नेता नहीं सृजेता चाहिये

November 1973

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समय की माँग आन्दोलनकारी नेताओं की नहीं, ऐसे लोक शिक्षकों की है जो जनमानस में जागरण का आलोक उत्पन्न करने का अनवरत प्रयत्न करने में अथक रूप से लगे रहे। आन्दोलनों के आवेश विक्षोभ पैदा करते हैं। आक्रोश में तोड़-फोड़ ही हो सकती है। सृजन संभव नहीं। सृजन के लिए सघन अध्यवसाय चाहिए।

निश्चित रूप से ध्वंस सरल होता है और सृजन कठिन है। निर्माण में बुद्धि कौशल की- नैष्ठिक श्रमशीलता की और प्रयत्नपूर्वक जुटाये जा सकने वाले साधनों की आवश्यकता पड़ती है। सृजन तो सृजन के ढंग से ही होगा, उसे कुशल शिल्पी अपने कठिन श्रम और तादात्म्य मनोयोग से ही पूरा कर सकते हैं। सो भी तब तक उनका धैर्य और साहस भी लगन के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा रहे।

आन्दोलनकारी जन चर्चा का विषय बनता है- स्टेज पर उछल कूद कर वह अपनी विशिष्टता की छाप दूसरों पर छोड़ता है। जन संपर्क से कतिपय परोक्ष लाभ उठाता है। जीभ की कसरत और दिमागी सूझ-बूझ का अभ्यास होने से थोड़ा सा समय देकर सस्ती नेतागिरी कोई भी अर्जित कर सकता है। अपने को लोक हितैषी सिद्ध करने के लिए लोगों को किसी भी सामने प्रस्तुत कठिनाई का दोष किसी दूसरे पर मढ़ कर सहज ही भड़काया जा सकता है और भीड़ को संघर्ष रत किया जा सकता है। कल परसों तक का अविज्ञात व्यक्ति किसी तोड़-फोड़ के आक्रोश भड़काने में सफलता प्राप्त करके आज का धुँआधार नेता बन सकता है। इस नेता उत्पादन ने देश का जनमानस और जनजीवन अशान्त, अव्यवस्थित और दिग्भ्रान्त करके रख दिया है। नेताओं की वृद्धि अब अपराधी तत्वों की वृद्धि की तरह एक संकट भरी समस्या बन कर सामने आ रही है।

इसलिए समय की पुकार है कि नेता नहीं सृजेता चाहिये। ऐसे निस्वार्थ सेवा परायण जो यश लोलुपता से दूर रह कर जन-जागरण का- व्यक्ति निर्माण का- कार्य पूर्ण श्रद्धा और तत्परता के साथ करते रह सके। जो भाषण से नहीं वरन् अपने चरित्र से दूसरों को उसी उत्कृष्टता के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरणा दे सके। लोक शिक्षण को सघन संपर्क और ममता भरी सद्भावना की आवश्यकता पड़ती है। यह कार्य वही कर सकता है जिसने हृदय को दूसरों के साथ जोड़ देने वाली आत्मीयता उत्पन्न कर ली है। यह श्रम साध्य, समय साध्य कार्य है। उत्कर्ष की शिक्षा देने का अधिकारी वही होता है जो अपना उत्कर्ष करने का मंजिल पर काफी दूर तक आगे बढ़ सकने की- तप साधना कर सकने की- अग्नि परीक्षा उत्तीर्ण कर ले।

ध्वंस पहले ही बहुत हो चुका उसमें नेताशाही तोड़-फोड़ की एक कड़ी और जोड़ देने से कुछ बनेगा नहीं बिगड़ेगा ही। बनता तो सृजन से ही है। सृजन शक्ति का मर्म समझने वाले और उस पर अगाध विश्वास लेकर त्याग बलिदान के आदर्श प्रस्तुत करते हुए अग्रसर होने वाले मानवता के शिल्पी ही आज चाहिए। समय सृजेताओं की माँग कर रहा है।


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