कीचड़ में लोटते और गंदगी चाटते उस सुअर को घिनौना जीवन जीते देखकर नारद जी को बड़ी दया आई, वे उसका उद्धार करने की बात सोचने लगे।
महर्षि उस वराह के पास पहुँचे और स्नेह पूर्वक बोले- इस घिनौनी रीति से जीना गर्हित है। चलो, तुम्हें स्वर्ग पहुँचा देते हैं।
नारदजी की बात सुनकर वराह तैयार हो गया और उनके पीछे-पीछे चलने लगा।
रास्ते में उस स्वर्ग के बारे में अधिक जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई, सो पूछ ही बैठा- ‘वहाँ खाने, लोटने और भोगने की क्या-क्या वस्तुएँ है?
नारदजी उसे स्वर्ग का मनोरम वर्णन विस्तार पूर्वक बताने लगे। कौतूहल पूर्वक वह उन्हें सुनता रहा। बात पूरी हो चुकी तो उसने दूनी जिज्ञासा पूर्वक पूछा- खाने के लिए गंदगी- लोटने को कीचड़ और सहचर्या के लिए वराह-कुल है या नहीं?
महर्षि ने असमंजस में पड़ते हुए कहा- मूर्ख! इन निकम्मी चीजों की वहाँ क्या जरूरत है? वहाँ तो देवताओं के अनुरूप वातावरण है और वैसे ही श्रेष्ठ पदार्थ सुसज्जित है। उन्हें पाकर के जीवधारी धन्य हो जाते हैं।
वराह को नारदजी के उत्तर से कोई समाधान नहीं मिला। भला मैले की टोकरी, गन्धयुक्त कीचड़ और वराह- कुल के बिना भी सुख मिल सकता है?
सुअर ने आगे चलने से इनकार कर दिया और वह वापिस लौट पड़ा। नारदजी भी यह सोचते हुए आगे बढ़ गये कि प्राणी का आन्तरिक ऊँचे उठे बिना उसे उत्तम स्थिति का लाभ मिल सकना संभव भी कैसे हो सकता है।