अपने अतीत को भूलिये नहीं

March 1965

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भारतीय धर्म, संस्कृति और सभ्यता का जिन्होंने अध्ययन, अनुभव एवं अवगाहन किया है, उसके मूल तक पहुँचे हैं, उन्होंने इसकी सार्वभौमिकता, विशालता तथा पवित्रता से इनकार नहीं किया। हमारा दर्शन सम्पूर्ण विश्व के लिए प्रकाश है। उस प्रकाश का लाभ सभी जातियों ने पाया है। अपने ज्ञान, अपनी साधना और अपनी तपश्चर्या के लाभ हमने सारे संसार को बाँट दिये हैं। उस अनुदान का लाभ सारा विश्व उठा रहा है, किन्तु हमने तो अपने प्राचीन गौरव को ही भुला दिया। अपने आदर्शों से च्युत होकर अपनी सारी भौतिक विभूतियाँ एवं आध्यात्मिक सम्पदायें खोकर रख दीं। समय उन्हें फिर से जागृत करने का संदेश दे रहा है। वह युग आ गया है जब इस आवाहन को अनसुना कर टाल नहीं सकते।

हीरे की परख जौहरी को होती है। हम जिस अतीत को आज भूलकर बैठे हैं। उसके महत्व को पाश्चात्य मनीषियों ने, कला-पारखियों ने समझा और उसकी प्रशंसा की है इतिहास में ऐसे अनेकों वर्णन, विश्लेषण एवं विज्ञप्तियाँ भरी पड़ी हैं। उनका अध्ययन करने से आँखें खुल जाती हैं और अपने सही रूप का पता चल जाता है। प्रख्यात् जर्मन-दार्शनिक मैक्समूलर ने लिखा है—

“यदि कोई मुझसे पूछे कि वह कौन-सा देश है जिसे प्रकृति ने सर्व-सम्पन्न, शक्तिशाली एवं सुन्दर बनाया है तो मेरा संकेत भारतवर्ष की ओर होगा। जिन्होंने प्लेटो और कान्ट के दर्शन का अध्ययन किया है उन्हें भी, अपने मुख्यतम गुणों का विकास करने वाली, जीवन की सबसे महत्वपूर्ण समस्याओं पर गहराई से सोच-विचार करने वाली, भारतीय-संस्कृति के अध्ययन की जरूरत है। अपने जीवन को अधिक पूर्ण, अधिक विस्तृत और अधिक व्यापक बनाने के लिए भारतीय-विचार पर्याप्त हैं, न केवल इस जीवन के वरन् मनुष्य के अनन्त जीवन के पूर्ण वैज्ञानिक विश्लेषण की क्षमता केवल भारतवर्ष में है।”

मैक्समूलर ने इन पंक्तियों में हमारी आध्यात्मिक शोधों की ओर संकेत किया है। इन तथ्यों का विस्तृत विश्लेषण, जिसकी अभी तक कोई थाह नहीं पा सका, वह सब हमारे वेदों में सम्पादित है। वेद हिन्दू धर्म के मूल आधार हैं। इनमें मनुष्य की आध्यात्मिक तथा भौतिक आवश्यकताओं के सभी विषयों का समावेश है। यह ज्ञान अन्त में अनेकों धाराओं में प्रवाहित होकर बहा जिससे न केवल यहाँ का आध्यात्मिक जीवन समृद्ध बना अपितु भौतिक सम्पन्नता भी अपने ही अनुकूल विशेषण लेकर प्रस्तुत हुई। “इंडियन रिव्यू” में विद्वान् अमरीकी लेखक मि. डेलभार ने लिखा है—

“पश्चिमी चीजों को जिन बातों पर अभिमान है वे सब भारतवर्ष से आयी हैं। और तो और फल-फूल, पेड़-पौधे तक जो इस समय यूरोप में पैदा होते हैं, वे भारतवर्ष से ही लाकर यहाँ लगाये गये हैं। घोड़े, मलमल, रेशम , टीन, लोहा तथा सीसे का प्रचार भी योरोप में भारतवर्ष से ही हुआ है। इतना ही नहीं, ज्योतिष, वैद्यक, अंक गणित, चित्रकारी तथा कानून भी भारतवासियों ने हम योरोपियनों को सिख लाया।”

भारतवर्ष केवल हिन्दू धर्म का ही घर नहीं, उस संसार की सभ्यता का आदि भंडार है। यहाँ का जीव सरल, महत्वपूर्ण तथा अति प्राचीन है। श्रद्धा और भक्ति विश्वास और निश्चय से भरा हुआ यह अपना भारतवर्ष किसी समय ज्ञान-विज्ञान का सम्राट बना हुआ था। यह मनुष्य की शाश्वत आशायें और सांत्वनाएं घनीभूत थीं ऋषियों की गंभीरता को हृदयंगम कर पाना भी कठिन था जिन्होंने सर्वप्रथम इस संसार में विचार और विवेक जन्म दिया था। वास्तविक जीवन के सिद्धान्तों का अनुसंधान इसी पवित्र भूमि में हुआ है। इसलिये सारे संसार ने इसे शीश झुकाया, इसकी अभ्यर्थना की है। एम. जेकोलियट ने लिखा है—

“ऐ प्राचीन भारत वसुन्धरे! मनुष्य जाति का पालन करने वाली, पोषणदायिनी तुझे प्रणाम है। शताब्दियों से चलने वाले आघात भी तेरी पवित्रता को मलिन नहीं कर पाये। श्रद्धा, प्रेम, कला और विज्ञान को जन्म देने वाली भारत-भूमि को मेरा कोटिशः नमस्कार है।”

भारतवर्ष का सम्मान और इसकी प्रतिष्ठा का मूल कारण यहाँ का धर्म है। इसे औरों ने सम्प्रदाय के रूप में भले ही देखा हो, किन्तु वस्तुतः हिन्दू धर्म का मूल सिद्धान्त है, मानवीय आत्मा के गौरव को प्राप्त करना और फिर उसी के अनुसार आचरण करना। शास्त्रकार ने लिखा है—

श्रूयताँ धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।

आत्मनः प्रतिकूलानि परेषाँ न समाचरेत्॥

अर्थात् सुनो, धर्म का सार यह है कि दूसरों के साथ वैसा व्यवहार मत करो जैसा तुम नहीं चाहते कि तुम्हारे प्रति किया जाय, इसको सुनो ही नहीं आचरण भी करो।”

धर्म का यही स्वरूप सुखद व सर्व-हित में है। इसमें प्राणिमात्र के जीवन-रक्षा और सुखोपभोग की व्यवहारिक कल्पना है। अपने इसी रूप में हमारा अतीत उज्ज्वल, सुखी और शान्तिमय रहा है। आज भी सारे विश्व को इसी की आवश्यकता है।

धर्म के जिस रूप की यहाँ व्याख्या की गई है, वह आदर्श है, किन्तु वह बिना किसी महान् शक्ति के आश्रय में रहे हुये स्थिर नहीं रह सकता। मानवीय हितों की सुरक्षा की आज भी सारे संसार में व्यवस्था है किन्तु उसका परिपालन पूर्णतया कहीं भी नहीं है। इसी से सर्वत्र अस्त-व्यस्तता है। जो शक्तियाँ इन कार्यों के लिये नियुक्त भी हैं, वे भी पूर्णतया विध्वंसक हैं। भारतीय धर्म पूर्ण-शक्ति समन्वययुक्त है। इसीलिए इसमें समाज के एक व्यक्ति को भी सुरक्षा रही है। वह शक्ति यहाँ की आध्यात्मिक शक्ति ही है। शक्ति का विकास गुण-विकास पर भी है और उसका एक नितान्त वैज्ञानिक अंग भी है। ऐसी विशेषता केवल हमारे यहाँ ही है। “धर्म” के साथ “साधना” का शब्द जोड़ दिया जाता है, वह इसी शक्ति का ही बोधक है। आध्यात्मिक शक्तियों के विकास पर ही सम्पूर्ण प्राणियों के हित का सिद्धान्त निश्चयात्मक रूप से चल सकता है। बिना इसके सामाजिक जीवन की सुव्यवस्था का और कोई दूसरा ठोस आधार हो नहीं सकता। इसी रूप में हम अपने आपको पूर्ण शक्ति-सम्पन्न, श्रेष्ठ और शिरोमणि सिद्ध कर सके हैं। विक्टर कोसिन ने इसी तथ्य का दावा करते हुए लिखा है—

“जब हम भारत की साहित्यिक एवं दार्शनिक कृतियों का अवलोकन करते हैं, तब हमें ऐसे अनेक गम्भीर सत्यों का पता चलता है, जहाँ पर पहुँच कर योरोपीय ज्ञान की शक्ति शिथिल पड़ जाती है। हमें भारतवर्ष के इसी तत्व के आगे अपने घुटने टेक देने पड़ते हैं।”

काल प्रभाव से यद्यपि अब वैसी शक्ति और सामर्थ्य हम में नहीं रही जो हमारे अतीत का गौरव थी, किन्तु अभी न तो वह ज्ञान ही नष्ट हुआ है और न विज्ञान ही पूर्णतया समाप्त हुआ है। हमारी वृत्तियों में जो भौतिकवादी निकम्मापन भर गया है उसी के कारण आज यह दुर्दशा हो रही है कि हमारा न तो व्यक्तिगत जीवन ही कुशल है, न सामाजिक ढाँचा ही व्यवस्थित है। जिन तथ्यों को विदेशियों ने समझ लिया है उन पर अभी हमारे अपने ही लोगों की गहरी दृष्टि नहीं पड़ी। हमारे आदर्शों की गहराई में पहुँचने वाले किसी भी व्यक्ति को खाली हाथ नहीं लौटना पड़ा। उन्हें कुछ न कुछ मिला ही है। अतः अपनी शक्ति का आभास होना पुनर्जागरण की इस पुण्य वेला में प्रत्येक दृष्टि से आवश्यक है।

वे चरित्र और आदर्श जो यहाँ के मानस का संस्कार देते हैं, भले ही प्रसुप्त हों पर अभी भी जीवित हैं। यदि ऐसा न रहा होता तो हमारा धर्म, संस्कृति तथा सभ्यता कभी की टूटकर बिखर गई होती, जैसा कि और जातियों की संस्कृतियों के साथ हुआ। अपने दृढ़ सिद्धान्तों और पुष्ट संस्कारों के कारण ही वह आज भी अटूट और अडिग बनी हुई है। अब उन आदर्शों को पुनः जागृत करना होगा। खोये हुए अतीत को पुनः प्रतिष्ठित करना होगा, उसी से हमारा और समस्त संसार का कल्याण होगा।


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