हमारी प्रगति का अन्त महामरण में होगा

November 1973

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कोई जमाना था जब युद्ध में भी नीति अनीति का ध्यान रखा जाता था। बिना हथियार वाले पर भागते पर- स्त्री, बच्चों , बूढ़ों ओर रोगियों पर हमला नहीं किया जाता था। खेतों, व्यापार और वस्तुओं को नुकसान नहीं पहुँचाया जाता था। सतीत्व को छेड़ा नहीं जाता था। रात्रि में युद्ध नहीं किया जाता था। चेतावनी देने- हथियार थामने का अवसर देने पर जो लड़ने के लिए सामने आये उसी से युद्ध नीति के आधार पर लड़ाई होती थी। लड़ने के इच्छुक योद्धा आपस में लड़ते थे। जो लड़ने के अयोग्य है उस पर आक्रमण करना तो कायरता पूर्ण हत्या ही गिनी जाती थी। युद्ध -क्षेत्र में योद्धा उतरते थे हत्यारे नहीं।

कत्लेआम का रणनीति में समावेश होना बर्बरता के युग में प्रवेश करना है। यो नादिरशाह, औरंगजेब, चंगेजखान द्वारा इस नीति का आरम्भ कर दिया गया था। किसी देश पर हमला करके वहाँ के निर्दोष नागरिकों को गाजर-मूली की तरह कत्ल करना कृषि, सम्पत्ति और कल-कारखाने नष्ट करना, लूट खसोट में जो भी मिले उसे झपटना , युवा स्त्रियो की वासना पूर्ति के लिए और तरुणों को पशुओं की तरह गुलाम बनाने के लिए पकड़ना एक सामान्य बात हो गई। बर्बरता का कोई पक्ष ऐसा नहीं रहा, जिसे युद्ध कौशल में सम्मिलित न कर लिया गया हो। दोषी निर्दोष में वध्यः अवध्यः में कोई अन्तर होता है, इस तथ्य को भुला कर जो लड़ाइयाँ लड़ी जाती है उन्हें बर्बर हत्याकांड के अतिरिक्त और क्या कहा जायेगा।

यो पिछले दिनों रूस और अमेरिका के बीच एक रक्षा संधि हुई है जिसमें दोनों देशों में अधिक लम्बे दूर मारक और घातक विस्फोटकों की संख्या घटाने पर सहमति प्रकट की है पर वह एक चाल मात्र है। स्थान घिरने और गिनती कम होने पर भर की सुविधा मिलेगी उससे संहारक शक्ति में कोई कटौती नहीं आने वाली है। अमेरिका के डिफैन्स सेक्रेटरी मेल्विन लायर्ड ने कहा- समझौता व्यर्थ है हमें जिन्दा रहना है तो पनडुब्बियों से फेंकी जाने वाली दूर मारक मिसाइलें बनानी ही होगी, नहीं तो रूस हमें खा जायेगा। अखबारों ने समझौते का मजाक उड़ाते हुए कहा इससे हमें आणविक सर्वोच्चता की नीति को आणविक न आत्मनिर्भरता कहने लगेंगे। अब अणु शस्त्रों की दौड़ क्वान्टिटी में न होकर क्वालिटी में होगी।

विश्व के हर नागरिक स्त्री-पुरुष-बच्चे के लिए 20 टन बारूद तैयार है। बच्चा पैदा होने पर उसकी आवाज जितनी देर में उसकी माँ के कानों में पहुँचती है उतनी देर में उस जैसे बीस की जीवन सत्ताओं का अन्त कर देने वाली अणुशक्ति आज के कारखानों में उत्पन्न हो जाती है। इसका विस्तृत विवरण ब्रिटिश कास्टिंग कारपोरेशन द्वारा बनाई गई वृत फिल्म दिडैथ गेय में दिखाया गया है।

सन 1999 में विश्व के 120 देशों की एक सर्वेक्षण समिति ने शस्त्रों पर संसार भर में होने वाले खर्चे का लेखा जोखा एकत्रित किया था तदनुसार संसार भर में जमा हुआ शस्त्रों का मूल्य सन 1967 तक 136500 करोड़ रुपयों पहुँच चुका था। इसके बाद अब तक जो उत्पादन हुआ तो उसे कम से कम दूना तो कहा ही जा सकता है।

सन 67 के आँकड़े बताते है- संसार के हर मनुष्य पीछे मारने वाली सामग्री 420 रुपया लागत की जमा हो चुकी है। संसार भर में 142 देश है उनमें से 28 देश ऐसे है जिनकी प्रति व्यक्ति पीछे औसत आय 420 से कम है। इनमें एक भारत भी शामिल है। अनुमान है कि यह व्यय इसी शताब्दी में 300000 करोड़ से ऊपर निकल जायेगा। यह राशि इतनी बड़ी होगी कि यदि सौ रुपये के नोटों की माला बनाई जाय तो वह धरती से चन्द्रमा तक की दूरी की साड़े सात वार परिवार कमा कर लेगी।

दरिद्रता मिटाने के लिए विश्व भर में जितना धन खर्च किया जाता है उसकी तुलना में शस्त्रों पर 20 गुना अधिक खर्च होता है। स्वास्थ्य पर खर्च होने वाली राशि से यह तीन गुना अधिक है। इस धन से दो करोड़ लोगों के निवास के लिए बढ़िया मकान बना कर दिये जा सकते हैं।

युद्ध में आदमी को मारने की लागत दिन-दिन महँगी होती चली जा रही है। जूलियस सीजर के जमाने में एक सैनिक मारने में सिर्फ 5 खर्च आते थे। नेपोलियन के जमाने में यह दो हजार तक हो गई थी। प्रथम युद्ध में अमेरिका ने एक व्यक्ति मारने पर डेढ़ लाख रुपया खर्च किया। दूसरे युद्ध में यह लागत दस गुनी बढ़ गई। अभी वियतनाम युद्ध में हर गोरिल्ला को मारने में 13 लाख रुपया खर्च का औसत आया है।

अमेरिका का प्रमुख उद्योग युद्ध सामग्री का उत्पादन है। द्वितीय युद्ध के बाद उसने 20 लाख रायफलों, 1 लाख मशीनगनें, 1 लाख लड़ाकू जहाज 20 हजार टैंक, 30 हजार प्रक्षेपणास्त्र 2500 पनडुब्बियों दूसरे देशों को बेची है। यह संख्या इस बीच दुगुनी हो गई हो तो कुछ भी अचम्भे की बात नहीं है। सन 71 में अमेरिका का युद्ध बजट 77.5 अरब रुपया था अब वह जल्दी ही 100 अरब वार्षिक सीमा तोड़ कर आगे बढ़ जायेगा।

तीर, तलवार, बन्दूक और तोपों का जमाना अब चला गया, उन साधनों से थोड़ी-थोड़ी संख्या में मनुष्य मरते थे और चलाने वाले के पराक्रम एवं कौशल की परीक्षा होती थी। अब तो एक दुर्बल बीमार के लिए भी यह संभव हो गया है कि वह समस्त सृष्टि का नामोनिशान मिटाकर रख दे। विशाल क्षेत्र को प्राण रहित बना दे। मिसाइल-एन्टीमिसाइल -बनते चले जा रहे हैं। इन पर लाद कर अणुबम संसार के एक छोर से दूसरे छोर तक भेजा जा सकता है और प्रयोगशाला की कोठरी में बैठे हुए बटन दबाने मात्र से किसी भी क्षेत्र का सर्वनाश किया जा सकता है।

अमेरिका में अणु प्रहार कर सकने की सामर्थ्य वाले केन्द्रों की संख्या अब से कुछ वर्ष पूर्व 4300 थी। सन् 75 तक वह 11000 हो जायेगी। रूस में ऐसे केन्द्र तो 2000 ही है पर उनमें गुण परक श्रेष्ठता बढ़ाने के प्रयत्न तेजी से चल रहे हैं।

पिछले दिनों जितने अणु अस्त्र बने चुके थे उनसे इस सुन्दर पृथ्वी को 14 बार ध्वस्त किया जा सकता था। पर तब से अब तक तो वह क्षमता लगातार बढ़ती ही चली आ रही है। और अनुमान लगाया जाता है कि इन अणुओं से अपनी जैसी 50 धरती एक साथ चूर्ण विचूर्ण करके आकाश में धूलि की तरह उड़ाई जा सकती है। संसार में लगभग 4 अरब मनुष्य रहते हैं इनमें से प्रत्येक को मारने के लिये 10-10 टन बारूद का ढेर जमा करके रख लिया गया है।

बारूद के अतिरिक्त जितने भी जहरीले रसायन भी इतने बने है कि हवा या पानी में उन्हें मिला देने से भी प्राणि जगत का अस्तित्व धरती पर से मिटा देने का उद्देश्य सहज ही पूरा हो सकता है। अकेले ‘आटपुलिन्स’ रसायन का संचित भण्डार ही इस प्रयोजन को आसानी से पूरा कर सकता है।

इस बारूद के ढेर पर कभी भी छोटी सी गरमा-गरमी से चिंगारी लग सकती है। क्यूबा संकट के समय, तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ने दाँत पीसते हुए रूस से कहा था- “ क्यूबा से निकल जाओ वरना ............. रूस ने जवाब दिया था कि- यह अन्तिम अवसर होगा जब तुम अमेरिकी हमारे साथ ऐसा कर सकोगे।

लंदन की एक वैचारिक विचार गोष्ठी में अणु विशेषज्ञ प्रो. बैरी कामनर ने कहा था - टेक्नोलॉजी द्वारा प्रकृति के साथ असामान्य छेड़-छाड़ करने का वर्तमान क्रम यदि इसी तरह जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब यह धरती मनुष्यों के रहने योग्य ही नहीं रहेगी। प्रकृति आज हमारी रक्षक है पर संतुलन बिगड़ जाने पर वह हमारी भक्षक बन जाएगी। प्रकृति की खोज करना और उसके रहस्यों से लाभान्वित होना तो ठीक है पर इससे पहले हमें यह निश्चित करना चाहिए कि संतुलन बिगाड़ने की सीमा तक छेड़खानी नहीं की जायेगी। अविवेक पूर्ण ढंग से हवा पानी और मिट्टी को बिगाड़ते चले जाना, इस धरती पर रहने वाले समस्त प्राणियों का जीवन संकट में डालना है।

17 जनवरी 1965 की बात है। एक अमरीकी बमवर्षक स्पेन के आकाश में 32 हजार ऊँचाई पर उड़ रहा था। उस पर चार हाइड्रोजन बम लदे थे। दुर्भाग्यवश वह सामने से आते एक दूसरे वायुयान से टकरा गया। फलतः दोनों विमान नष्ट हो गये और उनके सात कर्मचारी मारे गये। जहाजों का मलबा एक छोटे से गाँव पालोमरेस के इर्द-गिर्द छितरा गया। तीन हाइड्रोजन बम भी वही गिरे। उनमें से एक तो साबित रहा पर दो में दरारें पड़ गई। दूसरे बम से प्लेटोनियम की रेडियो धर्मी धूल निकली और आस-पास के क्षेत्र पर छा गई। तीसरे की दरार में से प्लेटोनियम की जहरीली गैस निकल कर हवा में फैलने लगी।

इस दुर्घटना के समाचार से सारे योरोप और अमेरिका में हलचल मच गई। अमेरिका के अणुशक्ति आयोग के वैज्ञानिक और इंजीनियर स्पेन दौड़े उन्होंने रेडियो धर्मी प्रभाव से प्रभावित 385 एकड़ भूमि की सारी जमीन को गहराई तक खोदा और 16000 टन भूमि को वहाँ से हटाया। चौथा बम कहाँ गया? लगातार खोज करने के बाद 80 दिन उपरान्त पता चला कि वह स्पेन तट से पाँच मील दूर समुद्र के अन्दर 2500 फुट गहराई पर डूबा पड़ा है। तब कही लोगों के जान में जान आई।

चौथा हाइड्रोजन बम 1500 पौण्ड भारी बारह फीट लम्बा था। उसमें हिरोशिमा पर गिराये गये बम से 5000 गुनी अधिक शक्ति थी। इसे बाहर निकालने में 3600 टैक्नीशियन और 18 जहाज लगे। समुद्र तल में फँसे हुए इस बम को निकलना इतना जटिल था कि अमेरिका का कुशल तम टैक्नीशियनों को मुहिम सभा लेनी पड़ी। इस बीच दो सौ जहाज दिन-रात आकाश का पहरा देते रहे। भय था कि वह बम कही रूसियों के हाथ न लग जाय। फटने पर दूर-दूर तक समुद्र रेडियो धर्मी हो सकता था और उधर से गुजरना असंभव बन सकता था।

यह अन्तर्राष्ट्रीय ऐसी घटना थी जिसे छिपाया नहीं जा सकता है। ऐसी ढेरों घटनाएँ है जिन्हें छिपा लिया गया है। फिर भी उनमें से कुछ ऐसी रही है जो किसी प्रकार प्रकाश में आ गई। एक बार दक्षिण कैरोलिना राज्य के आकाश पर उड़ते हुए हाइड्रोजन बम वाले जहाज में कुछ खराबी आई फलतः एक बम निकल कर जमीन पर गिरा और फूट गया। अधिकृत रूप से यह स्वीकार किया गया कि जार्जिया और उत्तर कैरोलिना दो बिना फटे बम कही गिर कर खो गये है, अनेक विमानों ने दुर्घटनाग्रस्त होने पर अपनी अणु सामग्री समुद्रों में गिराई है इसका उल्लेख सरकारी गुप्त कागजों में मौजूद है। अनेकों घटनाएँ ऐसी है जिनका उल्लेख नहीं किया गया। जैसे एक अणु बम न्यू मैक्सिको राज्य के क्षेत्र में गिर पड़ा था उसकी चर्चा अधिकृत सूची में नहीं है।

केवल परमाणु परीक्षणों की ही बात पर विचार करे तो उसके खतरे भी कम नहीं आँके जा सकते हैं। अब तक जितने परीक्षण हो चुके है उनका दुष्परिणाम भी असंख्य लोगों को कितनी ही पीढ़ियों तक भुगतना पड़ेगा। यदि अणु युद्ध नहीं भी हो किन्तु परीक्षणों का वर्तमान सिलसिला इसी क्रम से चलता रहे तो उससे सर्वनाश की विभीषिका बढ़ती ही चली जायेगी। परीक्षणों से निकलने वाले रेडियो सक्रिय तत्व मारक विष ही होते हैं। वे हवा, पानी और वनस्पतियों के सहारे शरीर में प्रवेश करते हैं और रक्तचाप, कैन्सर जैसे जटिल रोग उत्पन्न करते हैं। अणु विशेषज्ञ डा. रैल्कलाफ ने चेतावनी दी है कि मनुष्य में रेडियो सक्रियता की जितनी शक्ति है उसका उल्लंघन परीक्षण की वर्तमान शृंखला करती चली जा रही है। यह कदम न रुके तो हम सब बिना युद्ध के इस परीक्षण युद्ध के विनाश गर्त में गिर कर ही समाप्त हो जायेंगे। अनुमान है कि प्रत्येक अणु परीक्षण देर सवेर में 50 हजार मनुष्यों की अकाल मृत्यु का कारण बनता है। यो वह फैलती तो हजारों तक जायेगी और न्यूनाधिक मात्रा में उस क्षेत्र के निवासियों को भयानक रुग्णता में ग्रसित करेगी और वह संकट पीढ़ी-दर पीढ़ी चलेगा।

तृतीय महायुद्ध में परमाणु शक्ति का उपयोग होगा। इस दशा में दोनों पक्षों में से एक भी नहीं बचेगा। पूर्व व्यवस्था यह बन चुकी है कि आक्रमण होने के कुछ सेकेंडों के भीतर ही प्रत्याक्रमण करके प्रतिपक्षी का नाम निशान मिटा दिया जाय। तैयारियों को देखकर लगता है कि ऐसा महाविनाशक युद्ध कभी न कभी होकर रहेगा। संभव है इसके उपरान्त हजारों लाखों वर्ष बाद इस पृथ्वी को हरी-भरी होने का अवसर आये।तब उस पीढ़ी के लोग आत्मघाती लोगों की प्राचीन सभ्यता का पता लगाने के लिए उत्सुक होगे। उस उत्सुकता को दूर करने के लिए अमेरिका में एक ऐसा कैप्सूल जमीन के नीचे दबा दिया गया है जिसके द्वारा अपनी प्रगतिशील पीढ़ी की प्रगति का कुछ आभास उन लोगों को भी मिल सके।

न्यूयार्क विश्व मेले के अवसर पर धरती के नीचे 800 पौण्ड भारी एक टाइम कैप्सूल दफनाया गया है, इसमें इस समय मानवी सभ्यता एवं प्रगति को प्रायः सभी जानकारियाँ सूत्र रूप में संग्रह की गई है। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका जैसी पुस्तकें तथा इस युग की परिस्थिति का परिचय देने वाले चित्र माइक्रो फिल्म बना कर संक्षिप्त किये गये है। कैप्सूल को 50 फुट गहरे गड्ढे में ऐसी व्यवस्था बना कर गाढ़ा गया है जिससे वह आगामी 5 हजार वर्ष तक सुरक्षित रह सके। यह मंजूषा 711 फीट लम्बी नली के रूप में है। उसकी अन्तः रचना क्रोमार्क कैप्सूल गिलास ऊन की गद्दी, जब अवरोधक अस्तर, पाइरेक्स शीशे का भीतरी, खोल, क्रोमार्क आई वोल्ट के क्रमबद्ध शृंखला संजों कर की गई है और ध्यान रखा गया है कि भूमि के अन्दर की नमी और गर्मी उसे प्रभावित न करने पाये। ज्ञान विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के विश्व विख्यात 53 विद्वानों ने इस में भरी जाने वाली सामग्री की रूपरेखा तैयार की है।

इसी बड़े कैप्सूल का एक छोटा परिशिष्ट भी है जो 300 पौण्ड भारी तथा 811 इंच व्यास का है। इसका बाहरी खोल आधा इंच मोटा है। जो वस्तुएँ कम महत्व की है और बड़े कैप्सूल में नहीं समा सकी है वे इसमें रखी गई है। इन दोनों मंजूषाओं को पीटस वर्ग (पेन्सिल वेनिया) के वेस्टिंग हाउस कारपोरेशन ने तैयार किया है।

यह अच्छा ही है कि बुद्धिमान और प्रगतिशील कहा जाने वाला मानव अपनी बुद्धिमतां की कब्र भी स्वयं बना कर रखने का भी महत्वपूर्ण कार्य अपने हाथों से ही पूरा करले।


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