आकाश की तरह हमारी चेतना की उच्च परतें

November 1973

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भूतकाल में जो कुछ जाना या माना गया था उसे सच ही माना जाय यह आवश्यक नहीं। ज्ञान अनन्त है। सत्य असीम है। उसका एक अंश ही मनुष्य की सीमित बुद्धि के लिए जान सकना संभव है। प्रगति की क्रमबद्ध यात्रा पर चलते हुए हम सत्य के अधिक निकट पहुँचते जाते हैं। इसलिए हमें सत्य की हर नई किरण का स्वागत करने के लिए तैयार रहना चाहिए। पूर्वाग्रहों पर अड़कर बैठ जाना और जो कहा जाता रहा है उसी को सच मानते रहना बुद्धिमतां का चिन्ह नहीं है।

कभी धरती को केन्द्र और अन्य ग्रह तारकों को उसकी परिक्रमा करता हुआ माना जाता था। आकाश को चादर की तरह चपटा माना जाता था पर अब वैसी मान्यता नहीं रही चन्द्रमा की गणना अब नव- ग्रहों में से हटा कर पृथ्वी के एक उपग्रह में कर दी गई है। सौर मंडल में तीन ग्रह और नये सम्मिलित हो गये है।

आकाश के बारे में अतीतकाल के लोग विभिन्न मान्यतायें रखते रहे है यूनानी लोगों की मान्यता थी कि बादलों में निवास करने वाले देवताओं का सारे आकाश पर राज्य है वह लोहे की तरह कड़ा है और धरती के कन्धों पर टिका है।

मैक्सिको वासी 22 आकाश मानते थे धरती से ऊपर 13 आकाश स्वर्ग है जिनमें से सिर्फ पहला ही आँखों से दीखता है। धरती के नीचे 9 आकाश है जो नरक है।

दक्षिण अमेरिका के रेड इण्डियन सात आकाश मानते हैं जिनमें से पाँच पृथ्वी के ऊपर दो नीचे है। वे इनके रंग भी भिन्न बताते हैं क्रमशः नीला, हरा, पीला, लाल, सुनहरा, बैंगनी और सफेद। इन सब के अधिपति अलग आकृति-प्रकृति के देवता लोग है।

आकाश यों तो एक और अनन्त है ऊँचाई के अनुपात में उसकी स्थिति में जो अन्तर पड़ता जाता है उसे ध्यान में रखते हुए गणनाकर्ताओं ने उसका भी परतों के हिसाब से विभाजन कर दिया है।

पृथ्वी के धरातल से लगभग 1000 मील ऊँचाई तक भारी हलकी हवा का अस्तित्व है। इस ऊँचाई को चार भागो में विभक्त किया गया है-

(1) ट्रोपोस्फीयर (क्षोभमंडल ) यह समुद्र सतह से 35 हजार फुट तक है। समस्त वायु का लगभग तीन चौथाई वजन इसी क्षेत्र में है। हमारे जीवनोपयोगी तत्व का अधिकाँश भाग इसी क्षेत्र में भरा पड़ा है। आसानी से साँस ले सकना 20 हजार फुट तक ही संभव है। इससे ऊपर उठना हो तो आक्सीजन का यास्कि चेहरे पर बाँध कर ही उड़ सकते हैं। इस ऊँचाई पर बर्फानी हवाएँ चलती है जिनके कारण मुँह और कान के अवयव तक काँपने लगते हैं और बोलना ही नहीं सुनना भी कठिन हो जाता है। बोलने, सुनने की कठिनाई तो इससे ऊपर भी बने रहेगी। ऊपर क्रमशः हवा पतली हो जाती है- जिसमें मुँह के लिए ध्वनि कम्पनों को छोड़ सकना कठिन है। बोलने का प्रयत्न करने पर सिर्फ गो गो सरीखी कुछ ऐसी आवाज निकलेगी जैसी कोई जीव जन्तु बोलते हैं।

(2) स्ट्रोटोस्फीयर (समतापमंडल) क्षोभमंडल की 35 हजार फुट ऊँचाई पार करने के उपरान्त स्ट्रोटोस्फीयर का क्षेत्र आरम्भ होता है जो धरती से 65 मील की ऊँचाई तक चला जाता है। 45 हजार फुट से ऊपर खुला शरीर नहीं जा सकता। इसके लिये एयरकन्डीशन जेट या बी- 36 किस्म का वायुयान चाहिए। यदि वहाँ कोई प्राणी खुला घूमे तो हवा का दबाव कम होने से उसकी नसें फट जायेगी। मस्तिष्क विक्षिप्त हो जाएगा। इस परिधि में ऐसे आवरण जोड़ना आवश्यक है जिनके कारण वायु का उतना ही दबाव बना रहे जितने का शरीर अभ्यस्त है। समुद्र की गहरी सतह में रहने वाले जल-जन्तुओं को यदि ऊपर ले आया जाय तो जल का दबाव कम हो जाने से वे गुब्बारे की तरह फट जायेंगे। उपरोक्त ऊँचाई पर कोई प्राणी यदि बिना आवरण होगा तो स्वभावतः वह भी गुब्बारे की तरह फट कर आकाश में छितरा जाएगा।

16 हजार मील की ऊँचाई पर ब्रह्माण्ड किरणों की वर्षा शुरू हो जाती है। वे इतनी घातक होती है कि देखते -देखते मृत्यु उपस्थित कर दे। अच्छाई यही है कि धरती तक पहुँच ही नहीं पाती ऊपर आकाश में अवरुद्ध होती है इससे ऊपर का आकाश ही इन्हें रोक लेता है इस परत पर तो छुट-पुट बूंदा–बांदी ही कर पाती है।

(3) ओजोनोफीयर (ओजोन मंडल) यह पृथ्वी से 20-25 मील ऊँचाई पर है। नीचे वाले आकाश की शून्य से 67 डिग्री नीचे की ठण्ड अचानक 170 डिग्री फारेन हीट गर्मी में परिवर्तित हो जाती है। यहाँ गाढ़ी आक्सीजन है। जो सूर्य द्वारा फेंकी गई ब्रह्माण्ड किरणों और अल्ट्रावायलेट किरणों को रोक कर अपने में आत्मसात् कर लेती है। इसी किरणें सीखने की किया के कारण आक्सीजन इतनी गरम हो जाती है। चालीस मील ऊपर जाने पर कभी रात नहीं होती है।

(4) एक्साफीयर- यह अन्तिम आकाश अत्यन्त भयावह है। यहाँ घोर अन्धकार छाया रहता है। रंग बिरंगी रोशनियों के तूफान उठते हैं। पानी खोलने की गर्मी 212 डिग्री फारेनहाइट होती है पर यहाँ तो वह अंक 4000 डिग्री जा पहुँचता है। यह गर्मी कल्पनाशक्ति से बाहर की है। पृथ्वी के अयन मंडल की ऊपरी परत से सूर्य की ब्रह्माण्ड किरणों और अल्ट्रावायलेट किरणों के साथ घोर संघर्ष होता है। वे नीचे उतारना चाहती है। वायु की तरह उन्हें रोकती है।

इस परत की वायु इतनी पतली होती है कि तोप छोड़ने की आवाज भी निकटवर्ती को सुनाई न पड़ेगी। विदित है कि अनन्त आकाश में किन्हीं ग्रह नक्षत्रों के टूटे हुए खण्ड उल्काओं के रूप में उड़ते रहते हैं वे कभी-कभी घूमते घामते पृथ्वी के अयन मंडल में आ धंसते हैं इनकी चाल प्रायः 170000 मील प्रति घण्टा होती है। उनमें कोई तो मटर के दाने जितनी ही होती है कोई बहुत बड़ी। इनमें से जो बड़ी होती है उनका जलना तारे टूटने के रूप में हमें रात को दिखाई पड़ता है। कुछ उल्कायें बहुत बड़ी होती है और जलते भुनते अपना कुछ अंश धरती तक भी पहुँचा देती है वह टुकड़ा भी कई बार धरती से टकरा कर गहरा गड्ढा बना देता है।

स्पष्ट है कि आकाश के ऊँचे स्तर पर हवा हलकी और पतली पड़ती जाती है साथ ही सूर्य एवं अन्य ग्रहों का वह प्रभाव अधिक रूप से परिलक्षित होता है जो भूतल पर बहुत कम मात्रा में आ पाता है उसे तो मध्यवर्ती आच्छादन ही बीच में रोक लेते हैं।

मानवीय सत्ता भी अनन्त आकाश की तरह ही सुविस्तृत है। उसके ऊँचे परत क्रमशः धूल, धुँध और सघन भारीपन में प्रयुक्त होते जाते हैं। और अन्ततः वह स्तर आ जाता है जिसमें ब्रह्म के प्रकाश और प्रभाव को अधिक स्पष्टता पूर्वक समझा जा सके। नीचे स्तर पर रह रही अन्तः चेतना भारीपन और ओछेपन से ही लदी रहती है किन्तु जब भावनाओं की उच्च भूमिका में उठा जाता है तो क्रमशः हम अधिक उज्ज्वल एवं वशिष्ठ अनुभूतियों का रसास्वादन करते हैं। ऊँचा उठने वाले ही वह देखते और पाते हैं निम्न भूमिका में पड़े हुए लोगों के लिये वह आश्चर्यजनक ही है पर उपलब्ध कर सकना संभव नहीं।


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