(कहानी)

February 1973

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सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ कृति— मानव। परम पिता परमात्मा का पुत्र— युवराज। फिर भला उसके साहचर्य में रहने के लिए कौन इच्छुक न होगा?  घड़ी के मन में भी यही इच्छा हुई और मानव को देखकर बुदबुदाई— “मुझे घड़ी के नाम से पुकारा जाता है, मैं तुम्हारी सहचरी बनना चाहती हूँ। मैं तुम्हारे जीवन को नियमित और कर्मरत बनाऊँगी। रात हो या दिन, गर्मी हो या जाड़ा; मैं अपनी सुख-सुविधाओं की तनिक भी चिंता न कर अपना सर्वस्व तुम्हारे चरणों में न्योछावर कर दूँगी। मेरी सहायता से तुम समय का महत्त्व जान सकोगे, कहने की बात नहीं, मेरे सहयोग से न जाने तुम क्या से क्या बन जाओगे। ‘टिक-टिककर’ मैं तुम्हें सदैव सचेत करती रहूँगी, ताकि तुम्हारे जीवन के मूल्यवान क्षण व्यर्थ ही नष्ट न हो जाएँ।”

मानव भला क्यों मना करता, घड़ी की प्रार्थना स्वीकार कर ली गई। वह मानव की सहचरी बन गई। हर क्षण वह उसके पास रहती है। कभी दाएँ हाथ में तो कभी बाएँ हाथ में, कभी जेब में तो कभी कमरे में,  कभी दीवार पर तो कभी मेज पर। स्थिति यहाँ तक आ गई कि बड़े-बड़े शहरों में ऊँची मीनारों पर बैठकर बताने लगी, कि समय और जल का प्रवाह कभी अवरुद्ध नहीं होता, इस जीवन में जो करना चाहो कर लो, फिर यह मानव शरीर मिलेगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता।

घड़ी अपना वचन निभाने के लिए कृतसंकल्प है। वह पूरी-पूरी चेष्टा कर रही है, पर सफलता और विफलता तो मनुष्य पर निर्भर है। उसने घड़ी को सहचरी बनाया जरूर है; पर उसका साथ निभाने में अपने को असमर्थ पा रहा है। इसका परिणाम जो होना था, वही हुआ और हो रहा है। घड़ी शोभा और फैशन की वस्तु बनकर रह गई और मनुष्य उसका भार ढोने वाला तथा आवश्यकता की पूर्ति करने वाला बनकर रह गया है। यदि मानव घड़ी का सच्चा सहचर बन सका होता तो आज उसकी इतनी दयनीय स्थिति न होती।

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