हम बिच्छू की तरह अपनी मातृसत्ता को समाप्त न करें

November 1973

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पृथ्वी की भी स्वाभाविक मृत्यु अन्य ग्रह नक्षत्रों के समान अपने नियत क्रम और नियत समय पर हो सकती है। पर लगता है उसके बच्चे अपनी माँ को समय से पहले ही मार डालने के लिए आतुर हो रहे हैं। बिच्छुओं में ऐसा ही होता है उसके बच्चे ही माता के पेट को खा-पीकर साफ कर देते हैं। लगता है मनुष्य भी धरती को जल्दी ही मौत के मुँह में जल्दी से जल्दी धकेल देने के लिए आतुर हो रहा है। इस संदर्भ में उसे बिच्छू बच्चों जितना भी लाभ नहीं मिलने वाला है। माँ को खाकर बिच्छू बच्चे जीवित बने रहते हैं। पर मनुष्य का दुर्भाग्य इतने तक भी सीमित नहीं रहने देगा, धरती का अन्त होने के साथ-साथ मनुष्य को भी अपना अस्तित्व गँवाना पड़ेगा। इस स्थिति को मनुष्य जाति का महामरण भी कहा जा सकेगा।

परमाणु विस्फोट, कारखाने, द्रुतगामी वाहन, जंगलों को काटना, घास वाले क्षेत्र का घटना यह सारे उपद्रव इन दिनों लाभदायक समझे जाते हैं और उत्साहपूर्वक लोग इन प्रयासों में जुटे है। विभिन्न प्रयोजन के लिए अग्नि जलने की- और उसमें जीवाश्म युक्त ईंधन झोंके जाने की गति निरन्तर तीव्र होती जा रही है। फलस्वरूप तथा कथित वैज्ञानिक प्रगति से पहले वाले कुछ समय पूर्व के और अब के वायुमण्डल में 15 प्रतिशत कार्बनडाइ गैस तथा 15 प्रतिशत आक्सीजन घटने का अन्तर पड़ गया। अर्थात् 30 प्रतिशत अशुद्धता बढ़ गई। अशुद्धता की यह बढ़ोत्तरी उसी क्रम से चलती रही तो फिर हम अपनी धरती को ही शुक्र या मंगल की स्थिति में चली जाने के लिए विवश कर देंगे।

स्टैनफर्ड विश्वविद्यालय के अन्तरिक्ष विज्ञानी वान. आर. एश्लेमन ने पृथ्वी के वायुमण्डल में इन दिनों बढ़ रहे असंतुलन पर चिन्ता व्यक्त की। पिछले सौ वर्षों से लकड़ी कोयला जैसे जीवाश्म ईंधन को बहुत बड़े परिमाण में जलाया जा रहा है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि वायुमण्डल में लगभग 15 प्रतिशत कार्बनडाइ गैस की मात्रा बढ़ गई है। इसके अतिरिक्त जीवाणुओं की संख्या घट जाने से उनके द्वारा उत्पन्न की जाने वाली आक्सीजन की उत्पत्ति लगभग उतनी ही अर्थात् 15 प्रतिशत ओर घट गई। यह दोहरी हानि अपनी धरती के लिए भावी संकट के लिए बढ़ती आ रही विभीषिकाओं की पूर्व चेतावनी है।

मनुष्य का प्रधान आहार ‘आक्सीजन’ है। अन्न, जल की अपेक्षा अनेक गुनी ‘आक्सीजन’ वह साँस द्वारा ग्रहण करता है। जीवन की आधारशिला यह प्राणवायु ही है। अन्न जल के बिना कुछ समय गुजर बसर हो सकती है पर शुद्ध वायु के बिना क्षण भर भी गुजारा नहीं। मनुष्य सब से अधिक खपत आक्सीजन की ही करता है। दुर्भाग्यवश हम जंगलों का सफाया करके उनके स्थान पर बड़े शहर तथा कल कारखाने खड़े करते चले आ रहे हैं। एक ओर तो वृक्ष वनस्पति कटने से आक्सीजन का उत्पादन कम होता है, दूसरी ओर कल-कारखाने तथा तेल वाहन अपने धुँऐ से कार्बनडाइ गैस की मात्रा बढ़ाते हैं। आक्सीजन का घटना और कार्बनडाइ गैस का बढ़ना न केवल मानव प्राणी के लिए वरन् भूमंडल की वर्तमान स्थिति के लिए भी संकट उत्पन्न करेगा।

जीवों और वनस्पतियों की उपस्थिति पृथ्वी के वर्तमान वातावरण को रासायनिक रूप से संतुलित बनाये हुए है। यदि यह संतुलन नष्ट हो जाय तो फिर अपनी धरती भी अन्य ग्रह नक्षत्रों से अत्यधिक ठण्डी या गर्म होकर वैसी ही निर्जीव हो जायेगी।

पृथ्वी, शुक्र तथा मंगल इन तीनों ग्रहों की रचना एक ही समय एक ही मूल-भूत पदार्थ से हुई है। आरम्भ में हाइड्रोजन और हीलियम का उनमें समान बाहुल्य था किन्तु शुक्र और मंगल के वायुमण्डल में उपयोगी तत्व स्थिर न रह सके। वे अन्तरिक्ष में उड़ गये। धरती के इन दो सहोदरों की स्थिति मृतप्राय हो गई।

अब शुक्र और मंगल के वायुमंडलों में कार्बनडाइ आक्साइड गैस का बाहुल्य है। उनमें नाइट्रोजन की मात्रा 20 प्रतिशत से भी कम है मंगल के वायुमंडल का घनत्व पृथ्वी की तुलना में प्रायः सौ गुना कम है और शुक्र के धरातल की वायु गरम पतले द्रव रूप में है। जिसका घनत्व पानी से दस गुना कम है।

मंगल के वायुमंडल में कार्बनडाइ गैस का सघन आवरण नहीं है इसलिए सूर्य से मिलने वाली गर्मी वहाँ ठहरती नहीं और आकाश में उड़ जाती है। अस्तु वहाँ अत्यधिक ठंडक है।

शुक्र पर कार्बनडाइ गैस का घना तथा ऊँचा आवरण है। सूर्य से जो गर्मी शुक्र के धरातल पर पहुँचती है उसे वह वायुमंडल वहाँ रोक लेता है और वापिस अन्तरिक्ष में नहीं लौटने देता अस्तु वहाँ गर्मी बढ़ती ही जाती है। शुक्र और मंगल के वायुमंडल ने ही उन्हें अधिक गर्म या अधिक ठंडा बना कर निर्जीव परिस्थितियों में ला पटका है।

पृथ्वी की स्थिति इन दोनों से भिन्न है। यहाँ सूर्य की गर्मी को उचित मात्रा में ग्रहण करने की और शेष को अन्तरिक्ष में वापस लौटा देने की क्षमता है। इसी से यहाँ शीत-ताप का संतुलन बना हुआ है और प्राणियों के जन्मते बढ़ते रहने की परिस्थितियाँ बनी हुई है।

अपने वायुमंडल को सन्तुलित बनाये रहने में जीवाणुओं का भारी योगदान है। अपनी धरती के इर्द-गिर्द जितना निर्जीव पदार्थ भरा पड़ा है उसकी तुलना में प्रायः एक करोड़ गुना जीवाणु पदार्थ है। यदि जीवाणु सत्ता घटने लगे तो वायुमंडल में आक्सीजन की तथा अन्य पदार्थों की मात्रा घट जायेगी। सघनता बढ़ी तो गर्मी बढ़ेगी और झीनापन आया तो शीत का आधिपत्य जम जायेगा वायुमंडल के वर्तमान संतुलन का बिगड़ना भविष्य में पृथ्वी को भी शुक्र और मंगल की स्थिति में ही धकेल देगा, तब यहाँ जीवधारियों के अस्तित्व की सम्भावना न रह जायेगी।

वायुमंडल की जीवनोपयोगी स्थिति कायम रहे इस के लिए यह आवश्यक है कि दृश्य और अदृश्य जीवसत्ता का अस्तित्व स्थिर रहे। इससे पृथ्वी पर न केवल गर्मी बढ़ेगी वरन् कार्बनडाइ गैस बढ़ जाने से प्राणियों का जीवन कठिन हो जायेगा। आक्सीजन के अभाव में वे क्रमशः दुर्बल, सुस्त अविकसित और अल्पजीवी होते चले जायेंगे। यही विपत्ति अन्तरिक्ष में -और भूतल पर विचरण कर रहे आँख से न दीख पड़ने वाले जीवाणुओं की होगी। आखिर गैसीय आहार तो उन्हें भी चाहिए। दमघोटू परिस्थितियों में तो न केवल जीवधारी ही समाप्त होगे वरन् जीवसत्ता भी अपना अस्तित्व गँवाती चली जायेगी।

बुद्धिमान समझा जाने वाला मनुष्य आज प्रगति शीलता के नशे में मन्दमति हो रहा है उसे तत्काल अधिकाधिक साधन सुविधायें प्राप्त करने की धुन है। इस सनक में वह भावी जीवन-मरण की सम्भावनाओं को एक प्रकार से उपेक्षित ही करता चला जा रहा है। किन्तु वह दिन दूर नहीं जब यह तथाकथित प्रगतिशीलता बहुत महँगी पड़ेगी।

वैज्ञानिक प्रगति और आर्थिक उन्नति के नाम पर हम जो कुछ कर रहे है देखना चाहिए कि वह बालकों जैसी एकांगी आतुरता तो नहीं है विशेषतया तब तो इस अन्धी दौड़ को और भी अधिक गम्भीरता के साथ परखा जाना चाहिए जब कि इस भूतल के लिए और समस्त मानवजाति के लिये ही संकट उत्पन्न कर रही हो। सामूहिक रूप से संपन्नता के अत्युत्साह के कारण समस्त संसार के लिए संकट उत्पन्न हो रहा है और व्यक्तिगत जीवन में उसी रीति-नीति को अपनाकर व्यक्तित्व के स्वस्थ विकास की सम्भावनाओं को धूमिल किया जा रहा है। अच्छा हो समय रहते हम अपनी इस अविवेकशीलता से कदम पीछे हटा ले।


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