आनन्दित रहने के पर्याप्त कारण हमारे सामने मौजूद हैं।

November 1973

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एन्थोनी ने प्रेम में, ब्रूट्स ने कीर्ति में, सीजर में साम्राज्य में आनन्द ढूँढ़ा पर इनमें से पहले को अपमान दूसरे को घृणा और तीसरे को कृतघ्नता ही हाथ लगी और उनमें से तीनों के सपने धूलि में मिल गये। आनन्द किस वस्तु की कीमत पर खरीदा जा सकता है इसकी नाप-तौल करते हैं कि धरती पर कही कुछ ऐसा नहीं है जिसके बदले आनन्द खरीदा जा सके, वह कभी किसी को मिला है तो उस आत्मज्ञान के बदले ही मिला है जो जीवन को उत्कृष्ट स्तर का बनाये बिना चैन ही नहीं लेने देता।

वायरन कहते थे- ‘ जो आनन्द चाहते हैं उन्हें आनन्द बाँटना चाहिए। ‘ उनका वितरण उन्हीं के पास वापिस लौट आवेगा। जीवन की इस महान उपलब्धि को तलाश करने के लिए कही बाहर जाने की जरूरत नहीं है। जो इतना कर पाते हैं उन्हें अपने अन्तर से आनन्द का ऐसा निर्झर फूट कर प्रवाहित होता हुआ दिखाई पड़ता है जो न केवल अपने को, समीपवर्तियों को- वरन् दूरवर्तियों को भी उल्लास से ओत-प्रोत कर दे।

हम मुख को कभी मलीन न करे, सदा हँसमुख रहे और अनुभव करे कि शोक-संताप का हमारे लिए इस संसार में कही जन्म ही नहीं हुआ हैं। परिस्थितियाँ सदा अपने हाथ में नहीं होती घटनाक्रम हमारी चाही रीति-नीति से हो चले यह आवश्यक नहीं। कई बार ऐसे संयोग जुट जाते हैं जिनके कारण न चाहते हुए भी विपन्न स्थिति का शिकार होना पड़ता है।

एमर्सन का यह कथन अनुभव की कसौटी पर कसने के बाद व्यक्त किया हुआ है कि आनन्द का इत्र दूसरों पर छिड़कने वाले अपने आप को भी सहज सुगन्धित बना लेते हैं। आत्मगौरव को संजोये रखने वाले आमतौर से प्रसन्नचित्त पाये जाते हैं क्योंकि वे वस्तुओं के भाव-अभाव को महत्व न देकर अपनी मानवोचित सत्प्रवृत्तियों को बढ़ी-चढ़ी सम्पदा मानते हैं और उसी संचय से अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। यदि परिस्थितियाँ अपने अनुकूल नहीं हो सकती तो हम परिस्थितियों के अनुकूल बन सकते हैं, उनके साथ ताल मेल बिठा सकते हैं और यह सब बिना आदर्शों को गिराये घटाये किया जा सकता है।

आनन्द किसी वस्तु विशेष पर निर्भर नहीं। ऐसा पाक्षिक हर्ष तो वस्तु के मिलने तक ही जीवित रहता है जैसे ही वह मिली कि तिरोहित हुआ और अधिक अच्छी चीज पाने के लिए नया लालच उत्पन्न हुआ। परिस्थितियों की अनुकूलता का आकर्षण भी तभी तक रहता है जब तक कि प्रतिकूलता के साथ-साथ उसकी तुलना की जाती है। यदि ऐसा न किया जाये तो हर सुखद परिस्थिति फीकी और नीरस होती चली जायगी। अमीरों की पीठ में फूलों की पंखुड़ियाँ भी चुभने लगती है जब कि किसान ऊबड़-खाबड़ खेत में छाया के नीचे बाँह का तकिया बनाकर गहरी नींद का आनन्द लेता है।

संसार में सौंदर्य कम नहीं और न सुरुचि का ही घाटा है सज्जनों की संस्कृतियाँ भी चारों ओर बिखरी पड़ी है। उपकारकर्ता और सहयोगियों की सूची बहुत बड़ी है जिनके आधार पर कि हम अब तक प्रगति और सुविधा के विविध साधन समय-समय पर प्राप्त करते रहे हैं। यदि उस सब पर दृष्टिपात करे तो इस संसार में इस जीवन में आनन्द की अनुभूति कराने वाले अगणित कारण हमें सहज ही मिल सकते हैं।


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