काम को समय पर, जल्दी, उत्साहपूर्वक, मनोयोग के साथ करना चाहिए। दीर्घसूत्रता अपनाकर अनावश्यक समय भी नष्ट नहीं किया जाना चाहिए; पर साथ ही ऐसी हड़बड़ी और उतावली भी नहीं बरतनी चाहिए कि जल्दी प्राप्त करने के लालच में उलटी हानि उठानी पड़े।
महत्त्वपूर्ण कार्यों में तत्परता की तरह ही संजीदगी और धैर्य की भी आवश्यकता पड़ती है। जिस कार्य में, जितना समय आवश्यक है, उतना तो लगना ही चाहिए। उससे अनुभव और अभ्यास बढ़ता रहता है और निर्धारित कार्य को अधिक सुंदरता और सरलता के साथ कर सकना संभव होता है। अनभ्यस्त स्थिति में एकदम छलाँग लगाने की उतावली उपयोगी सिद्ध नहीं होती। उत्साह के साथ विवेक और लगन के साथ धैर्य भी आवश्यक है।
समुद्र में जो मछलियाँ बहुत गहरे पानी में पैदा होती और बढ़ती हैं, उनके लिए समुद्र की ऊपरी सतह पर एकदम पहुँच जाने का प्रयत्न करना घातक सिद्ध होता है। वे अपने अभ्यास को बढ़ाती हुई क्रमशः ऊपर की सतह पर आने का प्रयत्न करें और बदलती हुई दबाव की स्थिति के अनुरूप शरीर की सहनशक्ति को बढ़ाती चलें, तो ही उनका ऊपर चढ़ने का क्रम ठीक पड़ता है; अन्यथा एकदम ऊपर चढ़ दौड़ने वाली मछली समुद्र की सतह पर आते-आते फट जाती है। तल और सतह में जो अंतर है, उसकी असमानता अनभ्यस्त स्थिति में ऐसा ही दुष्परिणाम पैदा करती है।
समुद्र में बहुत नीचे तक गोता लगाने वाले गोताखोर अक्सर ऊपर चढ़ने में अति उतावली करते हैं। फलतः उन्हें 'वेण्डस' नामक रोग हो जाता है। वह या तो उन्हें अपंग कर देता है या मार डालता है।
डॉ. वर्ट ने गोताखोरों के 'वेण्डस' रोग पर अनुसंधान करते हुए पाया कि यह जलीय दबाव के उतावलीपूर्ण अतिक्रमण का परिणाम है। जल का दबाव उनके रक्त में नाइट्रोजन भरे रखता है; पर जब वे ऊपर आती हैं तो वह नाइट्रोजन तेजी से बाहर निकलता है। यह झटका ही उपरोक्त बीमारी का कारण बनता है। डॉक्टर हाल्डन ने भी इसी मत की पुष्टि की और गोताखोरों को सलाह दी कि जलीय दबाव को ध्यान में रखते हुए अपनी चाल धीमी कर दें, ताकि परिवर्तित परिस्थितियों को सहन करने में शरीर अपने को तत्पर करने का अवसर प्राप्त करता चले।
मनोयोग और श्रम की महत्ता बहुत है, पर साथ-ही-साथ धैर्य की उचित मात्रा भी रहनी चाहिए।
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