शक्ति तो आत्मबल में सन्निहित है।

November 1973

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

असुरों पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त देवसभा के सदस्य अपने-अपने पराक्रम की चर्चा कर रहे थे कि किसी ने सभा भवन का दरवाजा खटखटाया। झरोखों में से देखने पर -बाहर कोई भयानक आकृति खड़ी दिखाई दे रही थी और गरज रही थी द्वार खोलो-द्वार खोलो।

तेजस्वी जातवेदस् अग्नि को भेजा गया। उनने द्वार खोला और नम्रता पूर्वक पूछा- देव आप कौन है? किस कारण अनुग्रह किया?

प्रश्न का उत्तर दिये बिना आगन्तुक ने पलट कर पूछा- तू कौन है?

अग्नि ने कहा- मैं जातवेदा हूँ। मैं हर वस्तु को जला देता हूँ।

आगन्तुक हंस पड़ा और एक तिनका सामने रखते हुए कहा- तो ले कम से कम इस तिनके को तो जला।

अग्नि हतप्रभ खड़े थे। लगता था वे निष्प्राण निस्तेज हो। तिनके को जलाने का उपक्रम कई बार किया पर वे सफल न हो सके। और उदास होकर वही भूमि पर बैठ गये।

दरवाजे पर इस प्रकार झंझट होते देख- दूसरे तेजस्वी देवता पवन स्थिति को समझने के लिए वहाँ पहुँचे। जो देखा उससे अवाक् रह गये। सूर्य के समान तेजस्वी आगन्तुक ने पूछा- महाभाग? आपका पुण्य परिचय?

अतिथि ने प्रश्न का उत्तर दिये बिना, फिर उलट कर पूछा- तू कौन है?

डरते सहमते उन्होंने कहा- मुझे वेगवान यातरिश्वा कहते हैं। मैं बहता हूँ और अपने साथ बहुतों को बहा ले जाता हूँ।

अतिथि की हँसी रुक न सकी- उनने वही तिनका चुनौती की तरह सामने रखा और कहा तो ले इस तिनके को उड़ा कर दिखा।

यातिरिश्वा हारे-हारे से खड़े थे। कुछ तो कर रहे थे पर करते बन पड़ा नहीं। लगा तिनका बहुत भारी है और वे उसे उड़ा नहीं सकेंगे। हार कर पवन भी जातवेदा की बगल में सिर झुकाकर बैठ गये। और नख से भूमि कुरेदने लगे।

अग्नि और पवन के वापस न लौटने पर देवसभा में आतंक छाया और वरिष्ठ नायकों की स्थिति समझने के लिए द्वार पर जाना पड़ा। वरुण और अन्तरिक्ष ने परिचय पूछा और आगन्तुक ने वही पद्धति दोहराई। एक ने कहा मैं गला देने वाला वरुण हूँ दूसरे ने कहा- सब को उदरस्थ करने वाला अन्तरिक्ष। दोनों के सामने तिनका पड़ा था। पर वे न तो उसे गला सके और न उदरस्थ कर सके निदान उन्हें भी अपने वरिष्ठजनों की बगल में बैठ जाना पड़ा।

अब परम तेजस्वी अतिथि स्वयं ही आगे बढ़ा और सिंहासन पर बैठे हुए इन्द्र से पूछा- असुरों पर विजय करने का अभियान करने वाला इन्द्र तू ही है? क्या तू अपनी शक्ति का परिचय दे सकता है? साथियों की दुर्गति इन्द्र के सामने थी। वे क्या उत्तर देते। जीवित होते हुए भी वे मृतक जैसे बने हुए थे।

स्तब्धता को भंग करते हुए तेजवान आगन्तुक ने स्वयं ही अपना परिचय दिया- मैं महायज्ञ हूँ- मुझे सर्व शक्तिमान ब्रह्मा कहते हैं - आह्वान के रूप में मुझे जाना जाता है। मेरी सत्ता में ही जड़ चेतन में समर्थता चेतना और गतिशीलता रहती है। देवताओं पंचतत्वों के बने कलेवरों और उपकरणों की प्रशंसा मत करो। ब्रह्मा ही बल है। प्रशंसा उसी की करो, महत्ता उसी की समझो। आराधना उसी की करो।

आगन्तुक महायज्ञ अपनी मात्र शिक्षा देकर द्युतिमान आभा के साथ अंतरिक्ष में विलीन होने लगा तो देवसभा के सदस्यों ने अहंकार छोड़ कर उसी की वरिष्ठता स्वीकार की और प्रणपात के अनन्तर उस महायज्ञ-आत्मबल की आराधना उपासना करने लगे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118