एक सज्जनता अपनाएँ, सहृदय बनें

February 1973

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प्रेम अंतःकरण का अमृत है। जिनकी भावनाएँ स्नेहसिक्त होती हैं, वे उन अनुभूतियों से आनंदित रहते हैं और दूसरों पर उसके छींटे छिड़ककर उन्हें उल्लास प्रदान करते है। प्रेम एक चुंबक है, जिससे सहवर्गी तत्त्व अनायास ही खिचते चले जाते हैं। यदि प्रेम-भावना के साथ आदर्शवादिता भी जुड़ी हुई हो तो अपना संपर्क-क्षेत्र श्रेष्ठ व्यक्तित्वों, श्रेष्ठ तत्त्वों के साथ सघन होता चला जाएगा। बुरी प्रकृति के, किंतु प्रेमी स्वभाव के लोग, बुरी चांडाल-चौकड़ी के सरगना बने हुए देखे जाते हैं, यहीं बात अच्छी प्रकृति पर भी लागू होती है, मधुरता और ममता के साथ यदि सज्जनता भी जुड़ी हुई हो तो फिर निश्चय ही अपने को देवसमाज के सम्मानित सदस्य के रूप में पाया जाएगा।

दर्पण में अपनी ही छाया दिखाई पड़ती है। कुरूप छाया दृष्टिगोचर हो तो दर्पण पर क्रुद्ध होना बेकार है। अपनी मुखाकृति जैसी होगी, वैसी ही सूरत सामने खड़ी होगी। दूसरों को सुधारने से पहले हमें अपने में आवश्यक हेर-फेर करना होगा, अन्यथा मनमर्जी की दुनिया देखने के सपने कभी साकार न हो सकेंगे। अक्सर होता यह है कि अपने दुर्गुणों की प्रतिक्रिया ही अवांछनीय परिस्थितियों के रूप में इर्द-गिर्द घूमती रहती है। यदि अपने में आवश्यक सुधार कर लिया जाए तो दूसरों में भी उस परिवर्तन का आभास सहज ही होने लगेगा।

रूखे, नीरस और स्वार्थी व्यक्ति दूसरों से सघन सत्कार एवं गहरा सहयोग प्राप्त नहीं कर सकते। अपनी असलियत यदि खोटों से भरी है तो वह दूसरों को भी उदासीन-असहयोग एवं उपेक्षा-अवज्ञा करने वाला बना देगी। सच्चाई और आत्मीयता की विशेषताएँ जिनमें भरी रहती हैं, आमतौर से उन्हें दूसरों की शिकायतें कम ही करनी पड़ती हैं। सच तो यह है कि जिन्हें दूसरे लोग अनुपयुक्त मानते हैं, वे भी उनके साथ अनुकूलता और सद्भावना का परिचय देते देखे जाते हैं।

आलसी और अस्त-व्यस्त लड़के ही प्रश्न पत्र कड़ा होने से लेकर, शिक्षा अथवा शिक्षकों को दोष देते हैं; जबकि उन्हीं परिस्थितियों में दूसरे परिश्रमी और मनोयोग से पढ़ने वाले अच्छी श्रेणी में उत्तीर्ण होते हैं। कठिनाइयों से अवरोध तो होता है, पर इतना नहीं कि प्रबल-पुरुषार्थ से उनका समाधान न हो सके। जिंदगी में कटुता एवं विषमता के अवसर कम नहीं होते, पर उन सबसे बड़ा संकट यह है कि कदम-कदम पर अमंगल की आशंका से ग्रसित रहा जाए। हीनता, निराशा, भीरुता और अशुभ की कल्पनाएँ मनुष्य का स्वत्व निचोड़ लेती है, वह आंतरिक दृष्टि से खोखला एवं कुरूप बन जाता है। ऐसी मनःस्थिति को देखकर समीप आई हुई सफलता उलटे कदम वापिस लौट जाती है।

व्यक्तित्व का वजन बढ़ाने में बहुमूल्य साधनों का भी महत्त्व हो सकता है, पर निश्चित रूप से वह उन पर अवलंबित नहीं है। जिसके पास अमीरी प्रदर्शित करने वाला ठाठ-बाट है, लोग सहज ही उसके बड़प्पन को आँकते हैं, पर दूसरा पक्ष यह भी है कि उच्चस्तरीय व्यक्तित्व को अभावग्रस्त स्थिति में भी पूजा जाता है। संतो और मनीषियों की यही परंपरा रही है। संपत्ति-साधनों से रहित होते हुए भी उनके सद्गुणों को समझा गया और उन्हें श्रद्धा के साथ नमन किया गया। अमीरी का ठाठ-बाट आरंभिक प्रभाव छोड़ता है, उसके चका-चौंध में हतप्रभ होकर लोग सोचते हैं, जिसके पास इतनी दौलत है कि वह लापरवाही के साथ खरच कर सके, वह जरुर ही कोई भाग्यवान होना चाहिए, पर असलियत खुलते देर नहीं लगती। दुर्गुणी व्यक्ति इतनी उलझनों से उलझा होता है कि निकट आने पर गरीब मनुष्य भी अपनी तुलना में उसे कहीं अधिक दुर्भाग्यग्रस्त पाता है। गुणों की गरिमा चिरस्थाई है, पर उसकी अनुभूति देर में और गहरा संपर्क बनने पर ही होती है। इतना होते हुए भी उससे उत्पन्न श्रद्धा प्रतिक्रिया चिरस्थाई होती है और गहरी भी। इसके विपरीत चेहरे को चमक, वाचालता एवं अमीरी के ठाठ-बाट के कारण आरंभ में ही तत्काल उत्पन्न होने वाला प्रभाव कुछ ही देर में तिरोहित होने लगता है और उसका अंत होते देर नहीं लगती। व्यक्तित्व की गरिमा और जीवन स्तर की महिमा बढ़ाने के लिए सद्गुणों की संपदा संचय करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं।

जीवनक्रम में प्रामाणिकता का समावेश ‘सादा जीवन उच्चविचार’ का आदर्श अपनाने से ही हो सकता है। सादगी शालीनता की निशानी है। उद्धत वेश बनाकर या भड़कीला ठाठ-वाट जमाकर दूसरों पर अपनी छाप छोड़ने या धाक जमाने की बालचेष्टा में कितने ही व्यक्ति बहुत धन और समय खरच करते हैं और तरह-तरह को विडंबनाएँ आए दिन रचते हैं। ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि सामान्य मनुष्य के भीतर भी एक ऐसी विशेषता रहती है, जिसके आधार पर उसे वस्तुस्थिति समझने में देर नहीं लगती। जिस प्रकार शारीरिक रुग्णना को कीमती पोशाक के भीतर भी छिपाया नहीं जा सकता, उसी प्रकार ठाठ-वाट का झीना आवरण भीतरी दुर्बलताओं को छिपाने में सफल नहीं होता। दंभ के आधार पर बड़ा आदमी बनने के प्रयास जब प्रकट होते हैं तो उनकी दुर्गंध से घृणा ही उत्पन्न होती है और दंभी व्यक्ति को बड़त्पन प्राप्त होना तो दूर, उस प्रामाणिकता से भी वंचित होना पड़ता है, जो सामान्य लोगों को भी सहज-स्वाभाविक रूप से उपलब्ध रहती है।

जितना समय, धन और मस्तिष्क बड़प्पन का ढोंग रचने में खरच किया जाता है, उसकी उपेक्षा कहीं अधिक प्रयत्न से वास्तविकता से भरी महानता कमाई जा सकती है। सादगी में यदि स्वच्छता और व्यवस्था जुड़ी हुई हो तो वह कम खरच की होते हुए भी मंहगे मोल पर खरीदी गई ‘अमीरी’ की अपेक्षा कहीं अधिक वजनदार सिद्ध होती हैं।

दूसरों को प्रभावित करने के लिए प्रदर्शन के साधन जुटा लेना पर्याप्त नहीं, किसी को चका-चौंध से क्षणभर के लिए चमत्कृत तो किया जा सकता है, पर श्रद्धा और विश्वास से भरा सम्मान प्राप्त करने के लिए चरित्र और चिंतन की गहराई ही काम आती है। अतिभावुकों की बात अलग है, सामान्यतया विश्वास उपलब्ध करने के लिए प्रामाणिकता की कसौटियों पर खरा उतरना पड़ता है। इस अग्नि परीक्षा में उत्तीर्ण वही हो सकता है, जिसने आदर्शो को आग में तपाकर अपने व्यक्तित्व को प्रखर एवं परिपक्व बनाया है। इस मार्ग पर चलते हुए ‘बड़ा आदमी’ बना नहीं जाता है।

व्यवहार कुशलता, सहनशीलता, मधुरता और उदारता का समन्वय व्यक्तित्व में ऐसा आकर्षण उत्पन्न करता है, जिससे अपने संबंध, संपर्क, परिवार को स्नेह-सोहार्द्र के बंधनों में बाँधकर रखा जा सकता है। अभावग्रस्त परिवारों में भी यदि ऐसा स्नेह-सौजन्य हो तो वहाँ स्वर्ग जैसी सरसता बरसती है और अभावजन्य असुविधाओं का पता भी नहीं चलता। इसके विपरीत प्रचुर साधनसंपन्न लोग भी दोष-दुर्गुणों से ग्रसित रहने के कारण खिन्न और क्षुब्ध रहते हैं। स्वार्थपरता और संकीर्णता की दुष्प्रवृत्तियाँ जहाँ, जितनी मात्रा में बड़ी-चढ़ी होंगी, वहाँ नारकीय वातावरण उतने ही विस्तार के साथ बिखरा होगा। प्रसन्नता और प्रामाणिकता दोनों ही सद्भावसंपन्न वातावरण में ही उत्पन्न होती, बरती और चिरस्थाई रहती हैं।

दया और सहानुभूति में, आनंद का रहस्य छिपा पड़ा है। मन में जितनी स्नेहसिक्तता कम होती है, वचन उतने ही रूखे और कर्कश निकलते हैं। साँप की तरह फुसकारने वाले और जलते पलाश की तरह चिनगारियाँ बिखेरने वाले कटुभाषी व्यक्ति हर जगह पाए जाते हैं। वे न केवल अपने को; वरन दूसरों को भी क्षुब्ध करते हैं।

जड़े दिखाई नहीं पड़ती, पर पेड़ का अस्तित्व उन्हीं पर निर्भर रहता है। जीवन की जड़े कर्त्तव्यपालन के तंतुओं के रूप में बिखरी हुई देखी जा सकती हैं। प्रेम के जल से इन्हें सींचा जाता है और आत्मसंयम की खाद पाकर वे परिपुष्ट होती हैं। जीवन का वटवृक्ष कितना विशाल, कितना हरित और कितना सघन होता है, यह इस बात पर निर्भर है कि उसकी जड़ें सींचने में कितना प्रयास किया गया।

मिट्टी का बरतन खरीदने वाला उसे बजाकर परखता है कि वह कहीं से फूटा तो नहीं है। फूटा होगा तो बजाने पर उसकी आवाज ही वस्तुस्थिति बता देती है। जीभ से निकलने वाले शब्द किसी व्यक्ति के फूटे या रद्दी होने की बात निरंतर प्रकट करते रहते हैं। नीरस व्यक्ति ही कर्कश शब्द बोल सकते हैं। जिस व्यक्तित्व की जड़ें गहरी हैं, उसकी वाणी ऐसे शब्द निसृत करती है जो वक्ता के गौरव को बढ़ाएँ और सुनने वाले में उत्साह उत्पन्न करें। सुसंस्कृत व्यक्ति अपनी वाणी को संस्कारित करते हैं और मतभेद अथवा क्षोभ उत्पन्न होने का अवसर आने पर भी वाणी को कुत्सित नहीं ही होने देते।

सच्ची बात लोगों को कटु लगती है, ऐसा कहा-सुना जाता है, पर यह अंशतः ही सत्य है। जिनके स्वार्थों पर सत्य के प्रकटीकरण से सीधी चोट पहुँचती है, ऐसे लोग सही कथन पर रुष्ट भी हो सकते हैं, पर यदि बोलने की शैली में स्नेह-सद्भावना मिली है और जिससे कहा जा रहा है, उसके सम्मान की रक्षा का भी ध्यान रखा जाए तो सत्यवचन कभी संकट उत्पन्न नहीं करता। प्रेम मिश्रित सत्य यदि सद्भावनापूर्वक सुधार की आशा से कहा गया है, उसमें समाधान एवं सुझाव है, तो कोई कारण नहीं कि किसी के मन पर उसकी चोट पहुँचे और शत्रुता उत्पन्न होने का संकट उत्पन्न हो। किसी को यह कहा जाए कि तुमने अनीति से धन अर्जित किया है और कृपणतापूर्वक जोड़ा है तो उचित न होगा। यह कहना ज्यादा अच्छा है कि आपने जो कमाया है, उसका श्रेष्ठ उपयोग यही हो सकता है कि उसका एक महत्त्वपूर्ण अंश आप लोक-मंगल के कार्यों में लगाकर श्रेय के भागी बनें। इससे चोट पहुँचाएँ बिना सुझाव देकर वह श्रेष्ठ हल उपस्थित किया जा सकता है, जिसके आधार पर वर्त्तमान स्थिति में जो सर्वोत्तम हो सकता है, उसे किया जा सके।

जीवन की सफलता और सार्थकता का भवन छोटे-छोटे सद्गुणों की ईटों और सतर्कता के गारे चूने में चूना जाता है, यदि हम जीवन को महत्त्वहीन न समझें और उसके सदुपयोग का समुचित ध्यान रखें तो उस लक्ष्य तक सहज ही पहुँच सकते हैं, जिसके लिए यह मनुष्य जीवन की महान विभूति उपलब्ध हुई है।


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