आध्यात्मिकता का स्वरूप प्रयोजन फलितार्थ

November 1973

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आध्यात्मिकता का अर्थ है उस चेतना पर विश्वास करना जो प्राणधारियों को एक के साथ दूसरे से जोड़ती है, सुख संवर्धन और दुख निवारण की स्वाभाविक आकांक्षा को अपने शरीर या परिवार तक सीमित न रख कर अधिकाधिक व्यापक विस्तृत बनाती है। अध्यात्म का सीधा अर्थ आत्मीयता के विस्तार के रूप में किया जा सकता है। प्रेम ही परमेश्वर है का सिद्धान्त यहाँ अक्षरशः लागू होता है। अन्तरात्मा की सघन पिपासा, प्रेम का अमृतपान करने की होती है। छल का व्यापार प्रेम, आश्वासन के सहारे ही चलता है। वासना के आकर्षण में प्रेम की संभावनाएँ ही उन्माद पैदा करती है। उसकी यथार्थता इतनी मार्मिक होती है प्रेम देने वाला और प्रेम पाने वाला दोनों ही धन्य हो जाते हैं।

मानवी अन्तः करण की मूल प्रवृत्ति उदार और पवित्र है। इसीलिए उसे ईश्वरीय चेतना कहा गया है। मनुष्य स्वभावतः स्वार्थी नहीं है और न उद्धत न कृपण। उसमें उदारता की असीम मात्रा भरी पड़ी है। पवित्र जीवन के साथ जुड़े गौरव की सहज अनुभूति सब को रहती है। स्वयं पवित्र न बना जा सके तो भी दूसरे महामानवों के सामने सहज ही सिर झुक जाता है और श्रेष्ठता के पक्ष में अथवा सहज समर्थन व्यक्त करना होता है।

आध्यात्मिकता और आस्तिकता एक ही लक्ष्य के दो प्रयोजन है। ईश्वर की दार्शनिक व्याख्या मानवी अन्तः करण में विद्यमान उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता के रूप में ही की जा सकती है। कर्त्तृत्व पालन में अभिरुचि और अवांछनीयता से निवृत्ति की प्रेरणा को ईश्वरीय प्रेरणा माना गया है। करुणा और उदारता की स्नेहिल सद्भावनाएँ जब अपनी सुविधाओं को दूसरे अधिक जरूरतमन्दों के पक्ष में छोड़ने की- दूसरों के कष्ट अपने ऊपर ओढ़ने की त्याग बलिदान भावना को आस्तिकता की प्रत्यक्ष परिणति माना गया है। ईश्वर निष्ठा और भक्ति का यही फलितार्थ है।

साम्प्रदायिक आस्तिकता दूसरी वस्तु है। उसमें ईश्वर को एक व्यक्ति विशेष मान कर स्तुति प्रशंसा अथवा भेंट पूजा का प्रलोभन देकर प्रसन्न किया जाता है ओर धन, संतान, सफलता सम्मान तथा स्वर्ग मुक्ति जैसे मूल्यवान अनुदान बिना मूल्य देने के लिए आग्रह किया जाता है। दार्शनिक विवेचना में इस भक्तिमार्गी आस्तिकता के लिए कोई स्थान नहीं है। वेदान्त ने आत्मा के परिष्कृत स्तर को ही परमात्मा माना है और उत्कृष्टता से भरा पूरा अन्तः करण ही ब्रह्म लोक है। अपनी महानता पर विश्वास और तद्नुरूप श्रेष्ठ आचरण का अवलम्बन, यही है सच्ची आस्तिकता। इसी के परिपोषण में साधना और उपासना का विशालकाय ढाँचा खड़ा किया गया है।

वैज्ञानिक जानते हैं कि इस विशाल विश्वब्रह्माण्ड के अगणित ग्रह पिण्डों के अन्तगतं चलने वाली चित्र विचित्र हलचलों के बीच एक सुव्यवस्थित तारतम्य है। प्रकृति की सूक्ष्म शक्तियाँ अणु परमाणुओं से लेकर ग्रहपिण्डों तक को एक दूसरे के साथ घनिष्ठता पूर्वक जोड़ती है। चेतन जगत में भी यही नियम काम करते हैं। मन्दमति एवं निकृष्ट स्तर वाले लोगों की बात दूसरी है जिसका व्यक्तित्व उभरा और निखरा होगा उसे अपनी अन्तः चेतना एवं गतिविधियों का निर्धारण इसी आधार पर करना होगा कि सीमितता क्रमशः असीमता में विकसित होती चले। स्वार्थ को सुविस्तृत करके निस्वार्थ स्तर पर जा पहुँचे। विभिन्न काय कलेवरों में बिखरी हुई चेतना को एक सत्ता के रूप में देखने की दार्शनिक दृष्टि आत्मवत् सर्वभूतेषु की अनुभूति में परिणत होती है और छोटे परिवार तक मोह निमग्न रहने के स्थान पर वसुधैव कुटुम्बकम् का आदर्श विचार व्यवहार में ओत-प्रोत रहता है।

अनेकता में समाविष्ट एकता की झाँकी कर सकना ही ईश्वर दर्शन है। सृष्टि का प्रत्येक सजीव और निर्जीव घटक एक दूसरे से प्रभावित ही नहीं होता परस्पर पूरक ही नहीं है वरन् अभिन्न भी है। एक की संवेदना दूसरे को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्रभावित किये बिना नहीं रह सकती। जब यह स्वतः सिद्ध सत्य चेतना के गहन मर्मस्थल तक प्रवेश कर जाय और निरन्तर इसी स्तर की अनुभूति होने लगे तो समझना चाहिए कि अध्यात्म और जीवन का समन्वय हो चला।

व्यक्तिवादी पृथकता, स्वार्थगत संकीर्णता, दोषपूर्ण अहंकारिता, कृपण संग्रह शीलता और कुटुम्बियों तक मोह ममता की सीमाबद्धता जितनी ही सघन होगी व्यक्ति उतना ही अनात्मवादी माना जायेगा। पूजा से अध्यात्म के अभिवर्धन में सहायता मिल सकती है पर दोनों को एक नहीं कह सकते। धर्म और ईश्वर के नाम पर प्राणीवध के कुकृत्य होते हैं। पूजा करने वालों में असामाजिक और अवांछनीय तत्वों की मात्रा कम नहीं है। पुजारी और अध्यात्मवादी निश्चित रूप से एक पंक्ति में नहीं बिठाये जा सकते।

पूजा की इति श्री अमुक कर्मकाण्डों की पूर्ति के साथ ही हो जाती हैं। किन्तु आध्यात्मिक व्यक्ति के अन्तरंग और बहिरंग जीवन में व्यावहारिक हेर-फेर करने के लिए विवश करती है। आत्मसंयम , इन्द्रिय निग्रह, मर्यादा-पालन सादगी, सज्जनता, नम्रता, चरित्र गठन, कर्तव्य पालन, धैर्य , साहस और संतुलन जैसी अनेक सत्प्रवृत्तियाँ अन्तरंग आध्यात्मिकता के वृक्ष पर फल-फूले की तरह अनायास ही लदने लगती है। ऐसे व्यक्ति को महामानव स्तर के उत्कृष्ट व्यक्तित्व से सुसम्पन्न देखा जा सकता है।

बहिरंग जीवन में आध्यात्मिकता की प्रतिक्रिया श्रमशीलता, स्वच्छता, सुव्यवस्था, सद्व्यवहार, ईमानदारी, शालीनता, न्यायनिष्ठा , जनसेवा, उदारता जैसे आचरणों में प्रकट होती है। मर्यादाओं का उल्लंघन वे करते नहीं साथ ही अनीति को सहन भी नहीं करते। अवांछनीयता के विरुद्ध उनका संघर्ष अनवरत रूप से चलता रहता है। न वे किसी से अनावश्यक मोह बढ़ाते हैं और न किसी का स्नेह सद्भाव से वंचित करते हैं।

आध्यात्मिकता को प्राचीन भाषा में ब्रह्मविद्या कहते हैं यह उत्कर्ष चिन्तन और आदर्श कृत्य को एक परिष्कृत जीवन पद्धति है। जिसे अपनाने पर भीतर संतोष और बाहर सम्मान की वे उपलब्धियाँ प्राप्त होती है जिन पर कुबेर और इन्द्र जितने वैभव को निछावर किया जा सके। व्यक्तित्व की पूर्णता और प्रखरता का सारा आधार आध्यात्मिकता पर ही अवलम्बित माना जा सकता है।


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