स्वामी रामतीर्थ जी (कहानी)

February 1973

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स्वामी रामतीर्थ उन दिनों अमेरिका के दौरे पर थे। अनेक स्थानों पर गोष्ठियों तथा प्रवचनों का आयोजन हो रहा था। भारतीय संस्कृति के अमूल्य सिद्धांतों की व्याख्या से अमेरिका निवासी बड़े प्रभावित हो रहे थे। एक दिन स्वामीजी का प्रवचन समाप्त होने पर एक महिला आई और विषादयुक्त वाणी में अपने विचार व्यक्त करने लगी।

“स्वामी जी! मेरा एक ही पुत्र था। थोड़े दिन पूर्व उसकी मृत्यु हो गई। मैं विधवा हूँ, किसी भी तरह चित्त को शांति नहीं मिलती, जीवन में निराशा-ही-निराशा दिखाई देती है। आप कोई ऐसा उपाय बताइए, जिससे मेरे जीवन को शांति मिल सके।”

“आपको शांति की पुनः प्राप्ति हो सकती है और अपने जीवन में आनंद का अनुभव कर सकते हैं; पर हर वस्तु का मूल्य चुकाना पड़ता है। क्या आप सुख-शांति की पुनः प्राप्ति हेतु कुछ त्याग करने को तैयार हैं?”

“बस आपके आदेश देने की देर है। मैं अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार हूँ।”

“पर इतना ध्यान रखना कि आपके देशवासी भौतिक वस्तुओं पर अधिक ध्यान देते हैं। वहाँ डॉलर और सेन्ट के त्याग से काम नहीं चलेगा। यदि आप सचमुच तैयार हैं तो मैं कल स्वयं ही आपके निवासस्थान पर उपस्थित होऊँगा।”

दूसरे दिन स्वामी रामतीर्थ एक हब्शी बालक को अपने साथ लेकर उस महिला के घर पहुँचे। बिजली का बटन दबाया; घंटी बजी, दरवाजा खुला और वह महिला सामने आ खड़ी हुई।

“स्वामी जी! आपने बड़ी कृपा की, जो मेरे घर पधारे।”

“माता! यह रहा तुम्हारा पुत्र। अब इसके सुख-दुःख का ध्यान रखना और पालन-पोषण करना तुम्हारे ऊपर निर्भर करता है।”

उस काले लड़के को देखकर वह महिला सिहर उठी— “स्वामी जी! यह हब्शी बालक मेरे घर में प्रवेश कैसे कर सकता है? गोरी माँ काले लड़के को अपना पुत्र कैसे बना सकती है?”

“माँ! यदि इस बालक के लालन-पालन में आपको इतनी कठिनाई अनुभव हो रही है तो सच्चे सुख और शांति को प्राप्त करने का मार्ग तो और भी कठिन है।”

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