मानवी अन्तःकरण हूँ (kavita)

November 1973

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क्यों नहीं मुझको रुलाये? विश्व मानव की व्यथायें ॥ मैं श्रद्धा का आभरणं हूँ। मानवी अन्तः करण हूँ ॥ जब किसी की आँख रोती, सिसक कर आँचल भिगोती। अश्रु वे मेरे लिए है, सीप के अनमोल मोती ॥

बाँट कर ममता- सरसता-तृप्त हो -वह आचरण हूँ। मानवी अन्तः करण हूँ ॥ बस, कलेवर ही नया है, सुत पिता पर ही गया है। मोम - से उर से निसृत, होती तथागत- सी दया है॥

तम निराशा का जहाँ पर मैं वही भास्कर किरण हूँ। मानवी अन्तः करण हूँ॥ जब धरा पर द्वेष पलता- क्लेश में इनसान जलता। लिप्त हो जाता उसी में- पथ नहीं अपना बदलता॥

मार्ग में जो गढ़ता नया तब- मैं वही पहला चरण हूँ। मानवी अन्तः करण हूँ॥ गिर रही है सभ्यताएँ- टूटती शुभ मान्यतायें, मिट चली संस्कृति- मनुज- क्या बन गया- कैसे बताये॥

दे सके जीवन किसी को-आज मैं ऐसा मरण हूँ। मानवी अन्तः करण हूँ॥ स्वाति कण बन कर झड़ुँगा, प्यार जन मन में भरुँगा। जी सके मानव जहाँ- वह - युग नया निर्मित करूंगा॥

काल का सहचर-सृजन-संकल्प के व्रत का वरण हूँ। मानवी अन्तः करण हूँ ॥

*समाप्त*


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