महाराज रघु ने कितने ही युद्ध लड़े और अपने राज्य का चक्रवर्त्ती विस्तार किया, साथ ही राजकोष में विपुल संपदा भी बढ़ गई। इस सफलता पर दृष्टिपात करने और भावी योजनाएँ बनाने के लिए राज्य परिषद् की बैठक हुई। मंत्रिगण, शासनसंचालक और प्रमुख आमात्य सभी उस गोष्ठी में उपस्थित थे।
रघु ने बताया — “इतने युद्ध न रक्तपात के मनोरंजन के लिए लड़े गए हैं और न आपा-धापी के अहंकार की वृद्धि के लिए। शासकों के विलास-वैभव के लिए भी युद्ध के देवता को जगाया नहीं गया। उसका मात्र उद्देश्य उच्छृंखल अव्यवस्था को एक सदुद्देश्ययुक्त अनुशासन में परिणत करना था। विशृंखलित जनसमूह को एक सूत्र में पिरोने और संगठित लोकशक्ति को सत्पथगामिनी बनाने के लिए ही राज्य विस्तार किया गया है।”
उपस्थित आमात्यों ने इस सदुद्देश्य को जाना तो पहले भी था; पर अब रघु के विश्लेषण से यह जाना कि चक्रवर्त्ती शासन के साथ जुड़े हुए उत्तरदायित्वों को भी निबाहना होगा। ‘कहना कुछ और करना कुछ’ जैसा भेड़ियाघसान ऐसे आदर्शवादी शासन में चल सकना संभव नहीं। रघु ने अपनी बात आगे जारी रखते हुए कहा — “राजकोष को बढ़ाने में ही हमें संलग्न नहीं रहना; वरन उसे तेजी से घटाना भी है। कर से जो कोष जमा होता है, उसमें न्यूनतम ही हम शासनाधिकारी अपने लिए उपयोग करें और शेष को लोक-कल्याण प्रयोजनों के लिए वापस कर दें।“
आमात्यों ने समझ लिया कि जनकल्याण की विविध योजनाएँ अगले दिनों आरंभ होंगी और उनमें राज्यकोष चुक जाएगा।
कोषाध्यक्ष की चिंता बढ़ी। उन्होंने उदास होकर पूछा — “राजन! शत्रुओं के आक्रमण होने पर युद्ध लड़ने पड़ते हैं और उसके लिए विपुल धनराशि व्यय करनी पड़ती है। जब कोष खाली हो जाएगा तो सैन्य प्रयोजनों की आवश्यकता कैसे पूरी होगी?”
रघु नरेश ने बात को उसी गंभीरता से समझा और निश्चित शब्दों में कहा— “सशक्त लोकशक्ति अपने आप में एक सेना है। समुन्नत राष्ट्र का हर नागरिक एक सैनिक होता है। यदि हम अपनी प्रजा को सशक्त बना डालें तो फिर कोई बहुत बड़ी अतिरिक्त सेना रखने की आवश्यकता न पड़ेगी। यथार्थता को एक स्वर से स्वीकार किया गया और राज्य परिषद् लोक-मंगल की अनेकों योजनाएँ बनाने में लग गई। शिक्षा, स्वास्थ्य, सांस्कृतिक, ग्राम पंचायत, कृषि, पशुपालन, परिवहन, सिंचनशिल्प, व्यवसाय, न्याय आदि अनेक विभागों का पुनर्गठन किया गया। गुरुकुलों को विपुल धनराशि अलग से दी गई, जिससे लोकनायकों की महती आवश्यकता पूरी कर सकने योग्य जीवंत उत्पादन वहाँ से हो सके। शासनतंत्र के सभी सदस्य एक मन और एक लगन से उस प्रयास में जुट पड़े। कुछ ही वर्ष बीते होंगे कि रघुराज्य की तुलना स्वर्ग से की जाने लगी। प्रजा को लगा, मानो यह शासन उसे दैवी वरदान जैसा मिला। जनता उत्साहपूर्वक कर देती थी, पर जनमंगल की योजनाएँ निरंतर बढ़ती ही जाती थी, सो संचित कोष घटता ही चला गया। जब वह चुकने की स्थिति में पहुँचा तो कोषाध्यक्ष ने महाराज के सामने स्थिति का प्रतिवेदन प्रस्तुत किया और बताया कि शिक्षासंचालक महामुनि कौत्स, गुरुकुलीय राशि राज्यकोष से न मिल सकने के कारण खाली हाथों वापिस जा रहे हैं। विद्यालय अगले दिनों कैसे चलेगा, इस चिंता से वे भी चिंताग्रस्त हो रहे हैं। रघु ने दूसरे ही दिन घनाधीश कुबेर के राज्य पर चढ़ाई कर दी और उनका विपुल कोष लूटकर निराश लौटने वाले कौत्समुनि को विपुल धन दिया, ताकि वे राज्य की शिक्षा योजना को और भी अधिक विस्तृत कर सकें। तत्त्वज्ञानियों की गोष्ठी में इस अनैतिक कहे जा सकने वाले आक्रमण एवं अपहरण को भी नीतिसम्मत ही ठहराया गया।
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