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March 1965

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इस बार देवताओं की प्रार्थना स्वीकार हो गई। लक्ष्मी जी असुरों का वास-स्थान सदैव के लिए परित्याग कर देवताओं के आश्रम में पहुँच गई। देवराज इन्द्र ने सविस्मय पूछा। “देवि! असुरों के पास से आपके चले जाने का कारण जानने की प्रबल उत्कंठा है।” आगे बढ़कर स्वागत करते हुए इन्द्र ने और भी कहा—अंबे पहले आपने हमारी विनती नहीं सुनी, इसका भी कारण बताइए?

इन्द्रदेव के आमंत्रण से महादेवी लक्ष्मी गदगद हो गई और अपना वरद हस्त उठा कर बोलीं—

“देवराज! जब किसी राष्ट्र में प्रजा सदाचार खो देती है, तो वहाँ की भूमि, जल, अग्नि कोई भी मुझे स्थिर नहीं रख सकते। मैं लोक-श्री हूँ मुझे लोक सिंहासन चाहिए। मुझे आलस्य, अकर्मण्यता, फूट, कलह, कटुता पसन्द नहीं। व्यक्ति के सदाचारी मानस में ही मैं अचल निवास करती हूँ। जहाँ छोड़ती, पर जहाँ अकारण बैर-भाव, हिंसा, क्रोध, प्रमाद, अत्याचार आदि बढ़ जाते हैं उस स्थान को छोड़कर मैं तत्काल अन्यत्र चली जाती हूँ। मैं शुभ कार्यों से उत्पन्न होती हूँ, उद्योग से बढ़ती हूँ और संयम से स्थिर रहती हूँ जहाँ इन गुणों का अभाव होता है उस स्थान को छोड़ जाती हूँ। बस इतने से ही मेरे असुरों का निवास छोड़ने और देवताओं की प्रार्थना स्वीकार कर लेने का रहस्य जान लेना।”


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