नियत समय पर कार्य करना सफलता का अमोघ सोपान

February 1973

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अब्राहम लिंकन जब प्रातःकाल टहलने जाते थे तो लोग अपनी घड़ियाँ मिला लेते थे कि समय क्या है। उनका समय, नियम और क्रम पूर्णतया व्यवस्थित था, उसमें कभी यत्किंचित ही अंतर आता था, इसलिए लोग उनके पैरों की एक विशेष प्रकार की आवाज से समझ लेते थे कि यह लिंकन ही जा रहा है और बिस्तर पर पड़े-पड़े ही घड़ियों में यदि कुछ फर्क होता तो उसे ठीक कर लेते थे।

घड़ियाँ सभी के पास होती हैं, पर उनसे समय पर उठने और काम करने की समुचित प्रेरणा किसी-किसी को ही मिलती है; पर मनुष्य के भीतर एक ऐसा स्वसंचालित क्रोमोमीटर है कि यदि उसे थोड़ा सजीव और सक्रिय बना लिया जाए, तो न केवल सही समय बता देता है, वरन ठीक समय पर निर्धारित कार्य करने के लिए भी बाध्य कर देता है। लिंकन की असली घड़ी यही सक्रियता थी। यों उनके घर कीमती घड़ियों की भी कमी नहीं थी।

अन्य जीव-जंतु तो इसी आंतरिक घड़ी के आधार पर अपनी गतिविधियाँ चलाते हैं। मुर्गा आमतौर से लगभग प्रातः 4 बजे बाँग देता है। उसके पास मशीनी अलार्म-घड़ी भले ही नहीं, पर भीतर वह मौजूद है, साथ ही ऐसी भी है जो न कभी खराब होती है और न मरम्मत को भेजनी पड़ती है। मुर्गे का आंतरिक क्रोमोमीटर समय की जानकारी उसे करा देता है और बाँग लगाने की ड्यूटी पूरी करने के लिए विवश कर देता है।

पालतू तोते या कुत्ते को यदि कुछ दिनों नियत समय पर भोजन दिया जाता रहे तो वह उसके अभ्यस्त हो जाएँगे और यदि किसी दिन उन्हें उस समय भोजन न मिले तो अपनी मांग प्रस्तुत करते हुए चिल्लाने या उछल-कूद करने में लग जाएँगे।

घनघोर घटाएँ छाई रहने पर भी पक्षी प्रभातकाल होते ही चहचहाने लगते हैं और सूर्य-अस्त होने का समय आते ही अपने घोंसलों में सोने के लिए चले जाते हैं। जंगलों में सियारों के चिल्लाने का एक नियत-निर्धारित समय होता है। वे हर रात को उसी समय बोलते हैं।

चिड़ियाँ दाना चुगने उड़ जातीं हैं, पर साथ ही उन्हें यह भी याद रहता है कि घोंसले के बच्चों को किस समय भोजन देना है। वे चोंच में मुलायम बीज या कीड़े लेकर ठीक समय पर घोंसलों में आती रहती हैं और उनके बच्चे बिलकुल उसी समय आहार की प्रतीक्षा करते हैं। समय से कुछ मिनट पहले तक वे घोंसलों में ऐसे ही पड़े सुस्ताते रहते हैं।

दैनिक घड़ी का ही नहीं, ऋतुओं और महीनों की स्थिति भी भीतरी अलार्म टाइमपीस निर्धारित उत्साह उत्पन्न करने और नियत काम पर लगने की प्रेरणा करती है। प्रायः सभी जीव-जंतुओं के गर्भाधानकाल निर्धारित हैं, मादाएँ लगभग उन्हीं दिनों उत्तेजित होती हैं और एक जाति का प्रजननकाल लगभग एक ही काल में होता है। मछलियों से लेकर छोटे कीड़े-मकोड़ों तक यही व्यवस्था चलती है। पशु-पक्षियों में तो यह काल-निर्धारण सही ही रहता है। उन पालतू पशुओं की बात अलग है, जिन्हें उनके मालिकों ने अपनी प्रकृति के विपरीत कार्य करने के लिए बाध्य किया है। पक्षियों के घोंसले बनाने में, मकड़ी को जाला तनने में एक नियत अवधि पर ही संलग्न देखा जाता है।  

सैलानी पक्षी प्रायः वर्ष में एक समय ही अपनी दूरवर्त्ती यात्राएँ आरंभ करते हैं और अभीष्ट अवधि पूरी होते ही इस तरह वापस लौटते हैं, मानो किसी ने उनका प्रोग्राम कलैंडर के आधार पर नियत— निर्धारित करके रखा हो।

मनुष्य शरीर और मन की भी यही स्थिति है, यदि उसकी क्रम-व्यवस्था रोज-रोज बदली-बिगाड़ी न जाती रहे तो एक नियत ढर्रा जम जाता है और वही अपने ढर्रे पर ठीक तरह चलता रहता है। भूख, प्यास, शौच, निद्रा, जागृति आदि की इच्छाएँ प्रायः ठीक समय पर उठती हैं। इतना ही नहीं, भीतरी अवयव उसके लिए सावधानी के साथ अपनी तैयारी में जुट जाते हैं। खाने का समय होते ही मुँह के, पेट के, आँतों के, यकृत के रासायनिक स्राव अनायास ही स्रावित होने लगते हैं। अपनी ड्यूटी को यथासमय निबाहने में वे सामर्थ्यभर व्यतिरेक नहीं होने देते। चाय, सिगरेट, पान आदि की तलब अपने समय पर ही उठा करती है।

 यदि हम दिनचर्या नियत— निर्धारित कर लें और उस पर सावधानी के साथ चलते रहें तो देखा जाएगा कि शरीर ही नहीं, मन भी उसके लिए पूरी तरह तैयार रहता है। पूजा-उपासना, साहित्य- सृजन, व्यायाम आदि के लिए यदि समय निर्धारित हो तो देखा जाएगा कि सारा कार्य बड़ी सुंदरता और सफलतापूर्वक संपन्न होता चला जाता है। इसके विपरीत, यदि आए दिन दिनचर्या में उलट-पुलट की जाती रहे तो अंतरंग की स्वसंचालित प्रक्रिया अस्त-व्यस्त एवं अनभ्यस्त हो जाएगी और हर कार्य शरीर से बलात्कारपूर्वक ही कराया जा सकेगा और वह औंधा-सीधा ही होगा, उसकी सर्वांगपूर्णता की संभावना आधी-अधूरी ही रह जाएगी।

इच्छा, श्रम और व्यवस्थापूर्वक हम कई कार्य करते हैं। यह बाह्य व्यवस्था कार्यों में जितनी सफलता उत्पन्न करती है, उससे अधिक अंतरंग की स्वसंचालित कार्यपद्धति का योगदान होता है। यदि वस्तुतः हम किसी कार्य को अधिक सुंदर, सुव्यवस्थित और सफल देखना चाहते हैं तो नियत समय पर निर्धारित कार्यक्रम में संलग्न होने का प्रयत्न करना चाहिए, ताकि वह व्यवस्था अभ्यास के रूप में परिणत हो सके। हमारे खाने और सोने का समय निर्धारित होना चाहिए। इसमें अव्यवस्था फैलाते रहना, अपने अच्छे-भले स्वास्थ्य की जड़ें खोखली करने के समान है। यदि भोजन नियत समय पर नहीं किया जा सका तो उत्तम यही है कि उस पारी की नागा कर दी जाए और दूसरी पारी का समय जब आए तब कुछ खाया जाए। समय-कुसमय खाने की अपेक्षा तो एक समय बिना खाए रह जाना अधिक श्रेयस्कर है। कई व्यक्ति बहुत रात गए घर लौटते हैं और एक-दो पहर बिताकर तब कहीं खाना खाते हैं। इसमें व्यस्तता नहीं, अव्यवस्था और प्रमाद ही मुख्य कारण होता है। यदि घर लौटना नहीं हो सका, तो जहाँ कहीं भी भोजन का समय हो जाए, वहीं भोजन का प्रबंध कर लेना चाहिए। इससे न केवल अपने स्वास्थ्य का; वरन पत्नी तथा उन लोगों का भी आरोग्य नष्ट होने से बचाया जा सकता है, जो देर से आने वाले के इंतजार में स्वयं भी भूखे बैठे रहते हैं।

देर से सोना और देर से उठना ऐसी ही बुरी आदत है, जिसके साथ आंतरिक टाइमपीस की सोई संगति नहीं खाती। मनुष्य की प्रकृति दिवाचर है। उसे दिन में काम करना और रात में सोना चाहिए। रात को जागना और दिन में ऊँघना, यह निशाचरों, हिंस्र जंतुओं तथा चोर-बदमाशों के उपयुक्त आदत है। इससे बचा जा सके तो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा बहुत हद तक हो सकती है। प्रातःकाल सभी पशु-पक्षी तरोताजा होकर उठते हैं और उत्साहपूर्वक अपने कामों में लग जाते हैं। मनुष्यों के लिए भी यही उपयुक्त है। आत्मसाधना के लिए तो ब्रह्ममुहूर्त्त ही सर्वोत्तम है। इस समय उपासना जितनी अच्छी तरह हो सकती है, उतनी अन्य किसी समय नहीं। देर तक सोते रहने वाले मंदबुद्धि, आलसी, रुग्ण और दरिद्र बनते चले जाते हैं। यह तथ्य सर्वथा माननीय है।

जीवधारियों की प्रवृत्ति में एक अत्यंत रहस्यमय और अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया नियत समय पर निर्धारित कार्य करते रहने की है। जो उसे जानते एवं मानते हैं, वे अपने शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य पर बिना अनावश्यक दवाब डाले, महत्त्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त करते चले जाते हैं और सुखमय जीवन व्यतीत करते हैं।

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