संगीत का शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव

February 1973

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गायन को एक प्रकार का योगाभ्यास एवं वक्ष तथा कंठ संस्थान के समीपवर्त्ती अवयवों का महत्त्वपूर्ण व्यायाम माना गया है। भारतीय संगीतशास्त्र के आचार्यों के अनुसार, गायन में आवाज नाभिकेंद्र से उठती है, ब्रह्मरंध्र तक पहुँचती है, तालु, कंठ, फुफ्फुस, हृदय, आमाशय, यकृत एवं आँतों को प्रभावित करती हुई, एक गतिचक्र बनाती हुई, पुनः अपने उद्गम स्थान— नाभि तक पहुँचती है। यह गतिचक्र अपने प्रभाव क्षेत्र के सभी अवयवों का न केवल व्यायाम-प्रयोजन पूरा करती है, वरन उनमें प्राणवायु का अतिरिक्त अनुदान भी देती है।

यों मोटेतौर से यही प्रतीत होता है कि आवाज कंठ, तालु, जिह्वा, ओष्ठ आदि के सम्मिलित संचालन से निकलती है; पर यह बात मात्र वार्त्तालाप के बारे में ही सत्य है। गायन में एक विशेष प्रकार के खिंचाव, तनाव एवं उल्लास की जरूरत पड़ती है और वह एक स्नायु विद्युत के रूप में नाभिकेंद्र से उद्भुत होती है। उस उद्भव के साथ न केवल स्वर-संधान होता है, वरन षट्चक्रों के, उपत्यिकाओं के, त्रिविधि ग्रंथियों के सुप्त संस्थान भी जागृत होते हैं। इस प्रकार गायन न केवल गायक के लिए भावोद्दोलित करके आनंदित करता है; वरन आंतरिक अवयवों का व्यायाम होते रहने से उसके स्वास्थ्य-संरक्षण एवं आंतरिक दिव्य शक्तियों की प्रसुप्त स्थिति को जागरण में परिवर्तित करने का लाभ भी मिलता है। शरीर और मन को उभयपक्षी शक्ति प्रदान करने की जिस सरलता और अधिकताभरी क्षमता गायन में है, उतनी और किसी में नहीं। भावनात्मक उल्लास के प्रवाह में उसके मानसिक तनावों एवं अवसादों का भी निवारण होता रहता है।

गायन की तीन लय हैं— द्रुत, विलंबित, मध्यमा। द्रुत अर्थात तीव्र गति का गायन। इससे जीभ, कंठ, वक्ष और हृदय का विशेष व्यायाम होता है। विलंबित अर्थात स्वर को खींचकर गाना। इसका प्रभाव स्वरवाहिनी नलिकाओं को खोलता और सुदृढ़ बनाता है। मध्यमा अर्थात सामान्य गायन। इसकी प्रतिक्रिया स्नायुमंडल, नाड़ी-संस्थान, हृदय एवं रक्तवाहिनियों पर होती है। जिनके जो अवयव दुर्बल हैं, वे उसके अनुरूप लय चुनकर एक प्रकार से आंतरिक अवयवों की सहज चिकित्सा कर सकते हैं।

हास्यरस, वीररस, शृंगाररस, शांतरस आदि नौ रस गायन के माने गए हैं, उनके लिए विशेष राग-रागनियाँ और विशेष समय का निर्देश किया गया है। समय, राग और रस— इनके सम्मिश्रण से एक विशेष प्रकार का ध्वनि-प्रवाह उत्पन्न होता है और उससे अगणित मानसिक रोगों की चिकित्सा हो सकती है।

शरीर पाँच तत्त्वों से बना माना जाता है। आयुर्वेदशास्त्र के अनुसार, उसकी गतिविधियाँ वात, पित्त, कफ के अनुसार दबती-उभरती रहती हैं। बायोकैमिक चिकित्सा में बारह नमक शरीर के संचालक और आरोग्य के आधार हैं। होम्योपैथी में विषतत्त्वों की विवेचना की गई है। क्रोमोपैथी (सूर्य चिकित्सा) में सात रंगों की न्यूनाधिकता स्वास्थ्य के संतुलन-असंतुलन का कारण है। स्वरशास्त्र के अनुसार, कायकलेवर में सप्तसूक्ष्मनाद उठते रहते हैं, इन्हें स्थूलजगत में सप्तस्वरों के रूप में पहचाना जाता है। सूक्ष्मस्वरूप के दबने-उभरने से जो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य असंतुलन उत्पन्न होता है, उसे स्वर विज्ञान के आधार पर उपयुक्त गायनों के विधान से संतुलित किया जा सकता है।

ऋतुओं के अनुरूप विशिष्ठ गायनों के विधान में भी ऐसे ही रहस्य छिपे पड़े हैं। बसंत ऋतु में बसंत राग, वर्षा में मेघ-मल्हार आदि के लिए संकेत हैं। जिस प्रकार प्रातःकाल, प्रभात राग एवं भक्तिरस की उपयोगिता मानी गई है, उसी प्रकार दिन-रात के विभिन्न समयों में विभिन्न राग एवं रस उपयोगी माने गए हैं, यह व्यवस्था ऐसे ही मनमानी नहीं है; वरन इसके पीछे शारीरिक एवं मानसिक आरोग्य के महत्त्वपूर्ण आधारों का समावेश है।

सामान्यतया गायन को एक आकर्षक, मनोरंजनमात्र माना जाता है; पर यदि उसके संबंध में अधिक गहराई तक उतरा जाए तो प्रतीत होगा कि वह शारीरिक एवं मानसिक रोग-निवारण एवं शक्ति-संवर्द्धन का भी एक महत्त्वपूर्ण माध्यम है। विभिन्न रोगों से ग्रस्त व्यक्तियों को समय तथा कष्ट के अनुरूप गायन-विद्या बताकर लाभांवित किया जा सकता है। जिनका स्वास्थ्य साधारणतया ठीक है, किंतु किन्हीं हृदय, फुफ्फुस आदि विशेष अवयवों को परिपुष्ट करना हो तो उनके लिए भी गायनों का अवलंबन लिया जा सकता है। खिलाड़ी एवं पहलवानों की सफलता हृदय एवं फुफ्फुसों की बलिष्ठता पर निर्भर रहती है, यह प्रयोजन वे उपयुक्त गायन विधि अपनाकर पूरी कर सकते हैं।

गायन के अतिरिक्त वाद्य संगीत की अपनी महत्ता है। गायन जिन्हें नहीं आता, वे वाद्य की ध्वनिलहरियों के सहारे उपयुक्त लाभ प्राप्त कर सकते हैं। यदि स्वयं बजाना आता हो तो उनके सहारे सिर, गरदन, कंधे, छाती, पेट आदि का उपयोगी व्यायाम हो सकता है। क्रमबद्ध और तालबद्ध क्रियाकलाप से उत्पन्न होने वाली शक्ति-धाराओं के संबंध में जिन्होंने पढ़ा-सुना है, वे सहज ही यह समझ सकते हैं कि वाद्य यंत्र बजाने के साथ-साथ जो तालक्रम चलता है, उसके कैसे उपयोगी स्पंदन उठते हैं और उनसे किस प्रकार मनुष्य लाभांवित होता है। बाँसुरी-शहनाई प्रभृति बाजे तो एक प्रकार से गायन द्वारा प्राप्त हो सकने वाले लाभों की ही आवश्यकता पूरी करते हैं। जो लाभ गायन का है, वह मुँह से बजाए जाने वाले बाजे भी दे सकते हैं।

गायन और वाद्य यदि स्वरशास्त्र के अनुरूप हों तो उसका सुनने वालों पर उपयोगी प्रभाव पड़ता है। जो न गाना जानते हैं, न बजाना; वे अपनी शारीरिक-मानसिक स्थिति के अनुरूप स्वरलहरी उपयुक्त अवसर पर, उपयुक्त मात्रा में सुनकर भी बहुत हद तक लाभांवित हो सकते हैं। संगीत के संबंध में यदि आवश्यक शोध की जाए तो उससे शारीरिक एवं मानसिक आरोग्य के अभिवर्द्धन में बहुत सहायता ली जा सकती है। इस प्रकार के प्रयोग योरोप एवं अमेरिका के वैज्ञानिक कर भी रहे हैं और उन्हें आशाजनक सफलता भी मिली है। दुधारू पशुओं को दुहते समय अमुक ध्वनि का संगीत सुनाकर अधिक दूध प्राप्त करने में बहुत सफलता मिली है। मानसिक रोगियों पर भी संगीत से आश्चर्यजनक लाभकारी प्रभाव होने का निष्कर्ष सामने आया है। पेड़-पौधों की उन्नति में भी संगीत की प्रभावी शक्ति सिद्ध हुई है। अन्ना मलय विश्वविद्यालय के वनस्पतिविज्ञानी डॉ. टी. सी. एन. सिंह ने अपने प्रयोगों से यह सिद्ध किया है कि ध्वनि-तरंगों द्वारा पेड़-पौधों की— फसलों की उन्नति में आशाजनक सहायता मिल सकती है।

अमेरिकी संगीत चिकित्सक डॉ. हार्ल्स एस्टले ने अपनी उस प्रक्रिया को अधिक व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया है। उनने लगातार बीस वर्ष इसी पद्धति से चिकित्सा की है और बताया है कि ऐलोपैथी द्वारा रोगमुक्त होने वालों की अपेक्षा संगीत उपचार से अच्छे होने वालों का अनुपात कहीं अधिक है। विशेषतया मानसिक रोगों में तो वह अचुक काम करती है। मांसपेशियों और नाड़ी-संस्थान की गड़बड़ी तो निश्चित रूप से अन्य उपायों की अपेक्षा, संगीत द्वारा अधिक सफलतापूर्वक और अधिक जल्दी अच्छी की जा सकती है।

पूर्व जर्मनी के मोटिंगन नगर के संगीत द्वारा चिकित्सा करने वाले डॉ. जौहान्म शूमिलिन ने अपने प्रयोगों और अनुसंधानों से यह सिद्ध किया है कि मनुष्यों की तरह ही बीमार पशुओं को भी संगीत-उपचार से रोगमुक्त किया जा सकता है। उन्होंने अनुभवों और परीक्षणों का विस्तृत विवरण प्रकाशित करते हुए यह बताया है कि, किस प्रकार बिना दवा-दारू के ही कितने कष्टसाध्य रोगों से ग्रस्त मनुष्यों ने ही नहीं; वरन पशुओं ने भी रुग्णता से छुटकारा पाया।

चिकित्साशास्त्र के साथ-साथ भूतकाल में विभिन्न प्रकार से संगीत का उपयोग होता रहा है। मिस्र के चिकित्सक दवा-दारू करने के अतिरिक्त संगीतमय मंत्रों का भी उच्चारण करते थे। अफ्रीका के वन्य-प्रदेशों की आदिवासी जातियाँ विशेष प्रकार की ध्वनियाँ मुख से उच्चारण करके विभिन्न रोगों का उपचार करने में दक्ष रही हैं। डेविड हार्प नामक संगीतकार सम्राट सॉल को असाध्य रोग से मुक्त करने में अपनी वाद्यकला को पूर्णतया सफल सिद्ध कर चुका है। होमर के अनुसार यूलीसेस को प्राणघातक रोग से संगीत-उपचार से ही मुक्ति मिली थी।

इटालियन नृत्य ‘टैरेनटेला’ के बारे में प्रसिद्ध है कि जब वह नृत्य आरंभ होता है तो दर्शक आवेश में आ जाते हैं और वे स्वयं भी अपनी मान-मर्यादा को छोड़कर नृत्य करने लगते हैं। इस नृत्य में विशेष प्रकार के संगीत की ही प्रधानता रही है।

मानसोपचार में अब संगीत ध्वनि-प्रवाह को बहुत महत्त्व दिया जाने लगा है। पाश्चात्य देशों के प्रायः सभी मानसिक रोगों के अस्पतालों में इस प्रकार का प्रबंध है कि विभिन्न स्तर के पागलों एवं सनकियों को विशेष प्रकार की संगीत-ध्वनियों से भावविभोर कर दिया जाए। इससे उनका उन्माद घटता है और मनःस्थिति में आशाजनक सुधार होता है। दंतचिकित्सकों ने भी अब इस पद्धति को अपने व्यवसाय में उपयोग करना आरंभ किया है। दाँत उखाड़ने, इंजेक्शन लगाने एवं ऑपरेशन करने की कठिन घड़ियों में संगीत उनका मानसिक स्तर संतुलित बनाए रहता है और दंत चिकित्सा के कठिन क्षण सहज ही निकल जाते हैं।

संगीत की विशेष प्रकार की ध्वनि-तरंगों के साथ नृत्य मुद्राएँ मिलकर सोना-सुगंध के सम्मिश्रण जैसा प्रभाव उत्पन्न करती हैं। घुँघरूओं— पायलों की झंकारें,  नृत्य-प्रवाह में थिरकते हुए चरण जब विशेष प्रकार की संगीतलहरियों के साथ लहराती हैं तो उससे नर्तक ही नहीं, दर्शक भी किसी अतिमानवी लोक में विचरण करते हुए पाते हैं। उस भावविभोरता की स्थिति में मन पर जमे हुए तनावों का भार सहज ही हलका होता है और उलझी हुई मनःस्थिति सहज ही सुलझने लगती है। यों नृत्य का एक स्वतंत्र शास्त्र भी है, पर वस्तुतः वह संगीत के साथ ही जुड़ा हुआ है। यों गायन और वाद्य, व्याकरण और साहित्य की तरह दो अलग-अलग पक्ष भी हैं, फिर भी उन्हें परस्पर संबद्ध एवं पूरक ही माना जाता है, सो शृंखला की तीसरी कड़ी नृत्य भी है। यह समन्वय एक विशेष प्रकार के ऐसे प्राणायाम का सृजन करता है, जो जीवन में उल्लासभरी परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है। आमतौर मे गायक, वादक और नर्तक स्वस्थ ही नहीं; प्रफुल्लित, स्फूर्तिवान, सुकोमल एवं सुरम्य-मनोहर भी होते हैं।

युद्धों में संगीत का सदा से प्रयोग होता रहा है। सैनिकों में शौर्य, साहस एवं लड़ने का उत्साह- पराक्रम जगाने में वाद्यों की उपयोगिता सदेव स्वीकार की जाती रही है। महाभारत के सूत्रधार भगवान कृष्ण ने स्वयं पाँच जयशंख बजाकर युद्ध-उद्घोष किया था। बिगुल, नगाड़े, भेरी, मृदंग, बीन, झाँझ जैसे बाजों के उपयोग का वर्णन युद्ध-इतिहासों में मिलता है। वर्त्तमान शताब्दी में इस दिशा में और भी अधिक प्रगति हुई है। युद्ध-वाद्यों की शृंखला में ऐसे बाजे विनिर्मित हुए हैं, जो भयभीत और कायरों की नसों में भी मरने-मारने का आवेश भर सकें।

इतना ही नहीं, शत्रुपक्ष के सैनिकों में निराशा, शिथिलता एवं भयग्रस्तता उत्पन्न करने वाली ध्वनिलहरियाँ भी उत्पन्न की गई हैं और उनसे प्रतिपक्षी को परास्त करने में एक सीमा तक अच्छी सफलता मिली है। युद्धबंदियों के बीच ऐसी ध्वनियाँ बजाई जाती हैं, जिससे वे भविष्य में युद्ध करने योग्य ही न रह जाएँ और उनसे भविष्य में किसी पराक्रम की आशा न की जाए।

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