(कहानी)

February 1973

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अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, बेबीलोनिया, फारिस आदि जीतता हुआ सिकंदर भारत पर चढ़ दौड़ा। एक के बाद दूसरे देश पर उसकी विशाल सेना इस तरह विजय प्राप्त करती चली जा रही थी, मानो वह विश्वविजय करके ही रहेगी। भारत के जिस बेश पर दूसरे दिन चढ़ाई होने वाली थी, उसकी सारी तैयारी एक दिन पहले ही कर ली गई थी।

राजा को भी यथासमय उसका पता लग गया। सो उसने हारने और मरने से पूर्व एक बार सिकंदर से मिलने की योजना बनाई और कूच आरंभ होने से पहले ही वह वहाँ जा पहुँचा। उसने अपने को राजदूत बताया और मिलने की इच्छा प्रकट की।

सिकंदर ने इसमें कुछ अनुचित न समझा कि राजदूत से भेंट की जाए। वह आया और यही कहा— “राजा आपसे संधि करने को तैयार हैं। वे केवल इतना ही चाहते हैं कि आप उनका आतिथ्य स्वीकार करें और अपने मुख्य आमात्यों समेत भोजन वहाँ ही करें।”

पहले तो यह आशंका हुई कि घर लेजाकर कोई धोखा न किया जाए; पर उस राजा के धार्मिक विचार सर्वत्र प्रख्यात थे, सो सिकंदर ने निमंत्रण स्वीकार कर लिया और सुरक्षा-व्यवस्था के साथ मुख्य आमात्यों सहित राजमहल में जा पहुँचा। भोजनशाला सुसज्जित बनाकर रखी गई थी। सिकंदर आया और उसे ससम्मान यथास्थान बिठा दिया गया।

भोजन का जो थाल परोसा गया, उसमें सोने-चाँदी के सिक्के और हीरे, मोती, जवाहरात भरे थे। सिकंदर ने आश्चर्य से पूछा— “इनसे पेट कैसे भरेगा?”

राजा ने कहा— “ठीक है, पेट तो अन्न से ही भरता है; पर आपकी भूख तो कुछ और ही है। जिसके लिए आप व्याकुल हैं, उसी को परोसना मैंने उचित समझा। इसी के लिए तो आप इतने देशों पर आक्रमण करते और रक्त बहाते हुए यहाँ तक चले आए हैं।

राजा ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा— “यदि रोटी से ही पेट भर सका होता तो वह आपके देश मैसिडोनिया में ही क्या कम थी।”

सिकंदर को अपनी स्थिति पर बड़ी ग्लानि हुई और वह वापिस लौट गया।

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