सृष्टि के कण-कण में जगमगाती दिव्य ज्योति

February 1973

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एक से अनेक का अध्यात्म सिद्धांत विश्व-ब्रह्मांड में संव्याप्त ग्रह-नक्षत्रों पर पूर्णतया लागू होता है। वे सभी एक महा-अणु के विस्फोट के विखरावमात्र हैं। पदार्थ की मूलसत्ता परमाणुओं के रूप में अपनी धुरी— पर कक्षा में तथा अग्रगामी क्रम से निरंतर आगे ही बढ़ने का प्रयत्न कर रही है। ग्रह-नक्षत्र अपने केंद्रीय तारकों की, तारक, महातारकों की परिक्रमा कर रहे हैं। इतना ही नहीं, वे सब इस विशाल आकाश में फैलते भी जा रहे हैं। गणितशास्त्री कहते हैं कि, “यह फैलाव गोलाई का परिभ्रमण लौटकर अपने स्थान में लौट आने के सिद्धांत का अनुगमन करेगा और जहाँ से चला था, वहाँ जाकर सुस्ताएगा, भले ही इसमें कितना ही विलंब लगे।” गणित यह भी बताता है कि जीव जिस ब्रह्म से प्रादुर्भूत हुआ है, उसी के पास लौट जाने के लिए प्रयत्न कर रहा है और देर-सबेर में अपने उद्गम तक जा पहुँचने का लक्ष्य प्राप्त कर ही लेगा।

एक ही ब्रह्मांड से अनेक पिंड-अंडो की, ग्रह-नक्षत्रों से लेकर परमाणुओं की उत्पत्ति न केवल अध्यात्म मानता है; वरन विज्ञान भी उसी बात को स्वीकार करता है।

अंतरिक्ष विद्याविशारदों ने नीहारिकाओं और तारक, ग्रह-उपग्रहों के बारे में कई प्रकार के निष्कर्ष और प्रतिपादन प्रस्तुत किए हैं। कान्ट, न्यूटन, चैम्बर, लिन, मोल्टन, जेम्स जीन्स, जैफरे, हाएल, लिटिलपन, आदि के सिद्धांतों का थोड़े हेर-फेर के साथ निष्कर्ष यह है कि सृष्टि के आदि में एक तारे से दो तारे हुए। उन दो तारकों की आपसी खींचतान एवं लड़-झगड़ के कारण उनके खंड-उपखंड होते चले गए। वे घूमे, सिकुड़े, सघन हुए, हलचलों में उतरे और ग्रह-उपग्रहों का विशाल ग्रह परिवार बनकर खड़ा हो गया।

अनंत तारकमंडल में हमारा सूर्य भी एक छोटा-सा तारा है।  इस ब्रह्मांड में ऐसे भी अनेक तारे विद्यमान हैं, जो सूर्य से भी अनेक गुने बड़े हैं। सूर्य परिवार में 9 मुख्य ग्रह, लगभग एक सहस्र अवांतर ग्रह, अनेक पुच्छल तारे एवं उल्का समूह हैं। सूर्य तारे का यह संपूर्ण परिवार, उसके मध्य का विशाल आकाश तथा अपनी-अपनी कक्षाओं में गमन करने हेतु उन सबके द्वारा घेरा गया आकाश। यह सब मिलकर एक सौरमंडल कहलाता है।

सौरमंडल के ग्रहों का आकार, सूर्य से उनका अंतर एवं उनके सूर्य का परिभ्रमण में लगने वाले समय का विवरण इस प्रकार है—

अपने सूर्य जैसे लगभग 500 करोड़ ताराओं, सौरमंडल तथा अकल्पनीय विस्तार वाले धूल तथा गैस-वर्तुलों के मेघ मिलकर एक आकाशगंगा बनती है। ऐसी 10 करोड़ से अधिक आकाशगंगाओं तथा उनके मध्य के अकल्पनीय आकाश को एक ब्रह्मांड कहा जाता है। यह ब्रह्मांड कितने हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रश्नकर्त्ता से ही उलटा प्रश्न पूछना पड़ेगा — आपके नगर में रेत के कण कितने हैं? मनुष्य की बुद्धि एवं कल्पना इस स्थान पर थक जाती है, इसीलिए विज्ञान ने उसे 'अनंत' कहा है। अध्यात्मवाद ने इस समस्त रचना को ही नहीं, उसके स्वामी, नियंता,  रक्षक को भी 'अनंत' नाम से ही संबोधित किया है —

अनंत आकाश में स्थित ग्रह-तारकों की विशालता और उनकी परिभ्रमण-कक्षा के विस्तार की कल्पना करने से पूर्व हमें अपने सौरमंडल में स्थित नवग्रहों पर दृष्टि डालनी चाहिए और देखना चाहिए कि असंख्य सौरमंडलों में से छोटा-सा तारा अपना सूर्य— आदित्य कितने बाल-परिवार को अपने साथ लिए फिरता है।

बुद्ध— व्यास 3000 मील, सूर्य से दूरी 3 करोड 60 लाख मील, सूर्य की परिक्रमा में लगने वाला समय 82 दिन।

शुक— व्यास 7800 मील, दूरी 6 करोड 70 लाख मील, अवधि 224 1/2 दिन।

पृथ्वी— व्यास 7920 मील, दूरी 9 करोड 30 लाख मील अवधि 365 1/4 दिन।

 मंगल— व्यास 4200 मील, दूरी 14 करोड 10 मील परिम्रमण 687 दिन।

गुरु— व्यास 8700 मील, दूरी 48 करोड़ 30 लाख मील, परिभ्रमण समय 12 वर्ष।

शनि— व्यास 7400 मील, दूरी 88 करोड़ 60 लाख मील परिभ्रमण समय 29 1/2 वर्ष।

युरेनस— व्यास 31000 मील, दूरी 180 करोड़ मील, परिभ्रमण समय 84 वर्ष।

नेपच्यून— व्यास 33000 मील, दूरी 280 मील, परिभ्रमण समय 164 1/2 वर्ष।

यम— व्यास 3000 मील, दूरी 370 करोड़ मील परिभ्रमण समय 248 वर्ष।

अपने सौरमंडल की एक सदस्य अपनी पृथ्वी भी है। उसकी स्थिति का विहंगावलोकन करते हुए सामान्य बुद्धि हतप्रभ होती है। फिर अन्य विशालकाय ग्रह-नक्षत्रों की विविध विशेषताओं पर ध्यान दिया जाए तो प्रतीत होगा कि इस संसार में छोटे से लेकर बड़े तक सब कुछ अद्भुत और अनुपम ही है। सृष्टिकर्त्ता की कृति-प्रतिकृति को समझने के लिए मानवी बुद्धि का प्रयास सराहनीय तो है, पर निश्चित रूप से उसकी समस्त चेष्टाएँ सीमित ही रहेंगी। अपनी पृथ्वी के भीतर तथा बाहर जो रहस्य छिपे पड़े हैं, अभी उनमें से कणमात्र ही जाना-समझा जा सका है, जो शेष है, वह इतना अधिक है कि शायद उसे जानने में मानव जाति की जीवन अवधि ही समाप्त हो जाए।

पृथ्वी का मध्यकेंद्र बाह्य धरातल से 6435 किलोमीटर है। पर उसके भीतर की स्थिति जानने में अभी प्रायः 2800 मीटर तक ही पृथ्वी तक का ही पता चलाया जा सका है। मध्यकेंद्र का तापमान 6000° शतांश होना चाहिए। 62 मील की गहराई पर तापमान 3000 अंश शतांश होगा। इस तापमान पर किसी पदार्थ का ठोस अवस्था में रहना संभव नहीं, अस्तु यह निर्धारित किया गया है कि 62वे मील से लेकर 3960 मील पर अवस्थित भूगर्भ केंद्र तक का सारा पदार्थ पिघली हुई स्थिति में होगा। समय-समय पर फूटने वाले ज्वालामुखी और भूकंप इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं।

भूगर्भ केंद्र के पदार्थ पिघली हुई— लचीली स्थिति में होने चाहिए। इसका एक कारण यह भी है कि पृथ्वी के धरातल के एक मील नीचे-ऊपर की पृथ्वी का दबाव प्रायः 450 टन प्रतिवर्ग फुट पड़ता है। बढ़ते-बढ़ते यही दबाव पृथ्वी-केंद्र पर 20 लाख टन प्रति वर्ग फुट हो जाएगा। दवाव का यह गुण होता है कि वह पदार्थ के आयतन (विस्तार) को घटाता है। रुई के ढेर को दबाने से उसका विस्तार छोटा रह जाता है। यों भीतर का ताप आयतन बढ़ाने का प्रयत्न करेगा, पर साथ ही बाहरी दबाव उसे रोकेगा भी। इन परस्पर विरोधी शक्तियों के कारण भीतर एक प्रकार के तनाव की स्थिति बनी रहेगी और उस स्थान का पदार्थ लचीला ही रहेगा।

पृथ्वी की आयु कितनी है, इसका निष्कर्ष पाँच आधारों पर निकाला गया है (1) प्राणियों का विकास परिवर्तन का सिद्धांत (2) परत चट्टानों के निर्माण की गति (3) समुद्र का खारापन (4) पृथ्वी के शीतल होने की गति (5) रेडियोधर्मी तत्त्वों का विघटन के आधार तक पृथ्वी की आयु लगभग 200 करोड़ वर्ष ठहरती है, पर यह अनुमानमात्र ही है। इस संदर्भ में मतभेद बहुत है, उनमें 12 करोड़ वर्ष से लेकर 900 करोड़ तक की पृथ्वी की आयु होने की बात कही गई है।

पृथ्वी का यह घोर तापयुक्त हृदयकेंद्र बहुत विशाल है। इसकी त्रिज्या 2100 मील है। इस भाग को 'बेरीस्फियर' कहते हैं।

भूगर्भ विज्ञान के अनुसार पृथ्वी गोल है। केवल ध्रुवीय क्षेत्रों में कुछ पिघली हुई है। भूमध्य रेखाक्षेत्र में कुछ उभरी हुई है। पृथ्वी का व्यास 7900 मील है। पर्वतों की सर्वोच्च चोटी प्राय: 5.5 मील ऊँची और समुद्र की अधिकतम गहराई 7 मील है।

यह तो मात्र पृथ्वी की बनावट संबंधी जानकारी हुई, उससे संबंधित समुद्र, पर्वत, वायुमंडल, ऊर्जा, चुंबकत्व आदि की चर्चा इतनी बड़ी है कि अब तक की जानकारियाँ न्यूटन के शब्दों में सिंधुतट पर बालकों द्वारा बीने गए सीप-घोंघों की तरह ही स्वल्प है।

सृष्टि के अंतर्गर्भ में छिपे हुए ज्ञात और अविज्ञात रहस्यों की ओर जब दृष्टिपात करते हैं तो प्रतीत होता है कि उसका रचयिता सचमुच ही 'महतो महीयान' है। उसका महत्त्व इस सृष्टि के रूप में अपनी लीलाविलास से मानवी बुद्धि को चकित-चमत्कृत कर रहा है। यदि उस महत्ता के समुद्रीजीव भी अपनी सत्ता को विसर्जित कर दें, तो अगले ही क्षण आज का अणु बन सकता है और पुरुष से पुरुषोत्तम बन सकता है।

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