अपनों से अपनी बात— प्राण-प्रत्यावर्त्तन का उद्देश्य एवं स्वरुप

February 1973

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जन्म देकर ही जननी निवृत्त नहीं हो जाती, वरन उन उत्तरदायित्वों को भी निभाती है जो शिशु-शावकों के प्रति उसके कंधो पर सहज ही आ जाते हैं। मानव जननी भ्रूणकलल को उदर में नौ मास रखकर अपने ही रस-रक्त से सींचती है। पिता द्वारा विनिसृत एक शुक्राणु पर लगभग तीन सेर का कलेवर माता के शरीर में से निकलकर चढ़ता है। माता अपने सर्वश्रेष्ठ सारतत्त्व से इस कलल का सिंचन, अभिवर्द्धन, परिपोषण करती है। न केवल शरीरगत रासायनिक द्रव; वरन चेतनात्मक गुण-कर्म-स्वभाव की, ज्ञान तथा भावना की वह पूँजी भी उदरस्थ शिशु को अनुदान में मिलती है, जो उसने चिरकालीन चिर-प्रयत्नों से संचित की होती है। माता का यह अनुदान यदि न मिले तो पिता का प्रजनन-प्रयास सर्वथा निष्फल ही रहेगा।

 जन्म देकर ही मानव माता निवृत्त नहीं हो जाती; वरन स्वरूप कुछ बदल जाने पर भी उत्तरदायित्व प्रकारांतर से यथावत् बना रहता है। गर्भस्थ भ्रूण को वह नालतंतु के माध्यम से रसरक्त पहुँचाती थी, अब वह प्रक्रिया स्तनपान द्वारा चलती है। लालवर्ण रक्त का ही समानांतर प्रतिनिधि दूध होता है। माता की छाती से निकलने वाले रक्त में मातृसत्ता का प्रायः समग्र प्रतिनिधित्व सन्निहित रहता है। जननी के शरीर में जो रसायनिक संपदा है और चेतना में जो ज्ञान-गरिमा है, उसका सारतत्त्व माता अपने वक्षस्थल से निसृत दुग्ध माध्यम से बालक को पिलाकर सींचती है। यह अनुदान नवजात शिशु को तब तक अनवरत रूप से मिलता रहता है, जब तक की उसका पाचनतंत्र अन्य खाद्यसामग्री ग्रहण करने और पचाने में समर्थ नहीं हो जाता।

यह सूक्ष्म-प्रकिया की बात हुई, स्थूल-प्रक्रिया भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। लालन-पालन, भरण-पोषण से संबंधित अगणित एवं विविध-विधि क्रियाकलाप उसे निरंतर पूरे करते रहने पड़ते हैं। उसकी ममता और सतर्कता ही अबोध शिशु को जीवित रहने और सुव्यवस्थित रीति से विकसित होने का अवसर देती है। स्पष्ट है कि स्नेह, सुरक्षा और सुव्यवस्था का समुचित प्रबंध न हो तो बालक के लिए निरोगी एवं दीर्घजीवी रह सकना प्रायः अशक्य ही बन सकता है। मानव शिशु जन्मजात रूप से स्वावलंबी नहीं होता, उसे पग-पग पर माता की सहायता विशेष रूप से और पिता आदि अभिभावकों की साधारण रीति से निरंतर अपेक्षित होती है।

अध्यात्म जगत में यही भूमिका अपने शिष्य के प्रति गुरु को निबाहनी पड़ती है। पौधा भले ही भूमि से, बीज से,  खाद-पानी से जन्मता-पलता हो; पर माली की भूमिका उसके जीवन-विकास में कम नहीं होती। शीत-आतप से बचाने, समयानुसार खाद-पानी के साधन जुटाने, पशुओं द्वारा उदरस्थ कर लिए जाने से बचाने, काट-छाँटकर सुंदर, शोभायमान बनाने में माली की भूमिका इतनी महत्त्वपूर्ण होती है कि उसके बिना अतिकठोर स्तर के पेड़-पौधे ही स्वावलंबी हो सकते हैं। काट-छाँट के बिना वे भी जंगली स्तर के ही रहेंगे। क्रमबद्ध शोभा-सौरभ तो उनमें कदाचित ही रह पाए। व्यक्तित्व को समग्र रूप से विकसित और व्यवस्थित बनाने में गुरु की भूमिका कुशल माली जैसी ही होती है। प्राचीनकाल में भारत का हर नागरिक देवोपम जीवन जीता था। यहाँ का हर नागरिक भूदेव कहलाता था। भारतभूमि तैंतीस कोटि देवताओं की, देव नागरिकों की— स्वर्गादपि गरीयसी क्रीड़ास्थली थी। इसका अधिकांश श्रेय उन गुरुजनों को था, जो छात्रों को अपने आश्रमों, गुरुकुलों के दिव्य वातावरण में रखकर उन्हें सुशिक्षित ही नहीं, सुसंस्कृत भी बनाते थे।

यह सब भौतिक शरीर का, भौतिक जीवन का क्रियाकलाप हुआ। व्यक्ति की अध्यात्म सत्ता एवं महत्ता का अपना अद्भुत क्षेत्र है। उसमें भी माता की और गुरु की भूमिका का निर्वाह तत्त्वदर्शी गुरु को करना पड़ता है। एकाकी जीवधारी जीवन-लक्ष्य तक पहुँचने का साहस क्वचित-कदाचित ही कर पाते हैं। साधारणतया उन्हें वैसा ही सहयोग अपेक्षित होता है, जैसा नर शिशुओं को माता का एवं बहुमूल्य वृक्षपादपों को कुशल माली का।

प्राचीनकाल में गुरु की गरिमा अत्यधिक उच्चस्तर की थी, उसे ‘गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुरेव महेश्वर। गुरुरेव परब्रह्म........ ’ के पद पर श्रद्धापूर्वक आसीन किया जाता था और गुरु गोविंद की तुलना करने वाले भावनाशील श्रद्धालु,  गुरुगौरव को प्राथमिकता देते थे। इसका आधार भी है और कारण भी। नर-कीटक को, नर-पशु को— नारायण एवं पुरुषोत्तम स्थिति तक पहुँचा देने का योजनाबद्ध प्रयास करने वाली, अणु को विभुसंज्ञा प्रदान करने वाली, आत्मा को परमात्मा के सदृश बना सकने वाली कलाकार— मानवी कल्पना को जिस भी सम्मान से सम्मानित किया जाए कम है। गुरु ऐसा ही कलाकार है जो तप-साधना की अतिकष्टसाध्य-प्रक्रिया अपनाकर अपने को ऐसी प्रचंड अग्नि के रूप में विकसित करता है, जिसके संपर्क में आने वाला सहज ही तत्सम बन जाए। इसके लिए उसे आत्मनिग्रह की, आत्मसंवर्द्धन की अग्निपरीक्षा में होकर जन्म- जन्मांतर तक आत्मशोधन करना पड़ता है। तब कहीं वह इस स्थिति में बनता है कि अपनी बहुमूल्य संचित संपदा परम निस्वार्थ भाव से अधिकारी शिष्य को प्रदान करके उसे अपनी समकक्षता का गौरव उपलब्ध करा सके। परमार्थ का यह चरमबिंदु है।

गुरुवर्ग के कई स्तर हैं। शिशु का संरक्षण-शिक्षण करने वाले अभिभावक गुरुजन हैं। अक्षरज्ञान देने वाले अध्यापक भी गुरु ही कहे जाते हैं। उपनयन प्रभृति संस्कार कराने वाले पुरोहित भी मंत्रदीक्षा गुरु हैं। विभिन्न कला-कौशल सिखाने वाले कलागुरु कहलाते हैं। शिक्षार्थी को अनेकों विषय पढ़ाने पड़ते हैं और मनुष्य पग-पग पर अनेक माध्यमों से ज्ञान एवं अनुभव संचय करता रहता है। इन सजीव एवं निर्जीव पिंड-घटकों को भी गुरुसंज्ञा मिलती है। भगवान दत्तात्रेय ने चौबीस गुरु बनाए थे। इनमें चील, कौआ, कुत्ता, मकड़ी प्रभृति निम्नस्तरीय जीव-जंतु भी सम्मिलित थे। जिससे कुछ सीखा जाए वह गुरु, जो सीखे वह शिष्य। यह मोटी परिभाषा सर्वत्र प्रचलित है। इस आधार पर हर व्यक्ति के ज्ञात-अविज्ञात, पूजित-अपूजित अनेकों गुरु होते हैं। इस लेख में चर्चा उपरोक्त स्तर के गुरुजनों की नहीं हो रही, क्योंकि वे एक छोटी सीमा तक ही किसी को कुछ सिखा सकने में समर्थ होते हैं। उनका बुद्धिकौशल जिस स्तर का है, वे उतना ही मार्गदर्शन कर सकते हैं। मार्गदर्शन करना भर उनका उत्तरदायित्व है, वे इस कर्त्तव्य से बँधे नहीं हैं कि उनके छात्र समुचित प्रगति कर ही सकें। इसकी कोई अतिरिक्त क्षमता भी उनमें नहीं होती। मेधावी छात्र अपनी कुशलता से जितना सीख सकें और अपने पुरुषार्थ से जितना बढ़ सकें, उतनी ही सफलता उनके हाथ रहती है। सीखने और सिखाने की प्रक्रिया इसी परिधि तक सीमित रहती और समाप्त होती है। इससे अधिक की आशा न कोई गुरु अपने शिष्य से करता है और न किसी शिष्य को उससे अधिक अपेक्षा उस भौतिक गुरु से रहती है।

यहाँ चर्चा उपरोक्त स्तर के गुरुवर्ग की नहीं हो रही, वरन उनका विवेचन किया जा रहा है जो कीट और भृंग का उदाहरण प्रस्तुत कर सकने में समर्थ हैं। जलती अग्नि में जो वस्तु डाली जाती है, वह जल्दी या देर में उसी के सदृश अग्निरूप हो जाती है। यही परम गुरु का कौशल अनुदान है। इसी को अग्निदीक्षा कहते हैं। इसके लिए आत्मबलसंपन्न गुरु चाहिए, साथ ही शिष्य के लिए आत्मोत्सर्ग का माता जैसा प्रबल वात्सल्य भी होना चाहिए। विद्वत्तामात्र से यह कार्य नहीं हो सकता, इसके लिए प्रचंड तप-साधना द्वारा उपार्जित आत्मबल-संपदा की प्रचुर पूँजी का, प्रचुर संग्रह आवश्यक है।

युग परिवर्तन की इस पर्ववेला में अभीष्ट प्रयोजनों की पूर्ति के लिए ऐसी आत्मबलसंपन्न विभूतियों की आवश्यकता पड़ेगी जो भौतिक साधनों से नहीं, अपने आत्मबल से जनमानस के विपन्न प्रवाह को उलट सकने का साहस कर सकें। यह कार्य न तो व्यायामशालाएँ-पाठशालाएँ पूरा कर सकती हैं और न शस्त्रसज्जा से— अर्थसाधनों से पूरा हो सकता है। इसके लिए ऐसे अग्रगामी लोकनायकों की आवश्यकता पड़ेगी जो मनस्वी और तपस्वी बनने में अपना गर्व-गौरव अनुभव करें और जिनकी महत्त्वाकांक्षाएँ भौतिक बड़प्पन से हटकर आत्मिक महत्ता पर केंद्रीभूत हो सकें। भौतिक लाभों के लिए लालायित, लोभ-मोह के बंधनों में आबद्ध व्यक्ति इस स्तर के लाभ से लाभांवित कदाचित ही हो सकें।

मनुष्य में देवत्व के उदय एवं धरती पर स्वर्ग के अवतरण की यह पुण्यबेला है। इसमें महामानवों को महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाहनी पड़ेगी। वे ही अग्रगामी बनेंगे और असंख्यों को अपने पीछे अनुगमन की प्रेरणा देंगे। इतिहास के आकाश में ऐसे ही महामानव उज्ज्वल नक्षत्रों की तरह अनंतकाल तक चमकते हैं। इन्हीं का निर्माण इन दिनों अभीष्ट है। महाकाल ने उन्हीं का आह्वान किया है,  युग की आत्मा ने उन्हीं को पुकारा है। ऐसी सत्ताएँ इस समय भी मौजूद हैं। दुर्भाग्य ने उन पर मलीनता का आवरण आच्छादित कर दिया है। अंधकार में वे अपना कर्त्तव्य देख-समझ नहीं पा रहे हैं और साहसिकता के अभाव में, उस दिशा में कदम बढ़ा नहीं पा रहे हैं, जिसके लिए उनमें समुचित पात्रता पहले से ही मौजूद है।

शान्तिकुञ्ज में इन्हीं दिनों आरंभ होने वाली प्राण-प्रत्यावर्त्तन शृंखला का यही प्रयोजन है। इसे भूतकालीन उस ऋषि-प्रक्रिया की पुनरावृत्ति कहा जा सकता है, जिसमें आत्मसंपदा से सुसंपन्न पुरोहित अपने शिष्य-यजमानों को क्रमबद्ध प्रक्रिया के अनुसार ऊँचा उठाते और आगे बढ़ाते थे। शरीर को जन्म देने वाली माता जिस प्रकार अपना उत्कृष्ट जीवन-रस निचोड़कर नगण्य से भ्रूणकलल को एक समर्थ मानव बनाती है, ठीक उसी प्रकार का उत्तरदायित्व व्यक्ति की आत्मिक प्रगति में समर्थ गुरुजन वहन करते हैं। माता का सहज वात्सल्य इस प्रकार का अनुदान देने के लिए उसे बाध्य करता है। नारीसुलभ प्रजनन सामर्थ्य जब परिपक्व हो जाती है तो प्रकृति उसे इसके लिए उकसाती है। कामेच्छा इसी प्रकृति-प्रेरणा का नाम है। तपस्वियों में भी एक समय ऐसी ही शुभेच्छा उत्पन्न होती है, वे भी एक समय प्रौढ़ता-परिपक्वता की स्थिति में होते हैं और उन दिनों उनकी मस्ती देखते ही बनती है। ऋतंभरा प्रज्ञा और तप-तेजस् की प्रखरता वैयक्तिक कलेवरों को तोड़-फोड़कर असीम में अपना उपार्जन उत्सर्ग करने के लिए लालायित हो उठती है। शान्तिकुञ्ज में चल रहे प्राण-प्रत्यावर्त्तन-प्रवास के पीछे गुरुदेव की ऐसी ही अंतःस्थिति को आँका जाना चाहिए। उनकी इन दिनों की योग्यता एवं परिपक्वता को देखते हुए उनके मार्गदर्शक ने प्राण-प्रत्यावर्त्तन के लिए सामयिक निर्देश उचित ही दिया है।

गुरुदेव अपनी उपार्जित शक्ति का महत्त्वपूर्ण अंश इन एक हजार आत्मीयजनों में विनिसृत करेंगे। साथ ही इस बीजारोपण से उत्पन्न अंकुर को भविष्य में भी सोचने-सँभालने का प्रयत्न करेंगे। माता के गर्भ में बालक कुछ समय रहता है, प्रत्यावर्त्तन की अवधि उसी प्रकार की है। गर्भस्थ शिशु को माता से जिस स्तर का अनुदान मिलता है, उससे हलका नहीं; वरन कुछ भारी ही यहाँ भी मिलेगा।

प्रसव के उपरांत माता नवजात शिशु के प्रति अपने कर्त्तव्य का अंत नहीं मान लेती; वरन उसके द्वारा उत्पन्न की गई मलीनता और अव्यवस्था को धोती-सँभालती रहती है। साथ ही उसके परिष्कार-परिपोषण के साधन जुटाती रहती है। प्रत्यावर्त्तन-प्रक्रिया के माध्यम से विनिर्मित शिशुओं का भी गुरुदेव आजीवन इसी प्रकार का ध्यान रखेंगे, उनके प्रति अपना कर्त्तव्यपालन करेंगे। यह कहने की आवश्यकता नहीं है।

 इतना महान अनुदान प्राप्त करने वाले हजार बड़भागियों को हर दृष्टि से सौभाग्यशाली ही माना जाएगा। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि जिन्हें इस स्तर की वस्तु मिले, उनके ऊपर भी कुछ कर्त्तव्य, उत्तरदावित्व आते हैं। पात्रता विकसित करने के लिए उन्हें भी कुछ साहस करना पड़ता है। गुरुदेव ने स्वयं इसी प्रकार का मूल्य चुकाया है। जिन्हें उच्चस्तरीय आलोक मिलेगा, वे स्वयं ही देवोपम रीति-नीति अपनाने में आकुलता अनुभव करेंगे। पशु जीवन जी सकना उनके लिए संभव ही नहीं रहेगा।

कहने की आवश्यकता नहीं कि पात्रता के अनुरूप न्यूनाधिक अनुदान भी इन सत्रों में सम्मिलित होने वाले को मिलेगा। प्रभु-प्रयोजनों के लिए जो जितना आत्मसमर्पण कर सकेगा, वह उसी स्तर की ज्योति से भी अपने को आलोकित अनुभव करेगा।

प्राण-प्रत्यावर्त्तन की सत्र-शृंखला इन्हीं दिनों शान्तिकुञ्ज में आरंभ हो रही है। एक समय में 20-25 से अधिक व्यक्ति नहीं बुलाए जा सकते। बैटरी की शक्ति के अनुसार ही बल्ब जलते हैं। एक समय में इससे अधिक व्यक्तियों को कुछ महत्त्वपूर्ण अनुदान नहीं दिया जा सकता। कुल मिलाकर पाँच वर्षों में एक हजार सुसंस्कारी आत्माओं का परिपोषण करने का निश्चय किया गया है। बिहार हजारीबाग के हजारी किसान की बात पिछले अंको में छपती रही है। गुरुदेव भी इतने ही आम्रवृक्षों का, कल्पवृक्षों का उद्यान लगाकर अपना कर्त्तव्य पूरा करने वाले हैं। इसके लिए उपयुक्त पात्रता का ध्यान रखा जाएगा।

प्राण-प्रत्यावर्त्तन सत्रों के लिए कइयों ने आवेदन किए हैं, कई बुलाहट की प्रतीक्षा में हैं। इन दोनों ही वर्गों में से गुरुदेव यह देख रहे हैं कि वे कौन हैं, जो आत्मबल का अनुदान उसी प्रयोजन के लिए चाहते हैं, जिसके लिए कि वह अनादिकाल से मिलता रहा है। ऋषियों को ईश्वर का अजस्र अनुदान प्राप्त हुआ, वे परम सिद्धपुरुष थे। अपने अनुग्रह से उन्होंने अगणित प्राणियों का कल्याण किया; पर अपने लिए कुछ नहीं माँगा। आत्मपरिष्कार, आत्मसंतोष ही क्या कम है जो निरर्थक भौतिक जाल-जंजाल के लिए इससे आगे भी तृष्णा संजोए रखी जाए। संत अपरिग्रही होते हैं, अपने लिए निर्वाह के स्वल्प साधन ही उन्हें पर्याप्त प्रतीत होते हैं। न अहंता की लिप्सा उन्हें व्याकुल करती है, न लोभ से— वासना-तृष्णा से उनका अंतःकरण विक्षुब्ध रहता है। ऐसे शांत, संतुष्ट, विवेकवान और दूरदर्शी अंतरात्मा पर ही परमात्मा की प्रचंड धारा अवतीर्ण होती है। स्वर्ग में गंगा का अवतरण शिवजी की जटाओं में हुआ था, हमारी अंतःस्थिति शिवजी की जटाओं जैसी पवित्र और निर्मल होनी चाहिए।

उदाहरण स्पष्ट है। गुरुदेव ने भौतिक कामनाएँ  छोड़ी और महानता पर अपने को उत्सर्ग किया। यही वह प्रथम चरण था, जिससे मुग्ध होकर उनके मार्गदर्शक दौड़ते हुए चले आए और अपना आंतरिक रसतत्त्व उन्हें गोवत्स की तरह निचोड़कर पिला दिया। यही राजमार्ग उन लोगों के लिए खुला पड़ा है जो कुछ महत्त्वपूर्ण विभूतियाँ— उलब्धियाँ चाहते हैं। महान व्यक्ति वैभवरहित नहीं होते। सिद्धियाँ विभूतियों की छायामात्र होती हैं। महामानव अपने लिए वैभव का उपभोग नहीं करते, यह उनकी महानता एवं उदारता है। इसका अर्थ यह नहीं कि वे निर्धन, निर्बल या निस्तेज रहते हैं। वे स्वार्थ से मुँह मोड़कर परमार्थ की ओर कदम बढ़ाते हैं, वैभव उनके पीछे-पीछे दौड़ता है। छाया की ओर मुँह करके दौड़ने वालों से प्रकाश पीछे छूटता जाता है और छाया भी हाथ नहीं आती, किंतु जब प्रकाश की ओर कदम बढ़ाए जाते हैं तो छाया अनायास ही अनुगामिनी बन जाती है। परमार्थपरायण, श्रेयानुगामी अपनी तप-साधना त्याग, बलिदान से आरंभ करते हैं; किंतु पाते इतना अधिक हैं कि स्वयं धन्य बनते हैं और अपने युग के इतिहास को चिरस्मरणीय— अभिनंदनीय बनाते हैं।

घोषित किया जा चुका है कि प्रत्यावर्त्तन की प्रक्रिया कुल मिलाकर 6 दिन की रहेगी। प्रथम दिन आगंतुकों के परिचय का है। इसी दिन वे अपनी भौतिक और आत्मिक समस्याओं का विवरण प्रस्तुत कर देंगे। साथ ही वर्त्तमान जीवन के सभी पापकर्मों को भी बता देंगे। यह पहला दिन है। इस आधार पर उन्हें परिष्कृत जीवन की दिशा में अग्रसर होने का परामर्श एवं सहयोग दिया जा सकेगा। इसके बाद दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवा — यह पाँच दिन विशुद्ध प्राण-प्रत्यावर्त्तन के हैं। इनमें साधकों को अधिकांश समय मौन, एकांत सेवन, ढीला शरीर और खाली मन रहना होगा। शौच-स्नान जैसे अनिवार्य कार्यों के अतिरिक्त अन्य कार्यों एवं चिंताओं से सर्वथा मुक्त रहा जाएगा। भोजन यथासमय उपलब्ध होता रहेगा। ध्यान और चिंतन की एक विशेष शैली नियत— निर्धारित है, जो उसी समय बताई जाएगी। मुख्यतः शरीर और मन की स्थिरता और शांति को स्थिर रखने पर ही ध्यान दिया जाएगा। एक से दूसरे में शक्ति का हस्तांतरण होते समय ऐसी स्थिरता आवश्यक है। रक्तदान के समय, इंजेक्शन लगने के क्षणों में, ऑपरेशन की घड़ियों में रोगी को हिलने-डुलने नहीं दिया जाता, उसे निश्चल रहना पड़ता है। उथल-पुथल करने से तो सारा प्रयत्न ही गड़बड़ा जाता है। इन चार दिनों में साधक मन:स्थिति को स्थिर कैसे रखे, इसी एक प्रयास में उसे तत्पर कैसे रहना है; यह बता— सिखा दिया जाता है।

कहा जा चुका है कि प्रत्यावर्त्तन में जादू, चमत्कार आदि का कौतूहल जैसा कुछ प्रत्यक्ष अनुभव शरीर को या इंद्रियों को नहीं होना है। यह प्रकरण विशुद्ध आध्यात्मिक है, अस्तु अंतःकरण यह निरंतर अनुभव करेगा कि उस पर रखे हुए मल आवरण और विक्षेप के भार हलके हो रहे हैं। स्वच्छता और निर्मलता का, प्रकाश और प्रसन्नता का समावेश हो रहा है, यह धुलाई-प्रकरण की अनुभूति है। इन्हीं दिनों रंगाई भी चलेगी। इस संदर्भ में लगेगा कि अपने भीतर कुछ नया भरा जा रहा है। गर्भवती को तुरंत अनुभव होता है कि वह भारी हो चली, उस पर भार लद गया। अपनी निजी सत्ता में किसी अतिरिक्त सत्ता का समावेश हो चला। एकाकीपन की समाप्ति और युग्म की अनुभूति विवाह संस्कार के साथ जुड़ी रहती है। प्राण-प्रत्यावर्त्तन के दिनों में भी ऐसा ही लगता है कि जीवन से कोई अतिरिक्त सत्ता जुड़ और गठ गई है। एकाकीपन का स्थान युग्म-संवेदना ने ले लिया है। यह रंगाई है। रंगाई और धुलाई की अनुभूतियाँ इन चार दिनों में ज्वार-भाटे की तरह अंतःकरण के गहन स्तल में उथल-पुथल करती रहेंगी। यद्यपि शरीर और मन को यथासंभव अधिक-से-अधिक शांत और स्थिर रखने का प्रयास बराबर किया और कराया जाता रहेगा। हलचलों का केंद्र गहनतम अंतराल ही रहेगा। इसके लिए ये आवश्यक भी हैं। शरीर और मन को ऊपरी सतह की उथल-पुथल से बचाने के लिए पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता रहे।

एक घंटे के सामूहिक शिक्षण और कुछ समय व्यक्तिगत संपर्क का क्रम चलेगा। प्रत्यक्ष संपर्क इतना ही होगा, यों परोक्ष संपर्क गुरुदेव इन पूरे दिनों ही बनाए रहेंगे। बैटरी चार्ज करने की घड़ियों में बिजली की धारा का लगातार संचरण रहता है, वह क्रम यहाँ भी चलेगा। चार दिन इसी क्रम से व्यतीत होंगे।

छटा दिन उन लोगों की सुविधा के लिए है जो समीपवर्त्ती तीर्थस्थान देखने के इच्छुक हैं। ऋषिकेश, लक्ष्मणझूला, हरिद्वार, कनखल यह चारों ही स्थान एक दिन में आसानी से देखे जा सकते हैं। इसके बाद सभी को शान्तिकुञ्ज छोड़ देना चाहिए, अधिक ठहरने के लिए आग्रह नहीं करना चाहिए। स्थानसंबंधी व्यवस्था उतनी ही है कि प्रत्यावर्त्तन के दिनों में निर्धारित संख्या में ही ठहरना संभव हो सके। अधिक दिन ठहरने का आग्रह करना प्रकारांतर से उन लोगों के लिए कठिनाई उत्पन्न करना है, जो उनकी ही तरह कुछ प्राप्त करने के लिए कष्ट सहकर और खरच करके आए हैं।

अपने साथ स्त्री-बच्चों को लेकर नहीं आना चाहिए, न साथी-संगियों का जोर-जुगाड़ मिलाकर चलना चाहिए। इससे मूल प्रयोजन ही नष्ट हो जाएगा। कथा-वार्त्ता, तीर्थयात्रा, सत्संग समारोह जैसा यहाँ कुछ नहीं है, जिसमें अन्य लोगों को रस मिले। वे बैठे-ठाले यहाँ के निर्धारित व्यवस्था में गड़बड़ी पैदा करेंगे और वह उद्देश्य पूरा न हो सकेगा, जिसके लिए इस अत्यंत उच्चस्तरीय साधन-व्यवस्था का क्रम बनाया गया है। तीर्थयात्रा के लिए साथी-सहचरों के साथ आना हो तो अन्यत्र ठहरना चाहिए और निर्धारित समय पर दर्शन-परामर्श करके चले जाना चाहिए। इसी प्रकार किन्हीं भौतिक प्रयोजनों की बात मन में हो तो प्रत्यावर्त्तन के दिनों अधिक समीपता, घनिष्ठता का लाभ उठाकर अपना प्रयोजन सिद्ध करने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। भौतिक सहायता भी हम लोग करते रहे हैं और करते रहेंगे। उनके लिए स्पष्ट रूप से कहना चाहिए। प्रत्यावर्त्तन के उच्चस्तर को भौतिक महानता प्राप्ति के छोटे लाभों के साथ जोड़कर इसका महत्त्व और मूल्य नष्ट नहीं करना चाहिए।

इन 6 दिनों में धुलाई की ओर विशेष ध्यान दिया जाएगा। मैले कपड़ों पर रंग नहीं चढ़ता। टट्टी में सने बच्चे को गोदी में कोई नहीं उठाता। भगवान की शरण में जाने से पूर्व मनुष्य को स्वच्छ बनना पड़ता है। पापपंक में लिपटा हुआ मन किस प्रकार अब तक की मलीनताओं के भार से छुटकारा पाए और भविष्य में निर्मल बने रहने के लिए क्या रीति-नीति अपनाए, इसके लिए आवश्यक स्थिर विवेक और प्रखर साहस इन्हीं दिनों उत्पन्न किया जाएगा, ताकि आत्मबल का अभिवर्द्धन भविष्य में बिना किसी अवरोध के होता रहे और जीवन-लक्ष्य तक इसी जन्म में पहुँचा जा सके।

ऐसी महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राण-प्रत्यावर्त्तन की हैं। जिनने सचमुच ही आत्मिक प्रगति का महत्त्व और स्वरूप समझ लिया हो और उसी दिशा में चलना हो, जिसमें गुरुदेव स्वयं चले हैं तथा अपने परम प्रिय स्वजनों को चलाना चाहते हों, उन्हें अपने आवेदनों पर पुनर्विचार करना चाहिए। आगत आवेदनों पर विचार किया जा रहा है और इस पाँच वर्ष की अवधि में किसको, कब बुलाया जाना है, इसका निर्धारण किया जा रहा है। जिन्होंने इस अनुदान को हलकी दृष्टि से देखा हो, कोई कौतुक-कौतुहल माना हो अथवा भौतिक लाभ प्राप्त करने का चोर दरवाजा समझा हो, उन्हें स्वयमेव ही अपने नाम वापिस ले लेने चाहिए और जिन्होंने संकोचवश अपने नाम नहीं दिए हैं, किंतु अपने अंतःकरण में अभीष्ट लक्ष्य की दिशा में चलने की आकुलता अनुभव करते हैं, वे निःसंकोच अपने नाम भेज दें। यों बिना लिखे भी कुछ बलात् घसीटकर बुलाया जाएगा; पर अच्छा और उचित यही है कि अधिकारी पात्र अपने नाम शान्तिकुञ्ज — सप्तसरोवर हरिद्वार के पते पर पत्र द्वारा नाम नोट करा दें और धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करें कि इन पाँच वर्षों में यथाक्रम जब उनका नाम आवेगा, तब समयानुसार उपस्थित होंगे। स्थान सीमित और संख्या अधिक होने से क्रमानुसार ही आने-बुलाने का सिलसिला चलेगा, इसलिए न तो किसी को उतावला, न निराश होना चाहिए, जिन्हें जितनी देर लगे उतने समय तक अपनी पात्रता बढ़ाने के लिए आत्मशोधन और लोक-मंगल की साधना अधिक तत्परतापूर्वक बढ़ाएँ। इसी अनुदान पर तो अनुदान का उच्चस्तरीय लाभ उठाया जाना संभव हो सकता है।

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