चींटियों की अनुकरणीय समाज व्यवस्था

November 1973

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मनुष्य में बुद्धिमतां तो है पर उसका विकास तभी होता है जब दूसरों की सहायता मिले। पढ़ायें प्रशिक्षित किये बिना, कोई मनुष्य या बालक क्रिया कुशल नहीं हो सकता। यदि उचित सहयोग संपर्क न मिले तो जन्मजात बुद्धिमतां रहने पर भी मनुष्य अविकसित परिस्थितियों में पड़ा रह सकता है अथवा कुसंग में कुमार्गगामी हो सकता है।

इस दृष्टि से चींटियाँ मनुष्य से कही आगे है, उन्हें प्रकृति ने ऐसी अद्भुत सूझबूझ दी है कि बिना किसी शिक्षा दीक्षा के वे इतना सुंदर सुव्यवस्थित जीवनयापन करती है कि उनकी सुरुचि अनुशासनशीलता और बुद्धिमतां पर आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है।

मनुष्य के यदि चींटी बन सकना सम्भव रहा होता तो वह उनके वर्ग में सम्मिलित होकर देखता कि चींटियों की सभ्यता और संस्कृति मनुष्य समाज की अपेक्षा कितनी अधिक प्रगतिशील और बढ़ी-चढ़ी है।

चींटियों की बाहर से छोटी सी बाँबी को देखकर यह अनुमान लगाना कठिन है कि इसके भीतर अत्यन्त सुव्यवस्थित रूप से लम्बी-लम्बी सड़कें , गलियाँ, दरवाजे कोठे- कमरे और अन्तःपुर बसे हुए है। किसी कुशल शिल्पी के तत्त्वावधान में यह सब बनाया गया प्रतीत होता है। जरा से बिलों के भीतर उतर कर यह देखा जा सकता है कि उनके भीतर कितनी सघन बस्तियाँ बसी हुई है और कितनी बड़ी आबादी का निवास है। प्रायः एक टीले के नीचे बने हुये चींटियों के उप नगर की निवासी चींटियाँ इतनी होती है जितनी दिल्ली बम्बई की।

अपने गाँव नगर के निवासियों को हर चींटी भली प्रकार पहचानती है। एक भी बाहर वाली घुस आवे और उसे तुरन्त पहचान लिया जावेगा और मार कूटकर उसे वापिस खदेड़ दिया जाएगा।

एक भी चींटी कभी बेकार नहीं बैठती। उन्हें आराम हराम है। वे समूह बना कर काम करती है और हर अपने क्रिया-कलाप में कीर्तिमान स्थापित करने के लिए पूरे उत्साह धैर्य और संतोष के साथ लगी रहती है। मानो कर्म की सुव्यवस्था ही एक मात्र उनकी महत्त्वाकाँक्षा हो। गौर से देखे तो प्रतीत होगा कि उनका एक दल एक रास्ते जा रहा है तो दूसरा दल उसी मार्ग से वापस लौट रहा है। लौटने वालियों के मुँह में अनाज, कीड़ा, घास-फूस कुछ न कुछ जरूर होगा। यह संग्रह अपने लिए नहीं पूरे परिवार के लिये करती है। खाद्य संग्रह, गृह निर्माण प्रायः इस भाग दौड़ का उद्देश्य होता है। घायलों और बीमारों की सेवा सहायता से लेकर अण्डे बच्चों के परिपोषण तक के लिए भी उनकी गतिविधियाँ चलती है। बिल में पानी भर जाने या कोई संकट उपस्थित होने पर वे नया स्थान ढूँढ़ने , बनाने और स्थानान्तरण के साथ-साथ संग्रहित माल असबाब ढोने की आपत्ति कालीन व्यवस्था भी बनाती हैं। कही चीनी का बड़ा भण्डार दीख पड़े और कोई स्वादिष्ट कीड़ा हाथ लग जाये तो फिर दैनिक कार्यों को बदल कर उस लाभ से लाभान्वित होने का प्रयत्न करती है। वे उसे तत्काल खाने नहीं बैठ जाती वरन् उसमें से क्वचित् जलपान करके बिल में जमा करने के लिए जुट जाती है और सुविधानुसार उसे स्वाद और सन्तोष पूर्वक खाती है।

चींटियों के तीन वर्ग है 1. रानियाँ 2. राजा लोग 3. बाँदियाँ। रानी एक ढेर में चार पाँच से अधिक नहीं रहती। वे औसत चींटी से मोटी तगड़ी होती है, उनका कार्य केवल बच्चा उत्पन्न करना होता है। अस्तु बाहर निकलने घूमने की भी उन्हें फुरसत नहीं होती। नर्सें, दाइयाँ, रसोइया, चौकीदार उसके पास मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी पर तैनात रहते हैं।

अण्डों को सेने का काम बाँदियाँ करती हैं। प्रसव होते ही वे उन्हें सुरक्षित स्थान पर ले जाती है और जब तक बच्चे बड़े न हो जाय तब तक बाँदियाँ उनका अपने बच्चों जैसा ही लालन-पालन करती है। अण्डे में से एक नन्ही सी ‘इली’ निकलती है यह जमीन पर पड़ी कुनमुनाती रहती है। भूखी होने पर मुँह खोलती है तो मौसियाँ तुरन्त उनके मुँह से कोमल और सुपाच्य ग्रास रख देती है। उपयुक्त समय पर वे इन बच्चों को सहारा देकर घुमाने भी ले जाती है।

बाँदियाँ न विवाह करती है न बच्चे देने के झंझट में पड़ती है। उन्हें नियत कर्त्तृत्व पालन में गृहस्थी बसाने से अधिक संतोष रहता है।

राजाओं के पंख उगते हैं वे बिलों से निकल कर उड़ान भरते हैं। जैसे ही वे उड़ें पक्षी उन पर झपट पड़ते हैं और बात ही बात में उदरस्थ कर जाते हैं। कुछ के पंख टूट जाते हैं और भारी होने के कारण घर लौटने में असमर्थ रह कर प्राण गँवाते हैं। जो लौट आते हैं वे अपने पर नोंच कर फेंक देते हैं और अन्य साथियों की तरह रहने में ही कल्याण मानते हैं। व्यक्तिगत महत्त्वाकाँक्षा कितनी महँगी पड़ती है उसे वे अनुभव द्वारा भली प्रकार सीख लेते हैं और फिर अकेले आकाश छूने की सनक के सदा के लिए त्याग देते हैं।

चींटियाँ बस एक ही स्थान पर नहीं रहती। जब उनका नगर बस जाता है उसमें निवास, गोदाम, चिकित्सालय, सड़कें, गलियाँ आदि सभी कुछ बन जाता है और खाने के लिए पर्याप्त खाद्य भण्डार हो जाता है तो नर चींटियाँ यह अनुभव करती है कि अब दल में निठल्लापन आ जायेगा और आरामतलबी से श्रमशीलता की आदत घट जायेगी। इस संकट को टालने के लिए राजा नये नगर बसाने के लिए निकल पड़ते हैं और जब उपयुक्त भूमि मिल जाती है तो रानियों को साथ लेकर नई जगह में चले जाते हैं। बाँदियाँ वफादार साथी की तरह उनके पीछे चल पड़ती है और नये सिरे से नया नगर बसाने और आवश्यक उपकरण जुटाने में लग जाती है, इस प्रकार अमीरी और आरामतलबी से उत्पन्न होने वाले संकटों से बचकर अपनी कर्म निष्ठा बनाये रहती है। पुराना नगर छोड़ने और नया देश बसाने का उनका यह क्रम निरन्तर चलता ही रहता है, वे एक जगह बहुत समय नहीं रहती।

अमेरिका में पाई जाने वाली अटा चींटी खेती−बाड़ी भी करती है, वह अपनी रुचि के बीज जमा करके पास की नम जगह में गाड़ती है और उगने वाली फसल की निराई गुड़ाई करती रहती है। जब फसल पकती है तो उसका एक एक दाना वे अपने बिलों में जमा कर लेती है। ये चींटियाँ पास पड़ोस के किसानों की फसल पर भी चढ़कर पके हुये बीज तोड़ती और ढोकर घर में जमा करने में भी प्रवीण होती है।

चींटी ही नहीं दीमक भी अपने आकार प्रकार को देखते हुए इतनी कर्मशील और दूरदर्शी है कि उसके क्रिया-कलाप से मनुष्य कुछ सीख समझ सकता है और अपनी वैयक्तिक एवं सामाजिक स्थिति में उपयोगी सुधार कर सकता है।

दीमकों में अधिकाँश अन्धी होती है तो भी उनकी स्मरणशक्ति लगभग आँखों जैसी ही सहायता करती है और वे बिना भटके अपना जीवन क्रम चलाती रहती है। आँखों वाली दीमक उनकी कठिनाई को समझती है और स्वयं हटकर उनके लिये रास्ता देती है और समय पर उन्हें अतिरिक्त सहायता पहुँचाती है।

दीमकों के बिलों के ऊपर जो मिट्टी का आच्छादन होता है वह इतनी मजबूती और कुशलता से बना होता है कि वर्षा का पानी उसमें प्रवेश करके उनमें निवास करने वाली दीमकों की कोई क्षति नहीं कर पाता। छोटे मोटे नाले झरनों के ऊपर से वे ऐसे मजबूत पुल बनाती है कि वर्षों तक उस रास्ते उनका आना जाना इधर उधर हो सके। इस प्रकार के जल अवरोध को दूर कर सकने में भी सफल होती है। छोटी सी दीमक की गतिविधियाँ लम्बे चौड़े आकार वाले मनुष्य के लिए अनुकरणीय है।


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