व्यक्तित्व के विकास में आनुवांशिकी स्तर स्पर्श करना होगा

February 1973

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अपने को, संतान को, परिवार को, समाज को सुखी-समृद्ध बनाने के लिए हमें यह सोचना होगा कि इसके लिए धन से भी अधिक ऊँचा आधार है — व्यक्तित्व। विकृत व्यक्तित्व वाले मनुष्य प्रचूर सुविधा-साधनों के रहते हुए भी, न स्वयं सुखी रह पाते हैं और न अपने स्वजन-संबंधियों को चैन से रहने देते हैं। इसी के विकास के लिए साधारणतया आहार, व्यायाम, उपकरण, प्रशिक्षण, वातावरण आदि को पर्याप्त माना जाता है; पर वास्तविकता यह है कि इतने से कुछ अधिक प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। यदि बात इतनी भर रही होती तो साधनसंपन्न लोग यह सारे साधन सहज ही जुटा सकते थे और व्यक्तित्वसंपन्न बन सकते थे; पर ऐसा कहाँ होता है। वे इस क्षेत्र में अपेक्षाकृत अभावग्रस्त लोगों से भी पिछड़े एवं गए गुजरे सिद्ध होते हैं।

विज्ञान ने सूक्ष्म से सूक्ष्मतर परतों में प्रवेश करते हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि जिस प्रकार बीज में सन्निहित अदृश्य विशेषताएँ अवसर पाकर वृक्ष के रूप में विकसित होती हैं, उसी प्रकार कोशिकाओं के गर्भ में सन्निहित वंशानुक्रम की विशेषताएँ ही व्यक्तित्व बनकर पल्लवित होती हैं। शरीर और मन का स्तर बहुत कुछ परंपरागत होता है। यह परंपराएँ पूर्वजों के प्रत्यक्ष जीवन पर नहीं, परोक्ष, अदृश्य एवं अविज्ञात स्तर पर अवलंबित रहती हैं। यदि सचमुच ही किसी को अपना व्यक्तित्व विनिर्मित करना हो, अपनी संतान को सुविकसित व्यक्ति के रूप में प्रतिभासंपन्न बनाना हो तो उसके लिए, प्रगति के लिए आवश्यक माने जाने वाले बाह्य उपकरणों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए; वरन वंशानुक्रम से संबंधित उस सूक्ष्मस्तर का स्पर्श करना चाहिए, जिनके स्फुरण से ही बहिरंग जीवन की अनेक विशेषताएँ विकसित होती हैं।

आनुवंशिकी-अंवेषणों से यह अधिकाधिक स्पष्ट होता चला जा रहा है कि व्यक्तित्व के विकास के लिए उपयुक्त समझे जाने वाले आहार-विहार, शिक्षा-साधन जैसे माध्यमों की तुलना में वे तत्त्व हजारों गुने अधिक प्रबल हैं, जो परंपरागत-प्रक्रिया के आधार पर कोशिकाओं के अंतर-भूमिका के अत्यंत गहन मर्मस्थल में गुँथे रहते हैं।

 फ्रांसीसी दार्शनिक मान्टेन को पैंतालीस वर्ष की आयु में पित्ताशय में पथरी की बीमारी हुई। उनके पिता के यह रोग पच्चीस वर्ष की आयु में आरंभ हुआ था। मोटेतौर से यह बात समझ में नहीं आती कि उनके जन्म के समय जब पिता को वह बीमारी नहीं थी तो बच्चे— उसकी संतान को कैसे हो सकती है? पर अब इस रहस्य पर से परदा उठ गया है। मात्र माता-पिता का रज-वीर्य ही बालक के स्वास्थ्य, मनःस्तर का सृजनकर्त्ता नहीं है, वरन वंश-परंपरा में चली आने वाली जीन्स के साथ जुड़ी हुई वे विशेषताएँ पीढ़ियों के निर्माण में अतिमहत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करती हैं। मान्टेन की पित्ताशय की पथरी उसकी कई पीढ़ियों से चली आ रही थी। भले ही वह प्रकट रूप से दिखाई न पड़ती हो, पर सूक्ष्म 'जीन्स' में, छाया रूप में वह विशेषता मौजूद थी जो अनुकूल अवसर आते ही फलने-फूलने लगी।

मधुमेह वंश-परंपरागत हो तो भी इन्सुलीन के इंजेक्शनों के सहारे उसके रोगी को खड़ा रखा जा सकता है। बालकों का ‘गैलेक्टोसीमिया’ पैतृक जीन्स से संबंधित होता है। बाहरी कारणों से वह कदाचित ही होता है। वह जीन जब गेल-आई-पी-यूरी डायल ट्रान्सफेरास एंजाइम नहीं बनने देता तो बच्चे दूध में रहने वाली मिठास— गैलेक्टोस पचा नहीं पाते, फलत: वह खून में जमा होती रहती हैं। वह जिगर में इकट्ठी होकर बच्चे का पेट खराब कर देती है और बहुत करके उसे मार ही डालती है। ऐसा ही एक दूसरा रोग है— एक्रोडर्मेटाइटिस ऐंटेरोपैथिका। यों इनका इलाज भी किया ही जाता है, पर पैतृक विकृतियों को धारण किए हुए जीन्स जिन रोगों का सृजन करती हैं, वे बड़े हठीले और कष्टसाध्य होते हैं। आँख-मिचौनी खेलते रहते हैं और जब भी दाव लगता है फिर उभरकर खड़े हो जाते हैं।

आँख का कैंसर— ‘रेटीनोब्लास्टोमा’, जीन्सदोष का ही परिणाम है। निकट दृष्टि— ‘मायोपिया’, सारे परिवार को होते देखा गया है। प्रकृतिगत प्रभावों की असाधारण शृंखला का समावेश आनुवंशिकी- क्षेत्र तक पहुँच जाए तो अद्भुत परिवर्तन देखे जाते हैं। बौनेपन का कारण यही है। सिर और धड़ का आकार सामान्य और हाथ-पाँव छोटे रह जाना विलक्षण आकृति के अधिक या न्यून अंग-प्रत्यंगों वाले बालक ऐसे ही जीन्स उत्परिवर्तन के परिणाम हैं। माता-पिता में इस प्रकार की कमी होने से ही ऐसे अविकसित बालक नहीं होते; वरन उनमें जीन्स की एकोंड्रोप्लासिया-आपत्ति ही कारण होती है। ऐसे अविकसित बच्चे मरते जल्दी हैं, यदि बच भी गए तो वंशवृद्धि में असमर्थ होते हैं। ऐसी महिलाएँ यदि गर्भधारण कर लें तो फिर न जच्चा का कुछ ठिकाना रहता है, न बच्चा का।

बेशक परिस्थितियों का महत्त्व है। परंपरागत विकृतियों को अच्छा आहार, अच्छा रहन-सहन, अच्छी जलवायु से बहुत कुछ नियंत्रण में रखा जा सकता है, फिर भी विकृत आनुवंशिकता इतने से ही निर्मूल नहीं हो जाती, इसके लिए अधिक गहरे और अधिक प्रभावी उपचार काम में लाने पड़ते हैं। यदि इस ओर ध्यान न दिया जाए तो पीढ़ियाँ ऐसी बनती हैं, जिसे दुर्भाग्य या अभिशाप ही कहा जा सके।

शारीरिक विकास के लिए आहार-विहार, जलवायु की प्रतिक्रिया को चीरकर आनुवंशिकी तत्त्व अपनी मौलिक विशेषता स्थिर रखे रह सकते हैं। पूर्वजों की प्रतिच्छाया सहज ही संतान में परिलक्षित हो सकती है।

माता-पिता दोनों ही देखने में स्वस्थ हों, पर बालक में जिस पक्ष की 'जीनी' का वर्चस्व यदि पैतृक रूप से रुग्ण हो तो उसका प्रभाव कभी भी उभर सकता है। बालक ऐसे रोगों से ग्रसित हो सकता है, जिनका निराकरण साधारण दवा-दारू से संभव ही न हो सके। वंशवृद्धि की दृष्टि से हाड़-माँस की स्वस्थता का बहुत अधिक मूल्य नहीं है। बाहर से मजबूत और सुडोल एवं सज्जन दीखने वाला व्यक्ति भी अपने कोषाणु गर्भ में ऐसे गुणसूत्रों से भरा हो सकता है, जिसका प्रजनन शारीरिक अथवा मानसिक रुग्णताग्रसित हो, अस्तु सुसंतति के लिए न केवल वर-वधू की तात्कालिक शारीरिक-मानसिक स्थिति पर ही दृष्टिपात करना आवश्यक होता है; वरन उसकी पैतृक परंपराओं को भी देखने-समझने की आवश्यकता पड़ती है। 'खानदान' का इतिहास, सुसंगति की दृष्टि से अतीव महत्त्वपूर्ण होता है।

विकासवादी डार्विन का विवाह उसकी चचेरी बहन से हुआ था। परंपरागत विशेषताओं का प्रकटीकरण उसने अपने परिवार में देखा, उसको यही कहना पड़ा— वंश-परंपरा विज्ञान बड़ा ही आश्चर्यजनक है। इस रहस्य की खोज बहुत दिनों से चल रही थी। चेकोस्लोविया के पादरीमंडल ने आनुवंशिकता पर प्रकाश डाला था। पीछे उसे अणु विज्ञान की तरह महत्त्वपूर्ण माना गया और डॉ. खुराना प्रभृति अंवेषकों ने तत्संबंधी शोधों से समस्त विश्व का ध्यान इस ओर आकर्षित कर लिया।

परंपरागत शारीरिक विशेषताओं का पीढ़ियों तक गतिशील रहना प्रत्यक्ष है। वे भली भी हो सकतीं हैं और बुरी भी। बात उतने तक ही सीमित नहीं है; मानसिक, भावनात्मक, चारित्रिक तथा अन्यान्य प्रकार की विशेषताएँ भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती देखी गई हैं।

शरीर में लगभग 700 प्रकार के ऐंजाइम पाए जाते हैं। इनकी न्यूनाधिकता ही प्रायः शरीर-संचालन के सारे क्रियाकलाप संपन्न करती हैं। इन ऐंजाइम का स्तर गुणसूत्रों की प्रेरणा से ही गिरता-उठता है। इनकी पूर्ति दवाओं में सम्मिलित ऐंजाइम शरीर में पहुँचाकर की जाती है। मधुमेह में इन्सुलीन प्रायः गोलियों और इंजेक्शनों से पहुँचाया जाता रहता है, पर उसका प्रभाव क्षणिक रहता है। एक बार के आहार में ही वह मात्रा समाप्त हो जाती है, फिर दूसरी मात्रा लेनी पड़ती है, पर यदि गुणसूत्रों में सन्निहित मूलस्रोत सुधारे जा सके तो ही यह किसी स्थायी रूप से दूर की जा सकती है।

आनुवंशिकी-प्रक्रिया में गड़बड़ी उत्पन्न हो जाने पर संतानों के शरीर और मन विचित्र प्रकार से विकृत हो सकते हैं। यह विकृतियाँ जिनमें आरंभ होती हैं, उन्हें पता नहीं चलता, पर संतान पर उनका प्रभाव परिलक्षित होता है। कुछ विकृतियाँ धीरे-धीरे पलती रहती हैं और कई पीढ़ियों के उपरांत प्रकट होती हैं। गर्भ-स्थापन एवं गर्भ-विकासकाल में रही हुई विकृतियाँ भी विलक्षण आकार-प्रकार की पीढ़ियाँ प्रस्तुत करती हैं।

करबेरा डी बुट्रैडी नामक स्पेन के एक गाँव में सभी व्यक्तियों के हाथ-पैरों में अतिरिक्त उंगलियाँ हैं। 6 से कम तो किसी के भी हाथ-पैरों में नहीं हैं। किसी के सात-आठ भी हैं। सारे गाँव में एक वृद्ध ही ऐसा था जिसके पैर-हाथों में मिलाकर बीस ही उँगलियाँ थीं। कहा जाता है कि यह परंपरा एक 6-6 उँगली वाले दंपत्ति का विवाह होने से चल पड़ी और उन्हीं के रक्त सम्मिश्रण से यह वंशक्रम चल पड़ा।

फ्रांस में ट्रूर कुइंग गाँव में केमेन्ट नामक एक लड़की सन् 1793 में पैदा हुई। वह 15 वर्ष की आयु तक ठीक प्रकार जीवित रही, उसकी एक ही आँख थी और वह दोनों आँखों के मध्यस्थान पर थी। प्रकृति के इस अद्भुत करतब को देखने लोग दूर-दूर से आते थे। चीन के चिहली नगर में शी स्वान के शरीर का चमड़ा पारदर्शी था। शरीर के भीतर कहाँ, क्या हो रहा है और कौन कल- पुर्जा क्या काम कर रहा है, उसे इसी तरह देखा जा सकता था, जैसे पारदर्शी काँच के आर-पार देखा जा सकता है। यह सन् 1389 में पैदा हुआ और 1464 में मरा। इन 75 वर्षों में उसका अद्भुत शरीर दर्शकों के लिए एक आश्चर्य का विषय बना रहा।

फेंक फोई नगर की ग्रेटेल नामक महिला के मुख में दो जीभ थीं, पर वह बोल एक से भी नहीं सकती थी। वह पूर्णतया गूँगी थी।

शांसी प्रांत का गवर्नर लूचिंग— जो कुछ समय राज्यमंत्री भी रहा, में एक शारीरिक विशेषता भी थी। उसकी दोनों आँखों में दो-दो पुतलियाँ थीं, पर इससे उसकी दृष्टि में कोई अंतर नहीं पड़ा। दो पुतलियों के कारण दूना दीखता हो, सो बात भी नहीं थी; पर उनके कारण कोई दृष्टिदोष भी उत्पन्न नहीं हुआ था, वे अन्य सामान्य मनुष्यों की तरह ही देखते-भालते थे।

इन उदाहरणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता कि गुणसूत्रों का मर्म यदि और भी अधिक स्पष्ट हो जाए तो वर्त्तमान आकृति-प्रकृति से भिन्न प्रकार के मनुष्यों की नई सृष्टि रची जा सकती है। आज मानवी काया में जो कमियाँ प्रतीत होती हैं, उन्हें अगले दिनों इच्छानुसार सुधारा-संभाला जा सकता है। यह कार्य शल्य चिकित्सा, आहार विज्ञान एवं मस्तिष्कीय शिक्षण-प्रशिक्षण का नहीं, वरन आनुवंशिकी विज्ञान का है। उस संदर्भ में यदि समुचित ज्ञान प्राप्त हो सके तो, सुधार-परिवर्तन का विधान जाना जा सके तो, मनुष्य को अभीष्ट विशेषताओं से सुसंपन्न बनाया जा सकता है और न केवल व्यक्तिविशेष को; वरन उसकी पीढ़ियों को भी सुधारा जा सकता है। इस दिशा में जो आरंभिक प्रयत्न वैज्ञानिकों ने किए हैं, उनमें उत्साहवर्द्धक सफलता भी मिली हैं।

पाँचवी अंतर्राष्ट्रीय आनुवंशिकी कांग्रेस में प्रो. एच. जे. मूलर ने 'क्ष' किरणों की सहायता से जीनों में परिवर्तन ला सकने का अपना प्रतिपादन प्रस्तुत किया था, तब से अब तक इस दिशा में बहुत प्रगति हो चुकी है और प्रतीत होता है कि इस विज्ञान के आधार पर धरती के जीवधारियों की आकृति तथा प्रकृति में अभीष्ट परिवर्तन किया जा सकेगा।

प्रयोत्ताओं ने मक्खियों की चित्र-विचित्र ऐसी नस्लें उत्पन्न कर ली हैं जो अपने पूर्वजों से बहुत कम मिलती-जुलती हैं। वनस्पतियों में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुए हैं और पशुओं की नसलों में भारी सुधार हुए हैं। मैक्सिकों बोने गेहूँ को भारत में सोनेरा 64 शरवती गेहूँ के रूप में समुन्नत किया गया है। इसी प्रकार अन्य अनाजों में इच्छानुसार लंबी या बौनी जातियाँ पैदा की गई हैं। गेहूँ, जौ, मक्का, धान, ज्वार, मूँग आदि की अब कई नसलें ऐसी आई हैं, जिनमें पोषकतत्त्व कहीं अधिक हैं। इसी प्रकार आँधी-तूफान से बचाने के लिए कम ऊँचाई की फसलें पैदा करने में भी अच्छी सफलता मिल रही है। शूकरहित बालें बदली गई हैं, ताकि उनका भूसा जानवरों के गले में चुभन पैदा करने के दोष से मुक्त हो जाए।

एन्टीबायोटिक्स दवाओं में काम आने वाली फफूँदों में रहने वाली उपयोगी अमिनो-अम्ल ‘लाइसिन’ की मात्रा पहले बहुत कम रहती थी, पर अब उसमें प्रायः एक हजार गुनी तक वृद्धि कर ली गई है, इसलिए दवाओं की आवश्यकतापूर्ति अपेक्षाकृत सरल हो गई है। बैक्टीरिया की जातियों में सुधारने में भी सफलता मिली है। कृत्रिम क्लोरेला पौधा भविष्य में पौष्टिक खाद्य-समस्या का हल करने में जल्दी ही महत्त्वपूर्ण योगदान देने लगेगा। फल, शाक, घास, अनाज, फूल तथा वनस्पतियों में ऐसे सुधार हुए हैं, जिनसे उनकी उपयोगिता में कई गुनी वृद्धि हो सके। जानवरों की दूध देने की तथा श्रम करने की शक्ति बढ़ रही है, साथ ही उनके शरीर घटाए जा रहे हैं, ताकि कम स्थान में उनके निवास तथा कम खुराक में इनके गुजारे की समस्या हल हो सके।

इन परीक्षणों में सफलता प्राप्त करते हुए आनुवंशिकी वैज्ञानिक अब इस प्रयास में हैं कि मनुष्य जाति को अब की अपेक्षा भविष्य में अधिक परिष्कृत बनाया जाए, रोगों और विषों की जो अवांछनीय मात्रा वर्त्तमान पीढ़ी के मनुष्यों में प्रविष्ट हो गई है और पग-पग पर स्वास्थ्य संकट उत्पन्न करती रहती है; उसका परिशोधन हो सकना सैद्धांतिक रूप से संभव मान लिया गया है। वे प्रयोग जल्दी ही कार्यान्वित होंगे, जिनके आधार पर निरोग और सर्वांग-सुंदर मानव पीढ़ी को विकसित किया जा सके। इन्हीं प्रयोगों में अधिक विकृत वर्ग का वंध्याकरण भी सम्मिलित है, ताकि विभीषिकाओं से इसी बीच छुटकारा पा लिया जाए।

इतना ही नहीं, मस्तिष्क की प्रखरता और स्वभाव की शालीनता भी गुणसूत्रों में आवश्यक हेर-फेर के आधार पर संभव हो सकेगी। तब अपराधी तत्त्वों से निपटने में खरच होने वाली शक्ति को सृजनात्मक कार्यों में लगाने के लिए लगाया जा सकेगा और कर्त्तव्यपालन तथा शिष्टाचार निर्वाह के लिए धर्मोपदेश करने की भी कोई आवश्यकता न रहेगी, क्योंकि वे तत्त्व जन्मजात रूप से सबको प्राप्त होंगे और उनका आचरण बिना प्रयास स्वसंचालित रीति से होता रहेगा।

पशुओं में से आजकल जो निरर्थक और हानिकारक बने हुए हैं, उन्हें इस प्रकार बदला जा सकेगा, जिससे वे स्वयं सुखपूर्वक रह सकें और मनुष्य भी उनसे लाभ उठा सकें। जीव-जंतुओं में विचारशीलता तो निश्चित रूप से बढ़ सकेगी और वे अनपढ़ न रहकर अपेक्षाकृत अधिक अनुशासित, सामाजिक और शांति प्रकृति के बनकर संसार को सुव्यवस्थित बनाने में सहायता कर सकेंगे।

आनुवंशिकी विज्ञानवेत्ता जो कुछ अंवेषण एवं सुधार-परिवर्तन का प्रयत्न कर रहे हैं, उसका आधार मात्र भौतिक विज्ञान के सिद्धांतों एवं उपकरणों तक ही सीमित है, जबकि वह मर्मस्थल उससे कहीं अधिक गहरा है। गुणसूत्रों की प्रकृति बदलने के लिए चेतनाशक्ति का प्रयोग ही अंततः सफल होगा, क्योंकि भौतिक विज्ञान अधिक-से-अधिक गुणसूत्रों का कलेवर बदल सकता है, उसकी मूल प्रकृति में हेर-फेर करने की सफलता उसे कभी कदाचित ही मिल सकेगी।

प्राचीनकाल में व्यक्ति का व्यक्तित्व बदलने और पीढ़ियों को परिष्कृत बनाने में अध्यात्म विद्या का, आत्मशक्ति का प्रयोग-उपयोग किया जाता रहा है।

भविष्य में इस महती आवश्यकता की पूर्ति चैतन्य आत्मिक क्षमता द्वारा ही की जा सकेगी। इसके लिए ऐसे महामानवों का निर्माण किया जाना चाहिए, जो अपनी प्रचंड आत्मिक ऊर्जा को विकसित करने में सफलता प्राप्त करके अपने साथ-साथ समस्त मानव जाति की ठोस प्रगति के लिए आवश्यक आनुवंशिकी परिवर्तन कर सकने में सफल-समर्थ हो सकें।

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