धर्मधारणा को आचरण में उतारा जाय

November 1973

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नीति का वचन है- शास्त्र पढ़ कर भी लोग मूर्ख होते हैं। शास्त्रज्ञ तो वह है जो उनके निर्देशों का पालन करता है। औषधि के गुणानुवाद गाने से रोग निवृत्त नहीं होता। इसके लिए तो उसे सेवन करने से ही काम चलेगा।

स्वाध्याय और सत्संग का महत्व इसलिए माना गया है कि पढ़े हुए आप्त वचन और सुने हुए सदुपदेशों को हृदयंगम करके मनुष्य अपनी त्रुटियों को सुधारे तथा सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्राप्त करे। मूल प्रयोजन किसी वस्तु के पन्ने उलटना अथवा किसी के मुख से निकले वचनों का सुनना नहीं है। यह तो पुण्यफल प्राप्त करने का साधन है साध्य नहीं। शास्त्रों का पाठ पुण्य भी हो सकता है पर वैसा होगा तभी जब उसको-उसके उपयुक्त अंश को जीवन क्रम में उतारा जाय। यदि ऐसा कुछ नहीं हुआ केवल अक्षरों को ही पढ़ लिया गया तो वह एक उपयोगी समय क्षेप भर है। शहद को बहुविधि चर्चा सुनने का तभी लाभ हो सकता है, जब उसे उपलब्ध और सेवन किया जाय। यदि मधु के गुण बताने वाली पुस्तक को पढ़ भर लिया गया है तो भला मधु सेवन से मिलने वाला लाभ कैसे प्राप्त होगा? किसी धर्म शास्त्र के पाठ का कितना ही अधिक महत्व क्यों न बताया जाता रहा हो वह सही तभी सिद्ध होगा जब उसकी प्रेरणा जीवनक्रम को उत्कृष्टता की दिशा में अधिक तत्परता पूर्वक अग्रसर होने की प्रेरणा दे सके।

यही बात किसी संत या महापुरुष के दर्शन करने और उसके प्रवचन करने पर लागू होती है। कोई कितना ही बड़ा योगी या सन्त क्यों न हो उसके दर्शनमात्र से किसी को कुछ भी लाभ प्राप्त नहीं हो सकता और कान के पर्दे से टकरा कर हवा में उड़ जाने वाले प्रवचन कोई पुण्यफल प्रस्तुत कर सकते हैं। दर्शन अथवा श्रवण को अपने आप में पूर्ण मान बैठना भारी भूल है। वे जीवनोत्कर्ष की दिशा में प्रेरणा देने वाले हो सकते हैं और यदि वे व्यक्तित्व का अनुकरण कर सकता हो तो ही वह महात्म्य वर्णन सिद्ध होगा जिससे सन्त दर्शन अथवा कथन श्रवण का पुण्यफल बताया गया है। सत्संग का प्रयोजन यह है कि श्रेष्ठ लोगों ने अपना व्यक्तित्व ढालने में और कर्तव्य प्रखर करने में क्या और कैसे प्रयास किये है उन्हें निकटवर्ती अध्ययन -अन्वेषण द्वारा हृदयंगम करने का प्रयास करे। जिन्होंने गहराई में उतर कर समुद्र में प्रवेश किया है उन्हीं ने मोती पाये है जो किनारे पर बैठ कर समुद्र का दर्शन करते हैं उन्हें समुद्र की संगति का उथला संतोष भले ही हो जाय कुछ कहने लायक उपलब्धि उनके हाथ लगने वाली नहीं है।

धर्म की सार्थकता धारणा अथवा निष्ठा में है। जो किया कृत्य हमें सन्मार्ग पर बढ़ चलने की प्रेरणा दे सके उन्हीं को सार्थक कहा जाएगा। धार्मिक कर्म काण्डों का एक मात्र तात्पर्य यह है कि उन्हें पूरा करने के साथ जो उच्च भावनाएँ उस प्रयोजन के साथ जुड़ी रहती है उन्हें विशेष मनोयोग पूर्वक समझा जाय और उन्हें निष्ठा पूर्वक जीवन की गतिविधियों में समाविष्ट किया जाय। समस्त कर्म-काण्डों का विधान इसी एक उद्देश्य के लिए हुआ है। तथ्य की गहराई में प्रवेश न करके यदि उथली समझ में यह मान बैठा जाय कि वह क्रियाकृत्य ही पुण्य फल ही प्राप्ति करा सकता है तो यह भयंकर भूल ही होगी। भोजन बनाने का क्रिया कृत्य कितना ही व्यवस्थित क्यों न हो उसका लाभ तभी है जब बनायी हुई रसोई को खाया भी जाय। व्यंजनों की प्रदर्शनी देख कर अथवा लाभ कर भूख नहीं बुझाई जा सकती और न धर्मकृत्यों की विधि व्यवस्था जुटाने मात्र से आत्मिक प्रगति अथवा आत्मशान्ति का लक्ष्य पूरा होता है। मुख्य लाभ तो आचरण का है उसी की प्रेरणा देने के लिए सत्संग, स्वाध्याय, संतदर्शन, कथाप्रवचन एवं विविध विधि धर्मकृत्यों का प्राविधान किया गया है।


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