावट के लिए नौकर चाकर मौजूद है तो वह कार्य हो ही जाएगा। कुशल गृहणियाँ भी यदि निरालस्य, स्फूर्तिवान् और सुरुचिपूर्ण प्रकृति की हो तो वे जागरूक रह कर चलते फिरते गन्दगी एवं अव्यवस्था को हटाती समेटती रहती है। बात की बात में सब कुछ सुन्दर सुव्यवस्थित बन जाता है।

वस्तुतः कूड़ा करकट तो दिमागी गन्दगी का नाम है। फूहड़ प्रकृति ही घर में सर्वत्र अव्यवस्था फैलाये रहती है। कामों को आधा-अधूरा छोड़ने की आदत का नाम गन्दगी है। जिसकी प्रकृति में पूरा काम निपटा कर आगे बढ़ाने की आदत जुड़ गईं है उसे कुछ सिखाना नहीं पड़ता। घर का सामान, बर्तन, फर्नीचर, दीवारें, छतें, कमरे, कोठरी, नाली, पकाने, पुस्तकें, खाद्य पदार्थ आदि किस तरह संभाले सँजोये इसकी शिक्षा का नाम ही इन दिनों स्कूलों में ‘गृह विज्ञान’ के नाम से पढ़ाया जाता है। वह व्यवहार ज्ञान है इतना सब कुछ जान लेने पर भी यदि आलसी और फूहड़ प्रकृति स्वभाव का अंग बनी रहे तो फिर पढ़ा-पढ़ाया बेकार है।

गृहविज्ञान पढ़ाने वाली अध्यापिकाओं के घर जब नरक जैसी गन्दगी और अस्त-व्यवस्था से भरे दीखते हैं, तब यही मानना पड़ता है कि जानकारी प्राप्त कर लेने से कुछ बनता नहीं, मूल बात स्वभाव के परिष्कार की है। यदि वह किसी प्रकार संभव हो सके तो सर्वथा निरक्षर होने पर भी गृह-सज्जा की समस्त आवश्यकताएँ बिना किसी के सिखाये पढ़ायें भी अपनी भौतिक सूझ-बूझ से सम्भव सम्पन्न हो सकती है। निर्धनता , रुग्णता और व्यस्तता रहने पर भी जहाँ सुरुचि जीवित होगी, वहाँ सुन्दरता और सुसज्जा अनायास ही बनी रहेगी। इसके विपरीत आलस और फूहड़ प्रकृति अनेक सहायकों तथा साधनों के रहते हुए भी पग-पग पर बिखरी हुई कुरूपता, कुरुचि और गन्दगी का परिचय देती रहेगी।

इन पंक्तियों में यह नहीं बताया जा रहा है कि घर को साफ-सुथरा रखने के लिए किस प्रकार क्या करना चाहिए। दीवारों की पुताई , फर्नीचर पर वार्निस, कपड़ों की धुलाई, पर्दों की रंगाई, झाड़ पोंछ और चीजों का यथावत रखना, पुस्तकों में लिखा भले न हो, पर उसकी वास्तविक शिक्षा दैनिक -अभ्यास से ही मिलती है। जिन घरों में यही होता रहता है, उनमें पलने वाली लड़कियाँ जहाँ भी जाती है, वही सुरुचि पूर्ण सुसज्जा बात ही बात में बना देती है। वैसी आदत न हो तो फिर हर बात कहने-सुनने और डाँटने-डपटने की आवश्यकता पड़ती रहेगी। गृह-सज्जा जैसा छोटा विषय भी मूलतः घर के सदस्यों की प्रकृति से जुड़ा है। उसका स्तर यदि सुधरा हो तो कोई बिना पढ़ी महिला लैक्चर देना भले ही न जानती हो, व्यवहार रूप से इतना कुछ करके दिखा सकती है कि गृहविज्ञान पढ़ाने वाली प्रोफेसर भी सिर झुका के रह जाय। हम इसी सुरुचि के विकास को घर की सुव्यवस्था को मूल-भूत कारण मानकर चलना चाहिए और उसी के विकास का उपयुक्त वातावरण तैयार करना चाहिए।

परिवार निर्माण वस्तुतः एक दर्शन है- क्रियाकलाप तक उसे सीमित नहीं रखा जा सकता। जिस प्रकार की व्यवस्था अभीष्ट हो उसके लिए परिवार के लोगों की मनः स्थिति का निर्माण किया जाना चाहिए। यह प्रयोजन तभी सफल हो सकता है, जब अपना मनोयोग समय और श्रम उसके लिए नियमित रूप से लगाया जाय। यह अभिरुचि, तत्परता एवं संलग्नता तब उत्पन्न हो सकती है, जब परिवार निर्माण की आवश्यकता को गंभीरता पूर्वक समझा जाय और यह सोचा जाय कि इस महान उत्तरदायित्व का निर्वाह करना कितना अधिक महत्वपूर्ण है। मनः स्थिति पर प्रभाव डालने की क्षमता केवल उन्हीं में होती है, जो अन्तः क्षेत्र का स्पर्श करे। विशेषतया स्वभाव और दृष्टिकोण में परिष्कृत परिवर्तन के लिये तो ऐसे ही शिक्षक की आवश्यकता पड़ती है। ऐसा शिक्षक बाहर से ढूँढ़ना बेकार है, यह कार्य हमें स्वयं ही करना पड़ेगा। परिवार निर्माण का कार्य अपने अतिरिक्त बाहर के लोगों से नहीं कराया जा सकता। आज की स्थिति में इसी तथ्य को हमें पूरी तरह रखना चाहिए। दूसरे, कुछ सामयिक परामर्श दे सकते हैं या क्षणिक प्रभाव डाल सकते हैं। सुसंस्कारों की जड़ जमाने के लिए जिस अध्यवसाय की दीर्घकालीन और अनवरत आवश्यकता पड़ती है, उसकी पूर्ति कोई बाहर का व्यक्ति कब तक और कहाँ तक करेगा?

प्रश्न इतना भर नहीं है कि परिवार का वातावरण अच्छा बनाया जाय और परिजनों को सुसंस्कृत स्तर तक पहुँचाया जाय। एक केवल एक पक्ष है। परिवार निर्माण का दूसरा पक्ष और भी अधिक महत्वपूर्ण है। वह है- अपनी निज की आदतों, आस्थाओं और गतिविधियों का निर्माण नियंत्रण करना। जलाशय में घुसे बिना तैरना कहाँ आता है। व्यायामशाला में प्रवेश किये बिना पहलवान कौन बनता है? पाठशाला में भर्ती हुए बिना सुशिक्षित कौन बनता है? व्यक्तियों के सम्पर्क में आकर ही अपने गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता का अभ्यास किया जाता है। एकाकी चिन्तन, मनन, अध्ययन, प्रवचन करते रहने से केवल बौद्धिक समाधान मिलता है। सत्प्रवृत्तियाँ परिपक्व तो अभ्यास से होती है। अभ्यास के लिए उपकरण चाहिए। जिन लोगों के बीच हमें रहना पड़ रहा है, उन्हें परिष्कृत बनाने के लिए प्रयास करना वस्तुतः अपनी प्रकृति को ही सुधारना है। बेझिझक बात करनी हो तो बात दूसरी है- यदि सचमुच किन्हीं पर बदलने योग्य प्रभाव उत्पन्न करना है तो उसका एक मात्र उपाय अपनी स्थिति का प्रभाव डालने योग्य बनना ही हो सकता है। अपने व्यक्तित्व को उतना प्रामाणिक बनाना पड़ेगा कि जिसके संपर्क में आया जाय- उस पर छाप पड़े। परिजनों के माध्यम से अपनी शालीनता एवं क्रिया-कुशलता को विकासोन्मुख बनाना है। इस प्रकार परिवार निर्माण की दिशा में किये गये प्रयास- केवल कुटुम्बियों की सार्थक सेवा ही सम्पन्न नहीं करते, वरन् अपने व्यक्तित्व को भी निखारते हैं। परिवार निर्माण दुहरी सफलता प्रस्तुत करता है। सुसंस्कृत परिजन न केवल अपने लिए, वरन् निर्माणकर्ता के लिए भी आनन्द भरे अनुदान प्रस्तुत करते हैं। मेंहदी पीसने वाले के हाथ रंग जाते हैं, वाली उक्ति के अनुसार उस कार्य में संलग्न व्यक्ति को आत्म निर्माण का लाभ भी मिलता ही है।

आजीविका उपार्जन के अतिरिक्त कुछ समय हमें परिवार-निर्माण के लिए भी नियमित रूप से देना चाहिए। यह एक उच्च कोटि का मनोरंजन है। ताश, शतरंज, गपशप, सिनेमा, मटरगश्ती, यारबाजी, आलस्य अनुत्साह पूर्वक काम करने की मन्दगति आदि व्यसनों और प्रमादों में हमारा बहुत सा समय नष्ट होता है। हिसाब लगाया जाय तो प्रतीत होगा कि समय की यह बर्बादी बहुत बड़ी है। इतनी अधिक है कि उसे बचाकर ही परिवार निर्माण के अनेक महत्वपूर्ण कार्य करने का अवसर प्राप्त किया जा सकता है और फुरसत न मिलने का बहाना निरर्थक सिद्ध हो सकता है। मनोरंजनों में सबसे बढ़िया, सबसे सार्थक, सबसे हल्का और सबसे सरल परिवार निर्माण ही है। इसमें न केवल अपना ही, वरन् साथ-साथ सारे घर परिवार को मनोरंजन होता है। उसकी आड में प्रशिक्षण इतना अधिक हो जाता है कि कोई विद्वान् अध्यापक भी उतना नहीं कर सकता।

परिवार-निर्माण के दो पक्ष है- एक व्यावहारिक क्रिया परक और दूसरा दार्शनिक -दृष्टिकोण परक। हमें दोनों ही तथ्यों का अपनी क्रिया प्रक्रिया में समुचित समावेश करके चलना होगा। व्यावहारिक कार्यक्रम में घर की सुव्यवस्था, सुन्दरता एवं सुसज्जा पर ध्यान दिया जाना चाहिए। स्वयं साथ लगने से दूसरों में उत्साह पैदा होता है, अन्यथा सृजनात्मक कार्यों में रूखापन समझा जाता है और उसे भार-बेकार समझकर कभी काटने की मनोवृत्ति रहती है। आदेश-निर्देश देते रहने से बात बनती नहीं। प्रयोजन तब पूरा होता है, जब स्वयं आगे चला जाय और कन्धे से कन्धा लगाकर काम करने के लिए दूसरों को आमन्त्रण दिया जाय। ‘अपने मरे बिना स्वर्ग नहीं दीखता’ वाली कहावत ऐसे हर काम पर लागू होती है। जितने कितनों का ही सहयोग अभीष्ट होता है। इंजन आगे चलता है तो डिब्बे पीछे लुढ़कने लगते हैं। परिवार-निर्माण के लिये बनाये गये व्यवस्था क्रम में हमें स्वयं ही इंजन की भूमिका सम्पादित करनी चाहिए।

आजीविका उपार्जन और सार्वजनिक सेवा के अतिरिक्त शेष समय घर रहते हुए भी व्यतीत करना चाहिए और उसे परिवार-निर्माण में लगाना चाहिए। इस समय का क्रियात्मक उपयोग यह है कि सफाई सुव्यवस्था एवं सुसज्जा के कार्यों में हर दिन कुछ न कुछ कार्य निर्धारित रखा जाय। कूड़ा-कचरा और गन्दगी हर समय उत्पन्न होती है। इसलिए बार-बार बुहारी या कपड़े या झाड़न प्रयुक्त करना पड़ता है। काम को आधा-अधूरा छोड़ने और चीजों को अस्त-व्यस्त पड़ी रहने देने की बुरी आदत घर में प्रायः सभी को किसी न किसी मात्रा में होती है। बच्चों में यह दोष आमतौर से पाया जाता है। अस्तु आज की व्यवस्था और सफाई कल तक यथावत नहीं बनी रहेगी, उसे बार-बार संभालना पड़ता है। चीजों को यथास्थान, करीने से रखना- झाडू और झाड़न का बार- बार उपयोग करना- बर्तनों का माँजना, कपड़ों का धोना ऐसा काम है जिन्हें समय-समय पर करते रहना पड़ता है। टूट-फूट भी होती रहती है। मरम्मत में कुशल होना सद्गृहस्थ का आवश्यक क्रिया कौशल हैं। जब जो वस्तु टूटती-फूटती दिखाई पड़े, उसे अविलम्ब सुधार-संभाल देना चाहिए। कपड़ा जहाँ से फटा है, वहाँ तुरन्त सी दिया जाय तो वह हानि नहीं होगी , जो कई दिन उपेक्षा करते रहने से उसकी जिन्दगी समाप्त हो जाने के रूप में सामने आती है। घर में कुछ स्थान गंदगी के होते हैं। बर्तन साफ करने, मल-मूत्र त्यागने के साथ-साथ कूड़ा जमा करने के स्थान आमतौर से गन्दे पड़े रहते हैं और उनमें सड़न, बदबू, गन्दगी पैदा होती रहती है। गन्दी चीजों से दूर रहने की आदत गन्दगी पैदा होती रहती है। गन्दगी से जूझते रहने रहने से ही सफाई को स्थापित किया जा सकता है, उससे दूर रहने की अपेक्षा से तो वह और अधिक बढ़ती चली जायेगी। स्वच्छता से प्रेम करना उसी का सार्थक है, जो गंदगी हटाने को उत्साह का परिचय दे सके। घर के सभी लोगों में प्रवृत्ति पैदा करनी चाहिए। गंदगी एवं कुरूपता विरोधी मोर्चे पर लड़ने के लिए घर के हर सदस्य में शौर्य, साहस उत्पन्न करना चाहिए। क्या शरीर, क्या वस्त्र, क्या सामान, क्या पर सब कुछ ऐसा सुन्दर, सुव्यवस्थित रखा जाय , मानो कोई बड़ा अफसर आज ही इन सब चीजों का मुकाबला करने के लिए आ रहा हो। सफाई और सुरुचि संवर्धन इसी अभियान का दूसरा पक्ष है। मकान की दीवारें अपने हाथों आसानी से पोती जा सकती है। मेज़पोश, पर्दे आदि रंगने में कहाँ अधिक देर लगती है। घर के लोगों को साथ में लगाकर स्वच्छता और सुसज्जिता में हर दिन एक घण्टा भी लगाया जाय तो उसकी हर वस्तु सुरुचि पूर्ण रह सकती है और वहाँ सुसंस्कृत वातावरण का आभास मिलता रह सकता है।

बात सफाई और शोभा सुन्दरता भर की नहीं हो रही है, वरन् यह कहा जा रहा है कि परिवार के हर सदस्य में सुव्यवस्था के लिए तत्परता बरतने की आदत होनी चाहिए। यह आदत वस्तुओं को सुन्दर ढंग से रखने तक ही सीमित नहीं रह सकती, वरन् चिन्तन एवं कर्तव्य के अन्यान्य क्षेत्रों तक विकसित होकर मनुष्य को जागरूक और तत्पर बनाये रखने में असाधारण रूप से सहायता करती है। छोटे कामों से घृणा न करना सुव्यवस्था को उत्पादक मनोरंजन मानना, ठाली समय का उपयोग करना, आलस्य प्रमाद का हावी न होने देना, काम को अधूरा न छोड़ना, सुसज्जा की अभिरुचि बढ़ाना जैसे अनेकों गुण ऐसे परिवार में बढ़ते हैं, जो देखने में छोटे लगते हैं, पर प्रकृति के अंग बनकर सामने प्रस्तुत कार्यों को सही ढंग से करने पर मिलने वाली सफलता का अंग बनते हैं। टूटी चीजों की मरम्मत करना यो एक गृहशिल्प भी है, उससे अधिक बचत भी है, पर आदत के रूप में बड़ा लाभ यह है कि बर्बादी तनिक भी न होने दी जाय। वस्तुओं से अधिकाधिक काम लिया जाय। कहावत है कि “जो टूटे को बनाना और रूठे को मनाना जानता है, वह बुद्धिमान है। “ निर्माण, सृजन और सुधार की मनोवृत्ति टूटी वस्तुओं की मरम्मत करने और भदरंग चीजों को चमकाने के प्रयास के साथ-साथ विकसित होती है। घर आँगन में, गमलों में, टोकरी और पेटियों में फल-फूल एवं शाक भाजी लगाये जा सकते हैं। इसमें शोभा भी है और आर्थिक लाभ भी। इससे भी बड़ा लाभ उत्पादन, पोषण और संरक्षण की मनोवृत्ति विकसित होने का है, सद्गुणों को ऐसे छुट-पुट प्रयासों के सहारे ही विकसित किया जा सकता है।

परिवार में सद्ज्ञान की अभिवृद्धि की आवश्यकता पूरी की जानी चाहिए। परिजनों को कूप मण्डूक नहीं रहने देना चाहिए। जीवन की- समाज की समस्याओं से अपरिचित रहना ऐसी भूल है, जिसके कारण कभी- कभी ऐसी ठोकरें खानी पड़ती है, जो आदमी को चित पट करके रख दे। रूखे, नीरस और निर्देशात्मक उपदेशों को प्रायः व्यंग , उपहास एवं अवज्ञा में धकेल दिया जाता है। कथा-कहानी के माध्यम से घुमा-फिराकर शिक्षा दी जाय तो उसमें मनोरंजन आकर्षण भी रहता है और परोक्ष रूप से दी गई शिक्षा का चित्त पर प्रभाव भी पड़ता है। अखबारों से ऐसे समाचार चुने जा सकते हैं, जिनमें कुछ शिक्षा सामग्री हो। उनकी समीक्षा करते रहे तो ऐसे ज्ञान की वृद्धि हो सकती है, जो जीवन-विकास में- लोक -व्यवहार में उचित मार्ग दर्शन दे सके। जो पढ़े-लिखे है, उन्हें प्रेरक पुस्तकें पढ़ते रहने के लिए भी कहा, समझाया और प्रोत्साहित किया जा सकता है। स्वाध्याय के लिए सामग्री और समय की व्यवस्था बनाकर हम घर के पढ़े लिखे सदस्यों के लिए बौद्धिक एवं भावनात्मक उत्कर्ष का द्वार खोल सकते हैं। पढ़े सदस्य प्रतिदिन अवकाश वाले निर्धारित समय में निर्दिष्ट पुस्तक प्रसंग पढ़कर सुनाया करे और आगे चलकर वही आदत परिवार प्रशिक्षण में अभिरुचि बनकर विकसित हो सकती है। सुनाते रहने वालों को सुयोग्य वक्ता बनने का- झेंप झिझक से पिण्ड छुड़ाने का- सुअवसर प्रदान कर सकती है।

घर में आस्तिकता का वातावरण रहना चाहिए। हर सदस्य को भगवान का स्मरण और नमन करने की आदत होनी चाहिए। आस्तिकता के साथ अनेक मान्यताएँ जुड़ी रहती है, सुसंस्कृत व्यक्तित्व विकसित करने की दृष्टि से दैनिक जीवन में आस्तिकता को परिपुष्ट बनाने वाली उपासना के लिए कुछ न कुछ स्थान होना ही चाहिए। किसी उपयुक्त स्थान पर गायत्री माता का चित्र टाँगा जाय और यह नियम बनाया जाय कि दैनिक कार्य आरम्भ करने से पूर्व उस प्रतिमा का अभिनन्दन करके- कम से कम पाँच मंत्र जाप करके तब आगे बढ़ा जाय। बच्चे स्कूल जाते समय, स्त्रियाँ चूल्हा जलाते समय, पुरुष दफ्तर, दुकान पर जाते समय यह नमन अभिनन्दन चित्र के सामने खड़े होकर कर सकते हैं। इसमें दो मिनट का समय लगता है। उससे आस्तिकता के संस्कार जमते और बढ़ते हैं। इसका परिणाम दृष्टिकोण में उच्चस्तरीय आदर्शों को समाविष्ट रहने का लाभ मिलता है। सायंकाल सामूहिक रूप से आरती करने की- संगीत सहगान की परम्परा डाली जाय तो एक उत्साह एवं सद्भाव संवर्धक वातावरण बनता है।

घर के सदस्य अपने-अपने कामों में ही व्यस्त न रहे, वरन् एक दूसरे को सुनने-समझने तथा सहयोग देने-लेने की स्थिति में भी रहे, ऐसी परम्पराएँ पुनः प्रचलित करनी चाहिए। अधिक पढ़े- कम पढ़ो को पढ़ायें। साथ खेले, साथ टहलें, जिसको जो आता हो- वह दूसरों को सिखाये। भोजन साथ-साथ बैठ कर करे। कभी- कभी रसोई बनाने में ही सब लोग साथ-साथ जुट जाये। कपड़े धोने में एक साबुन लगाये तो दूसरा धोये। इस प्रकार छोटे-बड़े कामों में सर्वथा एकाकीपन रखने की अपेक्षा मिल-जुलकर करने की सहयोगी सहकारी प्रवृत्ति पनपेगी और उसका अच्छा परिणाम सामने आयेगा। बच्चों को ऐसी आदत डालनी चाहिए कि कोई मिठाई आदि आवे तो मिल-बाँटकर खावें, एकाकी अथवा अधिक खाने का आग्रह न करे। भोजन परोसने में रुचि लेने से भी उदारता के बीज जमते हैं। अपने को हथियाये रहना और दूसरे का छीनने का प्रयत्न करना- जैसी संकीर्णता पनपने नहीं देनी चाहिए। जेवर भी एक से दूसरे स्त्रियो में उलटते-पलटते रहे तो इससे विषाक्त आपाधापी की जड़ कटती है। हारी-बीमारी में - हर दुख सुख में एक दूसरे का पूरा ध्यान रखे। हर सदस्य एक दूसरे को शिष्ट सम्बोधन के साथ पुकारे। ‘तू’ को असभ्य बोली माना जाय। बड़े भी छोटों को ‘तू’ न कहे। ‘तुम’ एवं ‘आप’ का सम्बोधन और नाम के आगे ‘जी’ लगाने का प्रचलन किसी परिवार को सभ्यतानुयायी सिद्ध करता है। गाली-गलौज कटु वचन, व्यंग, उपहास, चीखना, रूठना, क्रोधावेश में भरना, मार-पीट करना, अपना सिर धुनना - असभ्य और अवांछनीय व्यवहार घोषित किया जाये और वैसा आचरण करने वाले की भर्त्सना की जाय। वैसा बार-बार न होने पाय इस पर कड़े प्रतिबन्ध लगाया जाय और ऐसी उद्दण्डता की पूरे परिवार द्वारा चेष्टा की जाय। मतभेद और विरोध संघर्ष के अवसर आने पर भी शिष्टाचार का उल्लंघन न होने दिया जाय। बुराई रोकने के लिये अशिष्टता बरती जाय तो फिर सुधार कम और बिगाड़ ही अधिक होगा।

अपव्यय किसी को न करने दिया जाय। उक्ति आवश्यकताओं की पूर्ति की जानी चाहिए, पर पैसे को उलीचने और फूँकने की आदत नहीं पड़ने देनी चाहिए। लाड़ चाव में बच्चों को अपव्ययी बना देना- उन्हें भावी जीवन में दुख दारिद्रय का शाप देना है। पैसा कमाने में उतनी बुद्धिमतां नहीं, जितनी उसका खर्च करने में। स्वास्थ्य शिक्षा की उपयोगी आवश्यकताएँ पूर्ण करने में कुछ भी खर्च किया जा सकता है, पर विलासिता, ऐयाशी एवं शान-शौकत के नाम पर अवांछनीय अपव्यय एक पाई का भी नहीं होने देना चाहिए। अमीरी की शान फिजूलखर्ची के रूप में जो इन दिनों बढ़ रही है, उसे रोकना चाहिए। सादगी का सीधा सम्बन्ध सज्जनता से है- यह समझना और समझाना चाहिए। पैसा उड़ाने फूँकने के लिए नहीं, अपनी अथवा दूसरों की उपयोगी आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए है। यह तथ्य जब तक समझा न जाएगा, तब तक व्यक्तित्व में ओछापन ही भरा रहेगा।

परिवार को एक सहयोग- समिति के रूप में विकसित करना चाहिए। जिसका हर सदस्य अपने कर्तव्य और अधिकार की मर्यादाओं को समझे। न तो कोई पिसता रहे और न किसी को मटरगश्ती करने दी जाय। बड़े -बूढ़े भी ठाली बैठकर अपना अधिकार एवं सम्मान न समझे, वरन् सामर्थ्य भर श्रम करते हुए परिवार के विकास में समुचित योगदान करे। विचार-स्वतन्त्रता का सम्मान किया जाय। हराम की कमाई खाने का लालच किसी में पैदा न होने दिया जाय। परिवार के हर सदस्य को स्वावलम्बी बनाया जाय। पूर्वजों की संचित सम्पत्ति पर गुजारा करना अशक्तता और लोलुपता का लज्जास्पद कृत्य माना जाय। पूर्वजों की संचित पूँजी सामाजिक कार्यों के लिए दान कर दी जाय। यही श्राद्ध की परम्परा है। उत्तराधिकार में प्रचुर सम्पदा छोड़ भरना- अपने बच्चों का पतन हनन करना है। उन्हें सुयोग्य स्वावलम्बी बनाया जाय और अपने परिश्रम की कमाई पर गुजारा करने में स्वाभिमान अनुभव करने दिया जाय। औलाद सात पीढ़ी तक बैठकर खाती रहे, ऐसा संचय करना- वस्तुतः समाज का हक मारना है। अतिरिक्त सम्पदा पर तत्त्वतः समाज का ही अधिकार होना चाहिए, उसे लोक-मंगल में ही खर्च होना चाहिए। समर्थ बालकों को हराम की कमाई न तो खाली चाहिए और न उन्हें दी जानी चाहिए। इस तथ्य को जिस परिवार में समझ लिया जाएगा, वह सम्पन्न भले ही न हो सुसंस्कृत अवश्य माना जाएगा।

हमें समझना चाहिए कि परिवार एक पूरा समाज, एक पूरा राष्ट्र है। भले ही उसका आकार छोटा हो, पर समस्याएँ वे सभी मौजूद है- जो किसी राष्ट्र या समाज के सामने प्रस्तुत रहती है। प्रधानमंत्री अथवा राष्ट्रपति का जो बात अपने देश को समुन्नत बनाने के लिए सोचनी करनी चाहिए, वही सब कुछ किसी सद्गृहस्थ को परिवार-निर्माण के लिए करनी चाहिए। एक कुशल माली जिस तरह अपने उद्यान को सुरम्य, सुविकसित बनाने के लिए अथक परिश्रम करता है- हर पौधे पर पूरा ध्यान रखता है, उसे सींचता छाँटता है, उसी प्रकार परिवार के हर सदस्य को सुसंस्कृत बनाने के लिए उसके साथ नरम, कठोर व्यवहार करते रहना चाहिए। उपार्जन और यारबाजी में ही आम तौर से लोग अपना अधिकाँश समय गुजारते हैं। फलतः परिवार की उपेक्षा होती रहती है और उसमें ऐसे विषबीज पनपते रहते हैं, जिनके कारण आगे चलकर कुटुम्ब दुष्प्रवृत्तियों का फूट-फिसाद का शिकार होकर नष्ट- भ्रष्ट ही हो जाय।

अपने समग्र व्यक्तित्व का विकास करने के लिए- गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करने के लिए- परिवार-निर्माण के कार्यक्रम को एक उपयोगी- प्रयोग प्रकरण मानना चाहिए। यह छोटे रूप में देश-सेवा समाज-सेवा , विश्व-सेवा ही है। अपना और परिवार के सदस्यों का कल्याण तो इसमें ही है। कहना न होगा कि इस प्रयोग में सफलता प्राप्त करने के लिए अपना निर्माण भी करना है। इस प्रकार युग- निर्माण का दूसरा चरण- परिवार निर्माण- अभीष्ट लक्ष्य की पूर्ति में एक अति महत्वपूर्ण कड़ी सिद्ध होता है।


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