मनुष्य असंयमी न बन

March 1965

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मनुष्य! तुम्हें शरीर इसलिए नहीं मिला कि तुम उस पर अत्याचार करते हुए उसकी मिट्टी खराब कर दो! तुम्हें संसार के भोग इसलिए नहीं दिये गए कि तुम उन पर वुभुक्षित पशुओं की भाँति टूट पड़ो। तुम्हें मन, बुद्धि और आत्मा इसलिए नहीं मिली कि तुम उनमें द्वन्द्व कराओ। तुम्हें रात और दिन, आलोक और अन्धकार इसलिए नहीं दिये गए कि तुम उनको जैसे चाहो प्रयोग में लाओ। तुम्हारे साथ विवेक और सदाशयता को इसलिए नहीं भेजा गया कि तुम उन्हें धोखा दो। संसार में तुम्हारा अवतरण इसलिये नहीं हुआ कि तुम उसे धधकता नरक कुण्ड बना दो।

मनुष्य! तुम संसार में, मनुष्यता के एक निश्चित संविधान के साथ, किसी उद्देश्य से भेजे गए हो। तुम यह नहीं कह सकते कि तुम्हें उस उद्देश्य का पता नहीं। तुम्हें पता है। तुम अवश्य जानते हो किन्तु अपने को धोखा देते हो।

मानव! तुम्हें संसार में इसलिए भेजा गया है कि अणु-अणु में छिपे भगवान को पहचानो, उसका साक्षात्कार करो और दूसरों को कराओ। इसके लिए तुम्हें परमात्मा के असंख्य रूपों का ज्ञान करा दिया गया है। उसका मार्ग बतला दिया गया है। उसके साधन दे दिए गये हैं। किन्तु क्या तुमने कभी स्वप्न में भी उसे खोजने की जिज्ञासा की है? क्या उपलब्ध साधनों को अपने परम उद्देश्य की ओर लगाया है? यदि नहीं—तो यह एक प्रकार से कृतघ्नता ही तो रही।

तो क्या तुम कृतघ्न कहलाना चाहते हो? ‘यदि हाँ’ तब तो बात ही समाप्त हो गई। अन्यथा आओ, यदि सुबह का भूला शाम को भी घर आ जाये तो उसे भूला नहीं कहा जा सकता। आज से ही अपने उद्देश्य के लिए प्रयत्न आरम्भ करो।

परमात्मा के असंख्य रूपों—धर्म, कर्म, योग, तप, सिद्धि, समृद्धि आनन्द, आलोक, सुख, शान्ति, मुक्ति, मोक्ष, दया, करुणा, शक्ति सत्ता, दैवत्व, मानवत्व आदि में से जिस रूप को भी देखना चाहो, तो साथ आया हुआ “आत्म-संयम” नाम का नैसर्गिक संविधान खोलो और अपना काम प्रारम्भ कर दो। ईश्वर के किसी भी रूप का साक्षात्कार करने के लिए केवल एक ही नैसर्गिक विधान है—“आत्म-संयम।”

अब तक तो तुम असंयम के कुफलों का काफी अनुभव कर चुके होगे। तुम यदि अपने दुश्मन नहीं हो, आत्म-हिंसा को पाप समझते हो और अपने को कृतघ्नता के कलंक से बचाना चाहते हो तो आत्म-संयम के वरदानों को अनुभव कर लेना चाहिए।

लो! अपने पर दृष्टिपात करो। क्या तुम कह सकते हो कि ऐसा ही जर्जर, जीर्ण शीर्ण, रूप-रंग रहित शरीर लेकर आये थे। नहीं, तुम्हारा शरीर रंग-रूप से भरा-पूरा और शक्तिवान था। वह इसलिए ऐसा हो गया कि तुमने आत्म-संयम के संविधान का उल्लंघन किया, उसकी अवहेलना की, जिसके दण्ड स्वरूप तुम से जीवनीशक्ति ले ली गई और मिट्टी तुम्हारे पास भार स्वरूप ढोने को छोड़ दी गई।

तुमने प्रातःकाल उठकर उपादेवी के दर्शन नहीं किये, तुमने रात्रि में बरसे हुए अमृत से स्नाता हरी-भरी वनस्पति के बीच विहार नहीं किया। तुमने व्यायाम का मखौल उड़ाया! शरीर प्रक्षालन का महत्व तुमने जाना ही नहीं। दो मिनट बैठकर उस प्रभु का स्मरण नहीं किया, जिसका साक्षात्कार तुम्हारा ध्येय था। भोजन-रूप अन्न का अनादर किया। स्वाद और जायके के लिए रोष प्रकट किया। तुमने जीवन के ये सारे काम किए न किए के ही समान किए। नियमों से विद्रोह करते हुए तुम सदा अपने पर बलात्कार ही करते रहे। तुमने अपने शरीर-नाश के जितने भी बीज हो सकते थे उनका वपन बड़ी तत्परता से किया।

शरीर के अतिरिक्त मन, बुद्धि और आत्मा पर तुमने क्या अत्याचार नहीं किया? मन के पोषक पदार्थ थे—प्रसन्नता, प्रफुल्लता, निश्चिन्तता, निर्मलता, सुन्दरता और सुधारता, किन्तु तुमने उसे दिया क्या? खेद, पश्चाताप, दुश्चिन्ता मलीनता, अश्लीलता, अनगढ़ता आदि। बुद्धि की आवश्यकता थी—तर्क, निर्णय, निश्चय, चिन्तन, स्वाध्याय, सत्संग और विवेक आदि। किन्तु तुमने उसे दिया क्या? कुतर्क, असमञ्जस, स्थगन, अकर्मण्यता, अविद्या, कुसंग और अज्ञान आदि। आत्मा की माँग थी—परिमार्जन, परिष्कार, संस्कार, शोधन, साधन, धर्म, धीरता, कर्म, परोपकार व सदाचार आदि। किन्तु तुमने उसे इसके विपरीत दिया—अन्धकार, अज्ञान, कलुष, अवज्ञा, उपेक्षा, अवहेलना और तिरस्कार आदि! फलतः यह सब तुम से विमुख होकर बुझे दीपक की भाँति तुम्हारे पास रह गये।

अब तुम्हारा सारा जीवन, एक विषाद, निराश, असहायता, भीरुता, दुख, पीड़ा, क्षोभ, ग्लानि, अरुचि आदि से भरा हुआ एक नरक-कुण्ड बनकर रह गया। तुम व्याधियों से परेशान हो, खीझते हो, हाँफते हो, थकते हो, कुढ़ते हो और कराहते हो। किन्तु तुम्हारा कोई वश नहीं चलता। अब तुम वीरों की इस कर्म भूमि को ठीक-ठीक भव-सागर के रूप में अनुभव करते हुये उससे निस्तार पाने के लिये छटपटाते हो, झींकते हो और अपने पर खीझते हो।

पर इससे काम नहीं चलेगा! जिस तत्परता से तुमने अपने विनाश के बीज बोये हैं, उसी उत्साह से आज ही आत्म-संयम में लग जाओ। इन्द्रियों की बाग रोको, स्वादों को नमस्कार करो, दुर्भावनाओं को विदा दो, बुद्धि को जगाओ और विवेक को आवाज दो। आत्मा का सम्मान करो और परमात्मा से क्षमा माँगो। अपने ध्येय को विवेक के आलोक में देखो और चल पड़ो उसे पाने के लिये।

नित्य नियमों के तप से आत्म-संयम की सिद्धि करो। बुद्धि की वृद्धि और आत्मा की शुद्धि का संकल्प लो। प्रकृति से प्यार करते हुये सदाचार का व्यवहार करो—और देखो अल्पकाल में ही तुम्हारे स्वास्थ्य की धरोहर तुम्हें लौटा दी जायेगी।

और फिर; फिर तो मानो तुमने सारी निधियों की कुञ्जी ही पाली, ध्येय के धरातल पर पदार्पण हो गया। अब कौन तुम्हें तुम्हारे लक्ष्य पर पहुँचने से रोक सकता है। स्वस्थ शरीर के सन्नद्ध रथ पर आरुढ़ होकर चलो-वासनाओं के गर्त और विषयों के गढ़ों से सावधान रहो! पूर्वजों के पूर्व-प्रणीत दिए हुये शास्त्रों और सत्साहित्य में दिये धर्म रूपी मानचित्र के सहारे पथ भ्रान्ति से बचो। पीछे नहीं आगे के मार्ग पर दृष्टि रखो। पुरुषार्थ के मापदण्ड से यात्रा की पूर्ति नापो। पापों के पड़ाव पर अभियान का अवरोध भयानक अबोध होगा। सुहावने प्रलोभनों और भव्य भोगों के हाट-बाट से तुम्हारा रथ निर्विघ्न निकलता जाये! रथ रोकने के लिये हाथ उठाकर वञ्चक-व्यसनों को, पीछे दौड़ती हुई धूल रूपी परित्यक्त तृष्णा को अनदेखा करदो।

प्रातः काल ठीक समय पर उठो! उदय होते हुये भगवान भुवन भास्कर के दर्शन करते हुये, प्रकृति के अंचल में विहार करो। व्यायाम करो, स्नान करो और नियम पूर्वक परमात्मा का सच्चे मन से स्मरण करो। आत्म-कल्याण के लिए उससे अनुनय विनय करो। ठीक समय पर अपनी जीविका पर जाओ और संसार को भूलकर मनोयोग से काम प्रारम्भ करो। अवश्य ही इतना काम करो जिससे तुम्हें सच्चा सन्तोष मिले!

संध्या समय भी ठीक समय पर नित्य नैमित्तिक कार्य करो! सन्ध्या वन्दन करो, टहलने जाओ। स्वाध्याय करो, पुस्तकालयों और सत्सभाओं में सम्मिलित होओ! सबसे अधिक सेवा कार्यों में सम्मिलित होओ! ठीक समय पर पुनः सन्तुलित भोजन करो। थोड़ा संचरण करो। दूसरे दिन के कार्य पर विचार करो, और ठीक समय पर परमात्मा का स्मरण करते हुये निश्चिंत निद्रा में से जाओ!

इस प्रकार अपने सामान्य दैनिक जीवन में अनुशासन का विकास करो। थोड़े दिनों में तुम ठीक मार्ग पर चल पड़ोगे और अपनी खोई हुई शक्तियों को पुनः प्राप्त कर लोगे।

इच्छा और वासनाओं को बहिष्कृत करके मन, बुद्धि, और आत्मा को हल्का बनाओ। प्रसन्नता पूर्वक हँसो बोलो और दूसरों से बात करो। विषाद अथवा विवाद के किसी कारण को पास न आने दो, हर काम को उत्साहपूर्वक करो।

वाणी को नियंत्रित करो। सत्य, सरल और मधुर संभाषण करो। कटुवचन, अपशब्द और विवादात्मक शैली का प्रयोग मत करो। वाद-विवाद अथवा अनर्गल-वार्तालाप का त्याग करो। दूसरों का आदर करो और गुरुजनों के प्रति श्रद्धा रक्खो। सद्गुणों को अपने व्यावहारिक जीवन में दिनों-दिन विकसित करते चलो।

तुम कभी अस्वस्थ, अशक्त अथवा दुखी नहीं रहना चाहते, और बीमार होने पर तत्काल डॉक्टर की शरण में जाते हो। औषधि लेते हो और पथ्य का पालन करते हो। तब क्यों न पहले ही से संयमपूर्वक रहो जिससे रोगी होने का अवसर ही न आये। रोगी होकर स्वास्थ्य की चिन्ता करना उल्टी बात है।

प्रकृति का अखंड नियम है कि वह असंयम करने वाले को तत्काल दण्ड न देकर सुधरने का अवसर तो देती है किन्तु क्षमा कभी नहीं करती।

मनुष्य का एक स्वभाव है कि वह महापुरुषों के प्रति श्रद्धा तो रखता है, उन्हें बड़ी अचम्भे की दृष्टि से देखता है, किन्तु उनके जीवन पर दृष्टि नहीं डालता। किसी क्षेत्र में महान कहा जाने वाला कोई भी ऐसा व्यक्ति संसार में नहीं हुआ जिसने आत्म-संयम के व्रत का कठोरतापूर्वक पालन न किया हो। आत्म-संयम और अध्यवसाय दो ऐसे नियम हैं जिनका सच्चाई से पालन करने वाला कोई भी व्यक्ति महान हो सकता है।

किन्तु, आत्म-संयम का यह अर्थ कदापि नहीं है कि तुम संसार के समस्त भोगों से अपने को सर्वथा वंचित कर दो। उनको भोगो। परन्तु प्राकृतिक नियमों के साथ अनुशासित होकर। उनका दास बन जाना अथवा उनको जीवन का ध्येय बना लेना ही बुरा है।

किसी बात की उपयोगिता, आवश्यकता और सीमा समझ कर उपयोग करना आत्म-संयम की मोटी-सी परिभाषा है। इसके विपरीत उसका उपयोग असंयम है।

आत्म-संयम करना कोई दुःसाहस का काम नहीं है, अपितु यह तो मनुष्य का सहज स्वभाव है। परमात्मा उसको आत्म-संयमी बना कर भेजता है। इसके विपरीत वह वस्तुतः कुसंगति या कुरीतियों से प्रभावित होकर असंयम का अभ्यास कर लेता है। अधिक भोजन, अधिक निद्रा, विवाद, विषाद, अथवा दुर्भावनाओं और दुर्गुणों को लेकर मनुष्य पैदा नहीं होता। जब तक वह अबोध रहता है तब तक यह असंयम उसमें पैदा नहीं होता है। कितने आश्चर्य का विषय है कि मनुष्य में असंयम का दोष तब पैदा होता है जब उसकी बुद्धि विकसित होने लगती है। वास्तव में होना तो यह चाहिए कि अबोधतावश जो दोष उसमें आ गये हैं वे बोध पाते ही दूर कर दिये जायें, किन्तु होता इसके प्रतिकूल है। इसको मानव-भाग्य की विडम्बना के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है।

खैर, जो कुछ भी सही, असंयम के दोषों का जब भी ज्ञान हो, उन्हें तत्काल दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। आत्म-संयम से जीवन-काल में सुख रहता ही है, भारतीय विश्वास के अनुसार पुनर्जन्म में भी उसको इसका लाभ होता है। क्योंकि मनुष्य जिस प्रकार का शरीर छोड़ता है और जिस प्रकार की भावनायें लेकर संसार से विदा होता है, उसी प्रकार का शरीर और भावों के अनुरूप ही मन, बुद्धि और आत्मा की प्राप्ति होती है। जब ऐसा है तो क्यों न इस जीवन में आत्म-संयम का सुख भोगकर पुनर्जन्म में नियमानुसार स्वस्थ शरीर, प्रसन्न मन, सशक्त बुद्धि और उज्ज्वल आत्मा की प्राप्ति की जाये।

मनुष्य! तुम कीड़े-मकोड़ों की तरह जिन्दगी के दिन पूरे करने के लिए नहीं, एक महान उद्देश्य के लिए अवतरित हुये हो। इसलिए विडम्बनायें छोड़ो, दुर्बुद्धि से बचो, दुर्गुणों को छोड़ो, और जीवन-क्रम इस प्रकार बनाओ जिससे तुम्हें अपने लक्ष्य की प्राप्ति हो सके।


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