सृजनात्मक चिंतन— सुख-संतोष का आधार

February 1973

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सुखी और प्रसन्न दिखाई पड़ने वाले मनुष्यों का यदि आंतरिक विश्लेषण किया जाए तो प्रतीत होगा कि साधनों, सफलताओं या परिस्थितियों के कारण नहीं, वे अपनी सुखद कल्पनाओं के आधार पर उत्साह और आनंद से भरे रहते हैं।

सुखद साधनों की उपलब्धि के साथ जिनने अपनी प्रसन्नता को जोड़ा होगा, वे सदा खिन्न एवं असंतुष्ट ही दिखाई पड़ेंगे; क्योंकि मनचाही परिस्थितियाँ किसी को भी प्राप्त नहीं होतीं। आकांक्षाओं की सीमा नहीं, चाहना कितनी बढ़ी-चढ़ी हो सकती हैं, उस पर कोई अंकुश नहीं। पर सफलताएँ तो व्यक्तित्व के निर्माण और पुरुषार्थ के नियोजन पर निर्भर रहती हैं; अस्तु वे आकांक्षाओं की तुलना में सदा कम ही रहेंगी। इस कारण को लेकर भी कोई कितना ही दुःखी और असंतुष्ट रह सकता है।

अभीष्ट वस्तुएँ, अभीष्ट परिस्थितियाँ, अभीष्ट सफलताएँ— तभी तक रुचिकर लगती हैं, जब तक वे मिल नहीं जातीं। प्रतीक्षा में ही रस रहता है। मिल जाने पर उसकी सरसता अनायास ही विदा हो जाती है। परीक्षा में उत्तीर्ण होने, मुकदमों में जीतने, पुत्र होने, मकान बनाने आदि की अभिलाषाएँ जब तक पूरी नहीं होतीं, तभी तक वे आकर्षक लगती हैं, जब वे पूरी हो जाती हैं तो उनमें कुछ भी आनंद शेष नहीं रह जाता। तब वे भारमात्र एवं नीरस बन जाती हैं। अतृप्ति जब तक रहती है, तब तक ही आशाभरा उत्साह रहता है। कन्या के लिए उपयुक्त घर, वर मिलने और विवाह आयोजन ठीक प्रकार संपन्न होने की चिंता तथा व्यवस्था में जो दौड़ रहती थी, उसका विवाह होने के उपरांत सहज ही अंत हो जाता है। तब ऐसी शिथिलता आती है, मानो कुछ करने के लिए ही शेष न रह गया हो।

आनंद की अनुभूति का सारा आधार मनःस्थिति पर निर्भर है, जो उपलब्ध है, उसे निरख-परखकर देखें और उनके साथ अपनी तुलना करें जिन्हें इतना भी मिला हुआ नहीं है, तो प्रतीत होगा कि अपनी स्थिति ऐसी है, जिस पर संतोष ही नहीं, गर्व भी किया जा सके। किंतु इसके विपरीत आकांक्षाओं की तुलना में जो अभाव प्रतीत होते हैं, उन्हीं पर ध्यान केंद्रित रहे और सुसंपन्नों की तुलना करते हुए अपनी स्थिति को हेय समझते रहा जाए, तो असंतोष एवं विक्षोभ के अतिरिक्त और कुछ हाथ न लगेगा।

भविष्य की आशापूर्ण संभावनाओं का चिंतन करते रहने से सुखद-स्वप्न आँखों के आगे तैरते रहते हैं और कई बार वे इतने मधुर होते हैं कि सुसंपन्न लोगों की तुलना में अधिक उल्लास उमगता रहता है।

माना कि भावी सुसंभावनाएँ निश्चित नहीं हैं, पर यही क्यों मान लिया जाए कि कुकल्पनाएँ ही सही सिद्ध होंगी। सौभाग्य संदिग्ध हो सकता है; पर दुर्भाग्य ही कहाँ निश्चित है। दो अनिश्चितों में से यदि किसी को कल्पना-क्षेत्र में बिठाना ही पड़े तो चुनाव सुसंभावनाओं का ही करना चाहिए। भूतकाल की जो उपलब्धियाँ अब हाथ नहीं रहीं, उनके बारे में सोचते रहने से यही प्रतीत होगा कि जो हाथ था, वह चला गया और संपदा लुट गई, पर यदि भावी संभावनाओं और सफलताओं के ताने-बाने बुनने की आदत डाल ली जाए और आगत उपलब्धियों के लिए प्रयास, स्वागत का ठाठ-बाट खड़ा किया जाए तो लगेगा कि अगले दिनों आनंद और उल्लास की घड़ियाँ द्रुतगति में दौड़ती हुई निकट चली आ रही हैं।

सोचने की आदत निषेधात्मक, निराशाजनक, हानिसंबद्ध एवं विपत्ति-चिंतन की पड़ जाए तो पग-पग पर दुःख-दुर्भाग्य के घेरे में अपने को घिरा हुआ अनुभव किया जाएगा; पर यदि सृजनात्मक एवं सुसंभावनाओं के चिंतन की दिशा मिल जाए तो हर किसी को, अपने को, हर घड़ी सुखी-संतुष्ट एवं आशा-उत्साहभरे स्वर्गीय वातावरण में रहने की अनुभूति होती रहेगी।

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