आत्मविभूतियों की उपलब्धि का आधार

February 1973

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भौतिक पदार्थों के माध्यम से मिलने वाला इंद्रिय सुख, अहंकार की तृप्ति करने वाला गौरव, शरीर का बल-आरोग्य, बुद्धि एवं प्रतिभा की शिक्षा-प्रखरता; यह सब सांसारिक विभूतियाँ कहलाती हैं। शरीर और मन के सम्मिश्रण से बना हुआ कायकलेवर इन्हीं की इच्छा-आकांक्षा करता रहता है। वे जिसे, जितनी मात्रा में मिल जाती हैं, वह अपने को उतना ही सफल मानता है।

आत्मचेतना जब अपना वास्तविक स्वरूप और लक्ष्य भूलकर कायकलेवर में रम जाती है तो इसकी इच्छाएँ और चेष्टाएँ भी उसी परिधि में घूमती रहती हैं। शरीराभ्यास ही जिसकी आत्म अनुभूति बन गया है, वह आगे की बात सोचे भी कैसे? प्रगति सदा उसी क्षेत्र में होती है, जिसमें इच्छाशक्ति और क्रियाशक्ति नियोजित रहती हैं। यह दोनों ज्ञानशक्ति की चेरी हैं। जब ज्ञान-भूमिका में यह बात जम जाए कि इस इंद्रियसमूह और जीवधारीमात्र हैं, तो वह भ्रांत मान्यता-मज्ञान के रूप में अंतःकरण पर छाई रहेगी। सोचने और करने की परिधि इतने ही दायरे में सीमित रहेगी जिसे माया, तृष्णा, वासना एवं क्षुद्र महता कहते हैं। आमतौर से नरतनधारी भी इसी निकृष्ट अंतःचेतना में जकड़े रहते हैं। फलस्वरूप उनका जीवनक्रम पेट, प्रजनन और अहंता की परितृप्ति में ही संलग्न रहता है। मानव जन्म का बहुमूल्य अवसर उसी जंजाल में गुम जाता है, समय निकल जाने पर अनंतकाल तक पश्चात्ताप करते रहने के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं रहता।

मानव जीवन की यह दयनीय दुर्दशा है। ईश्वर-अनुदान का यह निर्मम उपहास है। जो मनुष्य जन्म अपने लिए स्वर्गमुक्ति जैसी देव उपलब्धियों का कारण बन सकता था, जिसके प्रकाश से असंख्य दिग्भ्रांतो को दिशा मिल सकती थी। वह पशु-प्रयोजनों की क्षुद्र प्रवृत्तियों में विनष्ट हो जाए तो उसे कभी पूरी न हो सकने वाली क्षति ही कहा जाएगा। नर-पशु जैसी प्रवृत्तियों में उलझे रहना मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी दुर्घटना है। बुद्धिमान कहे जाने वाले मानव की यह विद्रूप मूर्खता है। न जाने कितनी आशाओं के साथ नर-कलेवर का अनुदान भगवान ने दिया है। इसे पूरी तरह भुलाकर निकृष्टता का आँचल पकड़ लिया जाए और कुत्साओं, कुंठाओं में अपने आपको बाँध लिया जाए तो इस रीति-नीति को दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है।

अध्यात्म दर्शन का सारा ढाँचा इस एक प्रयोजन के लिए खड़ा किया गया है कि मनुष्य अपने स्वरूप और लक्ष्य को समझे और उस राह पर चले जो भगवान ने उसके लिए विशेष रूप से विनिर्मित की है। इस सृष्टि को सुंदर, सुव्यवस्थित और समुन्नत बनाने में अपने सहायक की तरह भगवान ने मनुष्य को बनाया है, उसे प्रचुर सुख-साधन दिए हैं और आवश्यकताएँ न्यूनतम रखी हैं, ताकि वह सुविधापूर्वक निर्धारित प्रयोजन पूरा करता रह सके; पर इस दुर्भाग्य को क्या कहा जाए कि लोभ और मोह जैसे मनोगत विदूषक उसे बहकाकर कहीं से कहीं ले जाते हैं और कुछ का कुछ बना देते हैं। अध्यात्म दर्शक का सृजन इसीलिए हुआ है कि वह मनुष्य को पथ भ्रष्टता अपनाने से उत्पन्न विभीषिकाओं के संबंध में निरंतर सजगता उत्पन्न करता रहे।

मन:शोधन की, आत्मबोध की प्रक्रिया पूरी करने के लिए ही स्वाध्याय सत्संग जैसी धर्म-धारणाएँ विनिमित हुई हैं। उपासना, साधना, तपश्चर्या के विविध विधि-विधानों से लेकर धर्मानुष्ठानों के अगणित कर्मकांडों तक के सारे क्रिया-कृत्य इसलिए हैं कि उनके माध्यम से भौतिकतापरायण पशु-प्रवृत्तियों को आत्मवादी आस्थाओं में परिणत किया जा सके। मनीषी और तत्त्वदर्शी इस रहस्य का समय-समय पर उद्घाटन करते रहे हैं। उपनिषदों की ब्रह्मविद्या इसी मर्म चर्चा से भरी पड़ी है। देवाराधन के विधान प्रकारांतर से अपने ही श्रद्धातत्त्व के विकास की भाव विज्ञान समर्थित पद्धति है। देवता वस्तुतः मनुष्य  का अपना अस्तित्व ही है। उसका जो जितना परिकार कर लेता है, उसे उसी स्तर का देव-अनुग्रह उपलब्ध होता रहता है। प्रखर आत्मबल का ही दूसरा नाम देव-वरदान है। साधनाओं की समग्र-संहिता आत्मबल संपादन के लिए है। आत्मविज्ञान के विद्यार्थी को यह जानना ही चाहिए कि ईश्वरीय विभूतियों और सिद्धियों के लिए किसी अनुनय-विनय से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। उसके लिए पात्रता का विकास ही एकमात्र उपाय है।

जितनी मात्रा में हम ईश्वर के चरणों में अपने को समर्पित करते हैं, उतनी ही मात्रा में ईश्वर हमारे चरणों में लोटता दिखाई पड़ता है। आत्मिक प्रगति की सफलता में एकमात्र बाधा यही है कि हम ईश्वर के सामने याचक बनकर उपस्थित होते हैं। अपने भौतिक सुखों में अधिक वृद्धि करने के लिए दांत निपोरते हैं, ईश्वर इस कृपणता और कृतघ्नता पर खीजता है। वह देने के स्थान पर यह पूछता है जो दिया गया था, उसका कितना सदुपयोग हुआ? यदि पिछले अनुदान दुरुपयोग के गर्त्त में पटक दिए गए तो आगे और अधिक किस बिरते पर माँगने की जुर्रत की जा रही है? ईश्वर माँगता है कि जो दिया गया, उसे निर्धारित लक्ष्य के लिए प्रयुक्त करो। तथाकथित भक्त माँगता है, मुझे और अधिक सुविधा तो प्रदान करो; पर यह न पूछो कि उन्हें किस कार्य में लगाया जाएगा। विग्रह यहाँ से शुरू होता है। भक्त भगवान से और भगवान भक्त से इसी विग्रहबिंदु पर बेतरह टकराते हैं और एकदूसरे की शिकायत अधिक-से-अधिक कटुशब्दों में करते रहते हैं। यह स्थिति जब तक बनी रहेगी, तब तक ईश्वरीय अनुग्रह की आशा, दुराशामात्र ही बनी रहेगी। आत्मबल को ही दूसरे शब्दों में ईश्वरीय अनुग्रह कहा जा सकता है। पात्रता ही समस्त सिद्धियों की जननी  है। यह तथ्य जिनने समझ लिया, उनके लिए यह भी अविदित न रहेगा कि आध्यात्मिक तेजस्विता एवं प्रखरता प्राप्त करने के लिए क्या करना चाहिए। आत्मा और परमात्मा को परासर जोड़ने वाला गोंद केवल उत्कृष्ट भावना स्तर ही है। जो उसे जितनी मात्रा में विकसित कर लेगा, वह उतना ही ईश्वर के निकट पहुँचेगा और उसकी विभूतियों का उत्तराधिकार उपलब्ध करेगा।

शरीर के माध्यम से होने वाली साधनाएँ शरीर का शोधन करती हैं । जप-तप, व्रत-उपवास, प्रायश्चित, हवन, तीर्थयात्रा, नेति-धोति,वस्ति-वज्रोली जैसी साधनाओं का प्रयोजन शरीर को आत्मकल्याण की दिशा में रुचि लेने के लिए सधाना है। स्वाध्याय-सत्संग, मनन-चिंतन, ध्यान-धारणा का फल, मन को जीवन का स्वरूप और लक्ष्य समझाने के लिए, इच्छा-आकांक्षाओं को आत्मकल्याण के लिए, कुछ सोचने-करने के लिए, उत्साहित एवं अभ्यस्त करने का प्रयोजन पूरा करती है। साधनों का अंतिम चरण आस्था को, श्रद्धा को, भावना को, आकांक्षा को देवदृष्टि के साथ जोड़ देता है।

उपासना का सार है— सर्वसंपन्न ईश्वर को अपना घनिष्टतम जीवन सहचर अनुभव किया जाना और अपने शरीर, मन तथा अंतःकरण को ईश्वर-अर्पण करके उस पर दिव्यसत्ता का अधिकार स्वीकार करना। जो इस स्तर की उपासना का अभ्यासी होगा, वह मस्तिष्क पर  नियंत्रण रखेगा और ध्यान रखेगा कि जब कभी जो कुछ भी सोचा जाए, वह ईश्वर स्तर का हो, जो किया जाए उसमें ईश्वरीय गौरव-गरिमा की झाँकी मिलती हो। आत्मबोध का तात्पर्य ही यह है कि अपने 'अहं' का सच्चिदाऽनंद आत्मा के रूप में हर घड़ी अनुभव किया जाए और शरीर तथा मन को परिधान, कलेवर, उपकरण, वाहनमात्र माना जाए। शरीरगत लोभ और मोह से जुड़े हुए दृष्टिकोण को अज्ञानांधकार माना जाए और उससे छूटने का प्रयास किया जाए। जो अपने को आत्मा मानेगा, वह स्वभावतः शरीरगत लोभ और मनोगत मोह की अपेक्षा आत्मा का हितसाधन करने वाली उत्कृष्टता और आदर्शवादिता को प्राथमिकता देगा। जिसने कायकलेवर के साथ पक्षपात करते रहने की, मोह-प्रवृत्ति को निरस्त करने और आत्मा के साथ न्याय करने का निश्चय किया होगा। उसे कम-से-कम इतना विवेक विभाजन तो करना ही पड़ेगा कि जीवन की उपलब्धियों में से आधी शरीर सुविधा के लिए और आधी आत्मकल्याण के लिए नियोजित रहे। बुद्धि, श्रम, समय, धन, वैभव से लेकर महत्त्वाकांक्षाओं तक में यह आधे-आधे का बँटवारा होना चाहिए। जितना मस्तिष्क भौतिक स्वार्थ-साधन में जुटे कम-से-कम आधा चिंतनकाल आत्मकल्याण की योजना बनाने में भी खरच होना चाहिए। कमाई का आधा अंश शरीर को, आधा आत्मा के लिए खरच किया जाए। समय और श्रम को भी इसी प्रकार विभक्त किया जाए और अंतरंग में जितनी आकांक्षाएँ लौकिक सुख के लिए उठती हैं, कम-से-कम उतनी ही आत्मकल्याण के लिए उठनी चाहिए। पारमार्थिक भावनाओं का वेग स्वार्थ-साधन से किसी भी प्रकार कम नहीं होना चाहिए। जो उतना साहस कर सके समझना चाहिए कि उसे आत्मवादी देवपक्ष में खड़ा होने का अवसर मिल गया।

आत्मा और परमात्मा का समन्वय इसी पृष्ठभूमि पर संभव होता है। आत्मबल का संग्रह और ईश्वर-अनुग्रह का अनुभव इससे कम मूल्य पर कभी, किसी को नहीं हो सका है। वासना और तृष्णा की सड़ी हुई कीचड़ में आकंठ डूबे हुए नर-कीटक तो ईश्वर का स्वरूप तक समझने में असमर्थ रहते हैं, फिर भला उसे प्राप्त तो कर ही कैसे सकेंगे?

जिन्हें आत्मकल्याण, ईश्वर-अनुग्रह, ब्रह्मतेजस्, जीवन लक्ष्य जैसे महान प्रयोजनों का सचमुच ध्यान हो और उन्हें प्राप्त करने की वस्तुतः आकांक्षा हो, उन्हें अपने दृष्टिकोण और क्रियाकलाप में आमूलचूल परिवर्तन करना चाहिए। कायकलेवर से ऊँचे उठकर आत्मानुभूति के क्षेत्र में प्रवेश करना चाहिए। इंद्रिय सुखों के लिए, तृष्णा और लिप्सा के लिए, जीने से इनकार करना चाहिए। लोभ और मोह, पेट और प्रजनन ही कहीं जीवनोद्देश्य तो नहीं बने हुए हैं, इनका विश्लेषण करना चाहिए। पूजा-अर्चा की सार्थकता तभी है, जब उनका प्रभाव चिंतन में उत्कृष्टता और कर्तृत्व में आदर्शवादिता के समावेश जैसा दिखाई पड़े। इस कसौटी पर आत्मवादी को अपनी अंतरंग स्थिति की निरंतर परख करते रहना चाहिए।

स्मरण रखा जाए, उपासना का अर्थ याचना नहीं है। भूलना नहीं चाहिए कि जो कुछ आत्मिक विभूतियाँ  मिलने वाली हैं, उनका उद्गम अपना ही अंतरंग है। भीतर की महानता ही बाहर सिद्धियों, समृद्धियों और विभूतियों के रूप में पल्लवित होती है। स्वर्ग और मुक्ति से लेकर देव-अनुग्रह के विविध अनुदान-वरदान केवल अपनी पात्रता के ही प्रतिफल हैं। आत्मचिंतन, आत्मशोधन, आत्मनिर्माण और आत्मविकास के उपक्रम ही तप-साधना के, उपासना-अर्चा के मूल मर्म हैं। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के अमर फल आत्मदेवरूप कल्पवृक्ष को सींचने-संजोने से ही प्राप्त किए जा सकते हैं। जिसने ब्रह्मविद्या के इस मर्म को समझ लिया, उसी के हाथ आत्मिक विभूतियाँ लगने की आशा की जानी चाहिए।

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