आशा, आस्था और आत्मीयता के तीन महासत्य

February 1973

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इस दुनिया में तीन बड़े सत्य हैं — (1) आशा (2) आस्था और (3) आत्मीयता। जिसने सच्चे मन से इन तीनों को जितनी मात्रा में हृदयंगम किया, समझना चाहिए कि सफल जीवन का आधार उसे उतनी ही मात्रा में उपलब्ध हो गया।

उज्जवल भविष्य की आशा हमें नहीं ही छोड़नी चाहिए। यदि मनोरथ आदर्शों पर आधारित है तो उसकी पूर्ति में संदेह नहीं ही करना चाहिए। रात्रि होती है, सच है; पर क्या यह सच नहीं कि उसके बाद दिन का उदय होना भी सुनिश्चित है। बीज बोया जाता है, तब लगता है कि उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया, पर जिन्हें आशामयी दृष्टि प्राप्त है, वे अपनी हर दृष्टि से देखते हैं कि इस गलने में भी सुविकसित और उज्जवल भविष्य की संभावना विद्यमान है। बीज को मोटी दृष्टि से ही गला हुआ कहा जाएगा, वस्तुत: यह विशाल वृक्ष में उसकी कष्टकर परिणतिमात्र है। आज की अभावग्रस्त या कष्टकर स्थिति को स्थायी नहीं माना जाना चाहिए और यह विश्वास रखा जाना चाहिए कि जब तक इस धरती पर अरुणोदय की प्रक्रिया निरंतर दुहराई जाती रहेगी, तब तक यह संभावना भी बनी ही रहेगी कि आज असुखद स्थिति में पड़ा हुआ व्यक्ति कल ऊँचे उठने की, आगे बढ़ने की संभावनाएँ अपने में सँजोए ही रहेगा। उपयुक्त अवसर आने पर वह आज की विपन्नताओं को परास्त करके कल की संभावनाओं का अधिकारी बनेगा। आज की असफलता के अंधकार को वेधकर, जिसकी दृष्टि कल की ज्योर्तिमयी सफलताओं की दिव्य किरणें झाँकती देख सकती हैं, वस्तुतः वही सच्चा आस्तिक है।

आस्था का अर्थ है— विश्वास। अपने पर विश्वास, अपने उज्ज्वल भविष्य पर विश्वास, आदर्शों पर विश्वास और आदर्शों के सत्परिणाम पर यही विश्वास; चतुर्विधि आस्थाएँ हैं, जिन्हें अपनाकर मनुष्य आँधी-तूफानों के बीच अपने स्थान पर स्थिर रह सकता है। आस्थाविहीन व्यक्ति ही तिनके की तरह इधर-उधर उड़ते-फिरते हैं। आकर्षणों और प्रलोभनों के उतार-चढ़ाव उन्हें ही विचलित करते हैं; पर जिनने आदर्शों की आस्थाओं के साथ अपने को बाँध लिया, उत्कृष्टता की चट्टान पर अपना आसन जमा लिया, वे अपने स्थान पर रावण की सभा में जमे हुए अंगद के पैर की तरह मजबूती के साथ गढ़े-अड़े रहते हैं, उन्हें उखाड़ने-पछाड़ने की क्षमता किसी में भी नहीं होती।

आत्मीयता का सत्य ऐसा है, जिसके प्रकाश में केवल आनंद की ही अनुभूति होती है। इस संसार में एक ही वस्तु प्रिय है— ‘अपनापन’। इसे जो जितना व्यापक— विस्तृत बना लेता है, वह अपने आनंद की परिधि को उतना ही विस्तृत बना लेता है। आत्मविकास का चिह्न यही है कि हम अपने आपको विशाल क्षेत्र में विकसित हुआ देखें। जड़-चेतन को अपनी ही आत्मा का स्वरूप समझें और हर किसी में अपनी सत्ता को प्रतिभाषित अनुभव करें। जब दूसरों के दुःख अपने दुःख बन जाएँ और अपने सुख को दूसरों में बाँटने की आतुरता उभरने लगे, तो समझना चाहिए कि आत्मज्ञान ने अपनी जड़ें मजबूत कर लीं। आत्मविकास उसी का समझा जाना चाहिए जो अपने शरीर, मन और परिवार की सीमित संकीर्णता से आगे बढ़कर, विश्व परिवार के प्रति अपने कर्त्तव्य एवं दायित्व का अनुभव करता है। ऐसे व्यक्ति में ही ईश्वर की ज्योति अवतरित होती है। आत्मवान व्यक्ति ही प्रकारांतर से इस संसार में भगवान की भूमिका संपादित करते हैं।

हम आशावान बनें। आस्था को सुदृढ़ रखें। आत्मीयता का अधिकाधिक विस्तार करें। इन तीन महासत्यों को अधिकाधिक मात्रा में अपनाने के अपने प्रयास इतने प्रखर बनाएँ कि आत्मा का स्तर परमात्मा जैसा ही बने, निखरे।

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