मंत्र साधना और उसकी रहस्यमय शक्ति

November 1973

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योगी अरविन्द ने कहा है ग्रह नक्षत्रों की संरचना से लेकर विज्ञान के अनेकानेक रहस्यों का उद्घाटन करके मनुष्य ने बहुत बड़ी उपलब्धि प्राप्त की है। किन्तु यदि हमारे पास मनुष्य की आत्मा को समझ सकने वाला यंत्र रहा होता तो प्रतीत होता कि उस महत्त्व के सामने पदार्थ विज्ञान की समस्त उपलब्धियाँ नगण्य है।

मनुष्य की प्रकट और अप्रकट शक्तियों में से एक अति महत्वपूर्ण शक्ति है उसकी वाणी। वाणी के सहारे वह ज्ञानार्जन करता है, एक की जानकारी दूसरे को मिलती है और विविध विधि साँसारिक क्रिया-कलाप चलते हैं। वाणी का भौतिक महत्व असंदिग्ध है। दूसरों को मित्र बनाने और शत्रु बनाने का उल्लास और रोष उत्पन्न करने का जितना काम वाणी करती है उतना कर सकने वाला संसार में और कोई आधार नहीं है।

वाणी का आध्यात्मिक आधार और भी अधिक महत्वपूर्ण है। मंत्राराधन इसी प्रकार की रहस्यमयी प्रक्रिया है जिसके आधार पर मनुष्य की सर्वतोमुखी प्रगति और दूसरों की सहायता की पृष्ठभूमि बनती है। यदि यह साधना ठीक प्रकार की जा सके तो उस रहस्यमयी शक्ति का प्रचुर परिमाण में उत्पादन किया जा सकता है जो मनुष्य के भौतिक और आत्मिक क्षेत्रों को आश्चर्यजनक सफलताओं से भर सकती है। मंत्रशक्ति में चमत्कारों का प्रधान आधार है- शब्द। शब्द शक्ति का स्फोट। इसके साथ ही साधक की शारीरिक मानसिक और भावनात्मक स्थिति की पृष्ठभूमि जुड़ी हुई है। इन सब के समन्वय से ही वह प्रभाव उत्पन्न होता है जिसे मन्त्र शक्ति का चमत्कार कहा जा सके।

शब्दोच्चारण में जिह्वा, ओष्ठ, दाँत, तालु, कण्ठ आदि मुख से सम्बन्धित कई अवयवों का संचालन होता है तब कही पूर्ण ध्वनि निकलती है। केवल जिह्वा का ही अवलम्बन हो तो मनुष्य भी पशु-पक्षियों की तरह थोड़ी सी ही ध्वनियों का उच्चारण कर सके। उनके शब्दोच्चारण से मुख अवयव गति ही नहीं करते वरन् उनकी हलचल सूक्ष्म शरीर के रहस्यमय केन्द्रों को भी प्रभावित करती है। शठ चक्र, तीन ग्रन्थियों, तीन नाड़ियाँ, दश प्राण, चौवन उपत्यिकाओं, आदि को सूक्ष्म शरीर के अति महत्वपूर्ण संस्थान कहने चाहिये। उनको सक्रिय एवं जाग्रत बनाने में मंत्र के अक्षरों का प्रवाह महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करता है।

टाइप राइटर यंत्र की कुञ्जियाँ पर उँगली दबाते ही दूर रखे कागज पर तीलियां गिरनी आरम्भ हो जाती हैं और अक्षर छपने लगते हैं। हारमोनियम की कुञ्जियों पर उँगली रखते ही रीड़ खुलती है और स्वर गूँजने लगते हैं। ठीक यही प्रक्रिया मन्त्रोच्चारण में होती है। मुख में होने वाली हरकत सूक्ष्म शरीर के विभिन्न शक्ति संस्थानों पर प्रहार करके उनमें विशिष्ट हलचल उत्पन्न करती है तदनुसार साधक की अन्तः में जागरण एवं स्फुरण के ऐसे दौर आते हैं जिनके सहारे चमत्कारी दिव्य शक्तियाँ जाग्रत हो सके और साधक व्यक्ति ऐसी विभूतियों से भर सके जैसी कि सर्वसाधारण में नहीं पाई जाती।

मोटे तौर से शब्द का प्रयोजन कर्णेन्द्रिय के माध्यम से कतिपय प्रकार की जानकारियाँ मस्तिष्क तक पहुँचाना भर समझा जाता है पर बात इतनी खोटी नहीं है। शब्द की शक्ति पर जितना गहरा चिन्तन किया जाय उतनी ही उसकी गरिमा और विलक्षणता स्पष्ट होती चली जाती है। आज की यांत्रिक सभ्यता जितना शोर उत्पन्न कर रही है उसके दुष्परिणामों से मानव जाति को पूरी न हो सकने वाली क्षति उठानी पड़ेगी। अतिस्वन और जेट विमान आकाश में जितनी आवाज करते हैं उससे उत्पन्न होने वाली हानिकारक प्रतिक्रिया को सर्वत्र समझ रहा है और इन विशालकाय द्रुतगामी वायुयानों को कोलाहल रहित बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है। यंत्र भी ऐसी कर्णातीत ध्वनियाँ उत्पन्न करते हैं जो आश्चर्यजनक और अप्रत्याशित परिणाम उत्पन्न कर सके।

संगीत अब मनोरंजन मात्र नहीं रहा वरन् उसे एक महत्वपूर्ण शक्ति स्वीकार कर लिया गया है। संसार के सुविकसित अस्पतालों में संगीत ध्वनि प्रवाह का पूरा लाभ रोगियों को दिया जा रहा है। पशुओं का दूध बढ़ाने में- पौधों को अधिक विकसित करने में संगीत का प्रयोग उत्साहपूर्वक किया जा रहा है। जापान में बच्चों में सहृदयता और अनुशासनप्रियता बढ़ाने के लिये आरम्भिक स्कूलों से ही संगीत का प्रशिक्षण किया जा रहा है। संगीत वस्तुतः ध्वनि प्रवाह का एक विशेष क्रम मात्र है। मंत्र को भी इसी आधार पर विनिर्मित समझना चाहिये। उनके अक्षरों के चयन का क्रम तथा उच्चारण का अनुशासन दोनों को मिला कर एक प्रकार से विशिष्ट संगीत का ही प्रादुर्भाव होता है। उसके द्वारा साधक को अतिरिक्त विशेषताओं को सम्पन्न बनने का अवसर मिलता है। इसका आत्मबल प्रचण्ड बनता है और अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति का पथ प्रशस्त होता है।

मंत्रों की विशेषता शब्दों के एक विशेष क्रम से चयन गुँथन में है। वे ध्वनि विज्ञान के एक विशेष नियम क्रम के अनुरूप गढ़े होते हैं जिनका एक ही प्रवाह से देर तक उच्चारण करने से एक विशेष स्तर की ऊर्जा उत्पन्न होती है। हाथों को एक ही गति से रगड़ने पर वे बात ही बात में गरम हो जाते हैं। कुछ एक शब्दों को एक ही क्रम में- एक ही गति से- एक ही स्वर में उच्चारित किया जाय तो उसकी प्रतिक्रिया से न केवल उस व्यक्ति का शरीर और मन वरन् समीपवर्ती वातावरण भी उत्तेजित हो जायेगा। किसी किसी को मंत्र देवता का साक्षात्कार होता है और सफलता का आशीर्वाद सुनाई पड़ता है। यह स्थूल कानों से स्थूल आँखों से नहीं होता वरन् पूर्णतया सूक्ष्म होता है। सूक्ष्म इन्द्रियाँ ही उसकी अनुभूति करती है फिर भी कई बार उसमें इतनी प्रखरता होती है कि उस घड़ी स्थूल जैसा ही दर्शन या श्रवण अनुभव में आता है आवश्यक नहीं हर मंत्र सिद्धि से हर किसी को श्रवण या दर्शन मिले, पर विश्वास और निष्ठा को परिपक्वता, उत्साह एवं मनोबल का अनुभव अवश्य होता है। सफलता व्यक्त करने वाली प्रसन्नता चेहरे पर और विजय उपलब्धि की चमक साधक की आँखों में चमकती हुई स्पष्ट देखी जा सकती है। इन सफलता सूचक अनुभूतियों को स्फोट कहा गया है।

मंत्र की भाव भूमिका चुम्बकत्व उत्पन्न करती है और स्फोट उसे असंख्य गुना विस्तृत एवं सशक्त बनता हो। अणु का आरम्भिक विस्फोट सामान्य होता है उसके चारों ओर घिरा वातावरण ही गुणन शक्ति उत्पन्न करके उसे अति भयंकर बनाता है। यही प्रक्रिया मंत्र में भी होती है। मंत्र में सन्निहित भावना, कर्मकाण्ड के साथ जुड़ी श्रद्धा तप साधना से उत्पन्न, शब्द शक्ति का प्रचण्ड प्रवाह जैसी अनेकों रहस्यमयी मंत्राराधन की विशेषताएँ मंत्र को जागृत करती है और निष्ठावान् साधकों को सिद्ध मांत्रिक के स्तर पर ले जाकर पहुँचा देती है।

यहाँ एक बात और ध्यान रखने योग्य है कि मंत्राराधन में प्रयुक्त होने वाले हर उपकरण में- पदार्थ में , अवयव में- दिव्य सत्ता का आवाहन करना पड़ता है और उसे सामान्य पदार्थ न रहने देकर देव आयुध के रूप में प्रतिष्ठापित करना पड़ता है। स्नान के जल में तीर्थों का, आत्मा का अवतरण कराने वाले मंत्रों का उच्चारण जल में वरुण देव सहित अन्य देवों का आवाहन है। इस प्रकार श्रद्धासिक्त जल से स्नान करने पर साधक की निष्ठा में गहरा पुट लगता है। आसन, माला, पंचतत्व, दीपक, चन्दन पुष्प आदि उपकरणों के प्रयोग में मंत्रोच्चारण एवं अमुक क्रम विधान अपनाने की जो परम्परा है उसे निरर्थक नहीं माना जाना चाहिए। यथा क्रम करने से वे सामान्य लगने वाली वस्तुएँ उस विशेष चेतन स्तर की बनती है जिसकी कि मंत्र प्रयोग में आवश्यकता है। इष्ट देव की प्रतिमा में प्राण-प्रतिष्ठा -षोडशोपचार पूजन जैसी व्यवस्थायें उसी दृष्टि से है कि गहन श्रद्धा का आरोपण उस पार्थिव प्रतीक को समर्थ सत्ता का प्रतिनिधि बनाकर प्रचण्ड प्रेरणा देने का प्रयोजन पूरा कर सके।

साधक को अपने अंग-प्रत्यंग में न्यास मन्त्रों द्वारा विविध देव शक्तियों की प्रतिष्ठापना करनी पड़ती है। पवित्रीकरण, आचमन प्राणायाम, न्यास का प्रयोजन सूक्ष्म स्थूल और कारण शरीरों को परिशुद्ध बनाता है। शरीर और मन का परिमार्जन करने के लिए मंत्र जप प्रारम्भ करने से पूर्व कई तरह के कर्मकाण्ड विधान करने होते हैं इनमें से बहुत से अपने में देव भाव की स्थापना के लिये होते हैं। यह प्रयोग साधन में प्रयुक्त होने पर उपकरणों को सफलता में सहायक रहने योग्य बनाते हैं।

ध्वनि की ऊर्जा विज्ञान सम्मत है। यदि श्रव्य-ध्वनि औडिबल साउण्ड- लगातार चालू रखी जाय तो उससे कुछ ही समय में पानी खोलने जितनी गर्मी पैदा हो जायेगी।

मन्त्र से भावनायें और विचारणाएँ जुड़ी रहती हैं और एक ही विचारधारा को लगातार मस्तिष्क में स्थान देते रहने से वह चिन्तन प्रक्रिया पर सवार हो जाता है और एक चिरन्तन प्रवाह का रूप धारण करता है। यह मार्ग मस्तिष्कीय प्रशिक्षण एवं परिवर्तन की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी है। इससे मन को किसी विशेष भूमिका में रमण करने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। विकृतियों को सुधारा जा सकता है और अभिरुचि तथा प्रकृति में परिवर्तन लाया जा सकता है। यह अर्थ चिन्तन को स्थान देते हुये मंत्र अनुष्ठान का सामान्य लाभ हुआ।

शब्दशक्ति का स्फोट मंत्र शक्ति की रहस्यमय प्रक्रिया है। अणु विस्फोट से उत्पन्न होने वाली भयानक शक्ति की जानकारी हम सभी को है। इन शब्द कम्पन घटकों को विस्फोट अणु विखण्डन की तरह हो सकता है। मंत्रों की शब्द रचना का गठन तत्व दर्शी मनीषी तथा दिव्य दृष्टा मनीषियों ने इस प्रकार किया है कि उनका जपात्मक, होमात्मक तथा दूसरे तप साधनों एवं कर्मकाण्डों के सहारे अभीष्ट स्फोट किया जा सके। वर्तमान बोलचाल में विस्फोट शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त होता है लगभग उसी में संस्कृत में स्फोट का भी प्रयोग किया जाता है। मंत्राराधन वस्तुतः शब्दशक्ति का विस्फोट ही है।

शब्द स्फोट से ऐसी ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती है जिन्हें कानों की श्रवण शक्ति से बाहर की कहा जा सकता है। शब्द आकाश का विषय है। योगी वायु उपासक है। उसे प्राणशक्ति का संचय वायु के माध्यम से करना पड़ता है। इस दृष्टि से मांत्रिक को योगी से भी वरिष्ठ कहा जा सकता है। सच्चा मांत्रिक योगी से कम नहीं वरन् कुछ अधिक ही शक्तिशाली हो सकता है।

मंत्र-साधना में जहाँ शब्द शक्ति का विस्फोट होता है। विस्फोट में गुणन शक्ति है। मंत्र में सर्व प्रथम देवस्थापन की सघन निष्ठा उत्पन्न की जाती है। यह भाव चुम्बकत्व है। श्रद्धा शक्ति के उद्भव का प्रथम चरण है। इस आरम्भिक उपार्जन का शक्ति गुणन करती चली जाती है और छोटा सा बीज विशाल वृक्ष बन जाता है। विचार का चुम्बकत्व सर्व विदित है। इष्ट देव की- मंत्र अधिपति की शक्ति एवं विशेषताओं का स्तवन, पूजन के साथ स्मरण किया जाता है और अपने विश्वास में उसे सर्वशक्ति सत्ता एवं अनुग्रह पर विश्वास जमाया जाता है। निर्धारित कर्मकाण्ड विधि विधान के द्वारा तथा तप साधना कष्टसाध्य तितीक्षा के द्वारा मंत्र की गुहा शक्ति के करतल गत हो जाने को भरोसा दीर्घकालीन साधना द्वारा साधक के मनः क्षेत्र में परिपक्व बनता है। यह निष्ठायें मिलकर मंत्र की भाव प्रक्रिया को परिपूर्ण चुम्बकत्व से परिपूर्ण कर लेती है।

मंत्र से दो वृत बनते हैं एक को भाववृत्त और दूसरे को ध्वनिवृत्त कह सकते हैं। लगातार की गति अन्ततः एक गोलाई में घूमने लगती है। ग्रह नक्षत्रों का अपने-अपने वृत पर घूमने लगना इसी तथ्य से संभव हो सका है कि गति क्रमशः गोलाई में मुड़ती चली जाती है। पिण्ड ब्रह्माण्डों की गति तथा आकृति गोल है उसका कारण गतिशीलता है। पहाड़ों से टूटे शिला खंड नदी प्रवाह में बहते-बहते गोलाकार बनते जाते हैं और छोटे बनने वाले बालू कणों के रूप से परिणत हो जाते हैं।

मंत्रजप में नियत शब्दों को निर्धारित क्रम से देर तक निरन्तर उच्चारण करना पड़ता है। जप यही तो है। इस गति प्रवाह के दो आधार है एक भाव और दूसरा शब्द। मंत्र के अंतराल में सन्निहित भावना का नियत निर्धारित प्रवाह एक भाववृत्त बना लेता है वह इतना प्रचण्ड होता है कि साधक के व्यक्तित्व को ही पकड़ और जकड़ कर उसे अपनी ढलान में ढाल ले। मंत्र विद्या को व्यक्तित्व का स्तर बदलने के लिये सफलता पूर्वक प्रयोग किया जा सकता है। कितने ही दोष दुर्गुण हटाये और मिटाये जा सकते हैं। सद्गुण सत्कर्म और सद्भाव के अभिवर्धन का लाभ मिल सकता है। शारीरिक और मानसिक रुग्णताओं से मुक्ति दिलाने में मंत्र विद्या का आशातीत उपयोग हो सकता है।

ज्ञानवृत्त और शब्दवृत्त दोनों ही अपने-अपने ढंग की शक्तियाँ संजोये हुये है। वे ऐसी भी है कि अन्याय व्यक्तियों को तथा परिस्थितियों के प्रवाह को उलट पुलट कर सकें। विष्णु के हाथ में लगा हुआ चक्रं सुदर्शन आत्मबल की प्रचण्ड क्षमता की ओर ही इंगित करता है। मंत्र की वृत परिधियाँ दूसरों के मनः स्तर को बदलने में और परिस्थितियों के कारण बने हुये वातावरण को पलटने में भी चमत्कारी सफलता उत्पन्न कर सकती है।

चेतना का अनन्त सागर वृत्तियों आवृत्तियों और पुनरावृत्तियाँ की लहरों में लहलहा रहा है। इन्हीं के चक्रव्यूह में इच्छा, क्रिया और कर्मफल बनकर हमें कही से कही घसीटें फिरती है। इसी चक्र जाल को बेधन करके हम जीवन मुक्त बनते हैं। यही जीवन का परम लक्ष्य है। इस दिशा में चलने वाले को भवबन्धनों की झाड़ियाँ काटते हुए चलना पड़ता है। मंत्र को समझने से जिस तथ्य को वह हृदयंगम कर पाता उसे मंत्रशक्ति का वृत, ट्रैक्टर या बुलडोजर के पहियों की तरह काटता चला जाता है।

मन्त्रानुष्ठानों में प्रायः अग्निहोत्र एक आवश्यक अंग होता है। सुगन्धित सामग्री जलाकर वायु को सुवासित कर लेना अलग बात है और यज्ञानुष्ठान दूसरी। यज्ञानुष्ठान में प्रयुक्त होने वाली समिधा, हव्य सामग्री, अग्नि चाहे जहाँ से चाहे जैसी नहीं ली जा सकती। जिस वृक्ष को जिस डाली को समिधा के लिए प्रयुक्त करना है उसकी स्थिति और पवित्रता को परखना पड़ता है। शुभ घड़ी में शुद्धता पूर्वक उसे अभिमंत्रित कुल्हाड़ी से काट कर लिया जाता है। सूखी डाली को नियत लम्बाई मुटाई में यज्ञकर्ता ही काटते हैं और अग्नि में डालने से पूर्व उनमें फिर प्राण प्रतिष्ठा करते हैं तब कही वे लकड़ियाँ समिधा कहलाने योग्य बनती है जहाँ तहाँ से ज्यों-त्यों लकड़ी लेकर हवन कुण्ड से झोंक देना हो तो ईंधन जलाने जैसा हुआ। उसके द्वारा प्रज्वलित अग्नि में चमत्कार नहीं देखा जा सकेगा।

अग्नि होत्र में प्रयुक्त होने वाले हव्य पदार्थों के बारे में भी यही बात है उन्हें विधान शृंखला के माध्यम से पवित्र बनाया जाना चाहिए। अग्नि को भी इसी प्रयोजन के लिये विधि साक्षी प्रज्वलित करके कुण्ड में प्रतिष्ठापित करना चाहिए। यज्ञ में प्रयुक्त होने वाले पात्र अमुक काष्ठ के अमुक आकार प्रकार के बनने है यह झंझट अकारण नहीं है। होत्र को स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहिन कर बैठना पड़ता है और अनुशासन में रहकर ही आहुति देने का क्रम पूरा करना पड़ता है। निर्धारित यज्ञ प्रक्रिया एवं मन्त्रोच्चारण की विधि व्यवस्था को अपनाना पड़ता है। इन प्रयोजनों में स्वेच्छाचार वर्जित है। उसमें विधि व्यवस्था का उल्लंघन करना न केवल श्रम को व्यर्थ बना देता है वरन् कई बार तो अवांछनीय प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है।

अग्निहोत्र की चर्चा यहाँ इसलिए की गई है कि वह भी मंत्राराधन के अन्तगतं आता है। उसी का एक विशेष प्रयोग है। यज्ञोच्चार के विभिन्न पक्षों में जिस प्रकार पवित्रता, सतर्कता रखी जाती है और भावशक्ति दिव्य प्रतिष्ठापना की जाती है उसी प्रकार मंत्राराधन के प्रत्येक पक्ष में बरती जानी चाहिये- मात्र जप करने में जुट पड़ना और उसके साथ जुड़ी हुई पूर्व परिस्थितियों को निरर्थक मानकर उपेक्षा करना ठीक न होगा।


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