शरीर और मन की भौतिक लालसाओं एवं सुखाकांक्षाओं को विरत करके, आत्मकल्याण के मार्ग में नियोजित करने का नाम ही तप है। चिरसंचित अभ्यास, शरीर-सुविधा एवं मन की लिप्सा तृप्त करने में निरत रहने का है, वही प्रिय लगता है। उसी में प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति का परिवर्तन ही तप है।
जिस प्रकार भोगवाद— मायाग्रस्त मनुष्य तृष्णा और वासना में निरत रहकर श्रेय-साधना की उपेक्षा करते रहते हैं, उसी तरह आत्मकल्याण के लिए कटिबद्ध होने की श्रेयसाधक प्रधानता देते हैं और सुख-सुविधाओं की उपेक्षा करते हैं। इसके लिए पुराने ढर्रे को बदलना पड़ता है और नया अपनाना पड़ता है। जंगली जानवरों को पालतू बनाने में बहुत श्रम करना पड़ता है। उनकी पुरानी आदतें भुलानी पड़ती हैं और नए अभ्यास कराने होते हैं। इस प्रशिक्षण के साथ, उनके साथ कठोरता का व्यवहार भी करना पड़ता है। इसी कठोरता का नाम तप-साधना है।
भोगवादी मनःस्थिति में जो कार्य प्रिय लगते थे, वे आत्मवादी स्थिति में अरुचिकर बन जाते हैं और उन क्रियाकलापों में रस आता है, जो पहले कष्टकारक और निरर्थक प्रतीत होते थे। यह परिवर्तन कहने में सरल हो सकता है; किंतु व्यवहार में कठिन है। इस कठिनाई को स्वाभाविक और सरल बनाने के लिए विविध-विधि तप-साधनाएँ करनी पड़ती हैं।
शरीर से तप-तितीक्षा और मन से स्वाध्याय, चिंतन-मनन इन दोनों के समन्वय से तप का प्रयोजन पूरा होता है। इसलिए स्वाध्याय को भी तप का अंग माना गया है।
परमार्थ के लिए सेवा-साधना में जुट जाना और अपनी प्रतिभा, बुद्धि, संपदा आदि को लोक-मंगल के लिए नियोजित करना भी तप-साधना है। इसी तप-साधना से अंतरात्मा निर्मल और शक्तिशाली होती है। उसी के द्वारा आत्मकल्याण, ब्रह्मसाक्षात्कार एवं जीवन लक्ष्य की प्राप्ति होती है। शास्त्र कहता है—
तपसा तापयेद्देहं पितृदेवांश्च तर्पयेत्।
तपसा स्वर्गमाप्नोति तपसा विंदते महत् ।। 11.21.10 ।।
क्षत्रियो बाहुर्वीर्येण तरेदापद आत्मनः।
धनेन वैश्यः शूद्रस्तु जपहोमैर्द्विजोत्तमः।। 11.21.11 ।।
अतएव तु विप्रेन्द्र तपः कुर्यात्प्रयत्नतः।
शरीरशोषणं प्राहुस्तापसास्तप उत्तमम् ।। 11.21.12 ।।
शोधयेद्विधिमार्गेण कृच्छ्रचान्द्रायणादिभिः।
— देवी भागवत (पुरश्चरण प्र०)
तपस्या से देह को तपावें। तपस्या से ही स्वर्ग मिलता है। तपस्या से महान प्रयोजन की पूर्ति होती है। तपस्वी के द्वारा की हुई पूजा से ही देवता और पितरों की तृप्ति होती है।
क्षत्रिय लोकहित के लिए किए गए पराक्रम से, वैश्यधन से, शूद्रसेवा से और ब्राह्मण जप-होम की सहायता से भी तपश्चर्या कर सकते हैं।
तपस्या के लिए निरंतर प्रत्यशील होना चाहिए। शरीर की तितीक्षा कराने से ही तपस्या होती है। उसके लिए अन्नशुद्धि और चांद्रायण कृच्छ आदि विधान करने चाहिए।
तपस्यध्ययने युक्तो भवेद्भूतानुकम्पकः।
तपसा स्वर्गमाप्नोति तपसा विंदते महत् ॥30॥
तपोयुक्तस्य सिद्ध्यन्ति कर्माणि नियतात्मनः।
— देवी भागवत
स्वाध्यायपूर्वक तपश्चर्या करें। लोक-मंगल का ध्यान रखें। तपस्या में निरत, स्थिर बुद्धि व्यक्ति के समस्त सत्कर्म सफल होते हैं।
यथा रथोऽश्वहीनस्तु यथाश्वो रथहीनकः ।
एवं तपश्च विद्या च संयुतं भैषजं भवेत् ।।
उभाभ्यामपि पक्षाभ्यां यथा खे पक्षिणां गतिः।
यथैव ज्ञानकर्मभ्यां प्राप्यते ब्रह्म शाश्वतम् ।।
विद्यातपोभ्यां सम्पन्नौ ब्राह्मणो योगतत्परः ।।
— हारीतस्मृति
जैसे बिना घोड़े का रथ और बिना रथ का घोड़ा निरर्थक है। उसी प्रकार तप और विद्या की संगति है। जैसे दो पंखों से ही पक्षी उड़ते हैं, उसी तरह ज्ञान और कर्म द्वारा ब्रह्म को प्राप्त किया जाता है। विद्या और तप के साथ योग-साधना में तत्पर होने की ही सार्थकता है।
अस्मिँल्लोके तपस्तप्तं फलमन्यत्र भुज्यते ।
ब्राह्मणानामिमे लोका वृद्धे तपसि संयताः ।।
— महाभारत
इस लोक में जो तपस्या की जाती है, उसका फल परलोक में भोगा जाता है। इस प्रकार एक ही तपस्या ऋद्ध और समृद्ध के भेद से दो प्रकार की है।
तप इति तपोनित्यः पौरुशिष्टि । स्वाध्यायप्रवचने एवेति नाको मौद्गल्यः। तद्धि तपस्तद्धि तपः।
— शिक्षावल्ली तैत्तरीय 9
पौरशिष्ठ तपोनित्य ऋषि का कथन है कि, “तप ही श्रेष्ठ है।” मौदगल्य नामक ऋषि ने कहा—“स्वाध्याय ही सर्वश्रेष्ठ है। स्वाथ्याय और तप एक ही है।”
यः सर्वज्ञः सर्वविद्यस्य ज्ञानमयं तपः ।
— मुण्डक 1-9
जो सर्वज्ञ सर्ववित् है, उस ब्रह्म का तप ज्ञानमय है।
नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात् तपसो वाप्यलिङ्गात् ।
एतैरुपाययैर्यतते यस्तु विद्वां स्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम ।।
— मुण्डक 3/2/4
वह आत्मा निर्बलों को प्राप्त नहीं होती है। प्रमादियों को भी नहीं। तपरहितों को भी नहीं। केवल ज्ञानवान और साधनरत ही उसे प्राप्त करते हैं।
एतेनैव जिता लोकास्तपसा नारदादिभिः ।
शाकमन्ये परे मूलम् फलमन्ये पयः परे ।।78।।
घृतमन्ये परे सोममपरे चरुवृत्तयः ।
ऋषयः पक्षमश्नन्ति केचिद्भक्ष्याशिनोऽहनि ।।79।।
हविष्यमपरेऽश्नन्त: कुर्वन्त्येव परं तपः ।
अथ शुद्ध्यै रहस्यानां त्रिसहस्त्रं जपेद्विजः ।।80।।
— देवी भागवत
इसी प्रकार के तप से नारद आदि ने लोक जीत लिए। इनमें से कुछ ने मूल-फल और कुछ ने केवल दूध का ही आहार किया। कुछ घृत पीकर ही रहते थे, कुछ ने केवल सोमपान और कुछ ने चरुभक्षण ही किया था। कुछ ने प्रति पखवारे एक बार ही भोजन किया और कुछ नित्यप्रति भिक्षान्न का भोजन करते थे। बहुतों ने हविष्यान्न का ही भोजन किया था। इस प्रकार बहुतों ने घोर तप किया था। पापों के शोधनार्थ तीन सहस्र गायत्री का जप करना चाहिए।
कृशानुं जुह्वति श्रद्दधाना:।
सत्यव्रता हुतशिष्टाशिनश्च ।।
गवां लोकं प्राप्यते पुण्यगन्धं।
पश्यन्ति देवं परमं चापि सत्यम् ।।
— महा० वन०
जो तप से कृश हो, सत्यव्रत का पालन करते हुए प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक हवन करते हैं और हवन से बचे हुए अन्न का भोजन करते हैं, वे पवित्र सुगंध से भरे हुए गौओं के लोक में जाते हैं और वहाँ परमसत्य परमात्मा का दर्शन करते हैं।
अप्यभ्यक्तः। अलंकृतः सुहितः सुखे शयने शयानः। स्वाध्यायमधीत आ हैव स नखाग्रेभ्यस्तप्यते।
— श० प० 11/5/7/4
भले ही मनुष्य वस्त्र, आभूषण, अलंकर, सुख-शैय्या, सुस्वादु भोजन आदि से अलंकृत हो, पर यदि वह स्वाध्याय-निरत है तो उसे नख-शिख तक तप संलग्न ही समझना चाहिए।
तपश्च दानं च शमो दमश्च ह्रीरार्जवं सर्वभूतानुकम्पा ।
स्वर्गस्य लोकस्य वदन्ति सन्तो द्वाराणि सप्तैव महान्ति पुसांम् ।।
सर्वाणि चैतानि यथोदितानि तपःप्रधानान्य भिमर्शकेन ।
— मत्स्यपुराण
ययाति ने कहा— “तप, दान, शम, दम, लज्जा, आर्जव और समस्त प्राणियों पर दया— ये सात ही पुरुषों के महान द्वार हैं, जिनको स्वर्गलोक के भी संतलोग कहा करते हैं। ये सब जो भी उदित किए गए हैं, वे तपः प्रधान ही होते हैं अर्थात इन सभी में तपश्चर्या की ही प्रमुखता हुआ करती है।
तप के लिए वृद्धावस्था की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। शिथिल शरीर तो अपने आप में भार हो जाता है, उस समय कुछ बन पड़ता। इसके लिए उपयुक्त समय तो युवावस्था ही है। भगवान कृष्ण कहते हैं—
त्वया साधु समारम्भि नवे वयसि यत्तपः।
ह्रियन्ते विषयैः प्रायो वर्षीयांसोऽपि मादृशाः।।
— किरातार्जुनीयम् 11/10
हे अर्जुन! युवावस्था में ही तपश्चर्या प्रारंभ करना उचित है। बुढ़ापे में तो मुझ जैसे ब्राह्मण को भी विषयों की माया सताती है।
तप के द्वारा जिसने अपने आत्मकल्याण का प्रयोजन पूरा किया है, वही दूसरों के उद्धार में समर्थ होता है। ऐसे महामानवों का संपर्क, सान्निध्य, अनुग्रह जिन्हें प्राप्त होता है, वे भी धन्य हो जाते हैं।
संसारेऽस्मिन्मनुष्याणां भ्रमतामतिसङ्कटे ।
भवद्विधैः समं सङ्गो जायते न तपस्विनाम् ।। 45.5 ।।
यद्यहं सङ्गमासाद्य भवद्भिर्ज्ञानदृष्टिभिः ।
न स्यां कृतार्थस्तन्नूनं न मेऽन्यत्र कृतार्थता ।। 45.6 ।।
प्रवृत्ते च निवृत्ते च भवतां ज्ञानकर्म्मणि ।
— मार्कण्डेय पुराण
इस विपत्तिभरे विश्व में जीव ऐसे ही भ्रमग्रस्त भ्रमण करता रहता है। उनके भाग्य में ज्ञानवान तपस्वियों का संपर्क कहाँ है।
हे तपस्वी! आप जैसे ज्ञानवान तपस्वी को पाकर भी यदि मेरा कल्याण न हुआ तो अन्यत्र कहीं हो भी नहीं सकता।