आत्म-ज्ञान या शाश्वत जीवन का बोध व्रताचरण के द्वारा होता है। ऊपर चढ़ने की जरूरत पड़ती है तो सीढ़ी लगाते हैं। एक डंडे को हाथ में पकड़ कर दूसरे पर पैर रखते हुये ऊपर आसानी से चढ़ जाते हैं। जीवन में क्रमिक रूप से छोटे-छोटे व्रतों से प्रारंभ करके अन्त में महा-व्रत की परिधि प्राप्त करना अन्य साधनों की अपेक्षा अधिक सरल है। शास्त्रकार का कथन है—
व्रतेन प्राप्यते दीक्षा दक्षिणा दीक्षपाप्यते।
तया च प्राप्यते श्रद्धा श्रद्धया सत्यमाप्यते॥
अर्थात्—उन्नत जीवन की योग्यता मनुष्य को व्रत से प्राप्त होती है। इसे दीक्षा कहते हैं। दीक्षा से दक्षिणा अर्थात् जो कुछ कर रहे हैं, उसके सफल परिणाम मिलते हैं। सफलता के द्वारा आदर्श और अनुष्ठान के प्रति श्रद्धा जाग्रत होती है और श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है।”
सत्य का अर्थ मनुष्य के जीवन लक्ष्य से है। यह एक क्रमिक विकास की पद्धति है। व्रत जिसका प्रारम्भ और सत्य प्राप्ति ही जिसका अन्तिम निष्कर्ष है।
व्रत का आध्यात्मिक अर्थ उन आचरणों से है जो शुद्ध, सरल और सात्विक हों और उनका पालन विशेष मनोयोगपूर्वक किया गया हो। यह देखा गया है कि व्यावहारिक जीवन में सभी लोग अधिकाँश सत्य बोलते हैं और सत्य का ही आचरण भी करते हैं, किन्तु कुछ क्षण ऐसे आ जाते हैं जब सच बोल देना स्वार्थ और इच्छा पूर्ति में बाधा उत्पन्न करता है, उस समय लोग झूठ बोल देते हैं या असत्य आचरण कर डालते हैं। निजी स्वार्थ के लिये सत्य की अवहेलना कर देने का तात्पर्य यह हुआ कि आपकी निष्ठा उस आचरण में नहीं है। इसे ही यों कहेंगे कि व्रतशील नहीं हैं।
बात अपने हित की हो अथवा दूसरे की जो शुद्ध और न्यायपूर्ण हो, उसका निष्ठा पूर्वक पालन करना ही व्रत कहलाता है। संक्षेप में आचरण शुद्धता को कठिन परिस्थितियों में भी न छोड़ना व्रत कहलाता है। संकल्प का छोटा रूप व्रत है। संकल्प की शक्ति व्यापक होती है और व्रत उसका एक अध्याय होती है। वस्तुतः व्रत और संकल्प दोनों एक ही समान हैं।
विपरीत परिस्थितियों में ही हँसी-खुशी का जीवन बिताने का अभ्यास व्रत कहलाता है। इससे मनुष्य में श्रेष्ठ कर्मों के सम्पादन की योग्यता आती है। थोड़ी सी कठिनाइयों में कर्म-विमुख होना मनुष्य की अल्प-शक्ति का बोधक है, जो कठिनाइयों में आगे बढ़ने की प्रेरणा देता रहे, ऐसी शक्ति व्रत में होती है।
नियम-पालन से मनुष्य में आत्म-विश्वास और अनुशासन की भावना आती है। जीवन के उत्थान और विकास के लिये यह दोनों शक्तियाँ अनिवार्य हैं। आत्मशक्ति या आत्म-विश्वास के अभाव में मनुष्य छोटे-छोटे भौतिक प्रयोजनों में ही लगा रहता है। अनुशासन के बिना जीवन अस्त−व्यस्त हो जाता है। शक्ति और चेष्टाओं का केन्द्रीकरण न हो पाने के कारण कोई महत्वपूर्ण सफलता नहीं बन पाती। आध्यात्मिक-लक्ष्य की प्राप्ति के लिये बिखरी हुई शक्तियों को एकत्रित करना और उन्हें मनोयोगपूर्वक जीवन-ध्येय की ओर लगाये रखना आचरण में नियम-बद्धता से ही हो पाता है। नियमितता व्यवस्थित जीवन का प्रमुख आधार है। आत्मशोधन की प्रक्रिया इसी से पूरी होती है। आत्म-वादी पुरुष का कथन है—
उत्तरोत्तर मुर्त्कषं जीवने लब्धुमुत्सुकः॥
प्रतिजाने चरिष्यामि व्रतमात्मविशुद्धये॥
मैं जीवन में उत्तरोत्तर उत्कर्ष प्राप्त करने की प्रबल इच्छा रखता हूँ। यह कार्य पवित्र आचरण या आत्मा को शुद्ध बनाने से ही पूरा होता है, इसलिये मैं व्रताचरण की प्रतिज्ञा लेता हूँ।
व्रत-पालन से आत्म विश्वास के साथ संयम की वृत्ति भी आती है। आत्म-विश्वास शक्तियों का संचय बढ़ाता है और संयम से शक्तियों का अपव्यय रुकता है। इस तरह जब विपुल शक्ति का भण्डार आत्म-कोष में भर जाता है तो आत्मा अपने आप प्रकट हो जाती है। शक्ति के बिना आत्मा को धारण करने की क्षमता नहीं आती। व्रत शक्ति का स्रोत है इसलिये आत्म-शोधन की वह प्रमुख आवश्यकता है। अपनी शक्ति और स्वरूप का ज्ञान मनुष्य को न हो तो वह जीवन में किसी तरह का उत्थान नहीं कर सकता है। शक्ति आती है तभी आत्मा विश्वास की भावना का उदय होता है और मनुष्य विकास की ओर तेजी से बढ़ता चला जाता है।
व्रत जीवन की त्रुटियों और भूलों को सुधार कर मनुष्य को शुद्ध बनाता है। असंयमित जीवन के कारण जो अनियमिततायें और अशुद्धियाँ आ जाती हैं उनका एक सफल उपचार है—व्रताचरण। गान्धी जी का प्रारम्भिक जीवन बिलकुल अस्त व्यस्त रहा है। इसलिये उन दिनों में वे कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर पाये। पहला व्रत उन्होंने 36 वर्ष की अवस्था में धारण किया। ब्रह्मचर्य से उनकी प्रसुप्त शक्तियाँ जागीं और उनका जीवन क्रम व्यवस्थित होने लगा। व्यवस्थित जीवनचर्या और आन्तरिक शक्तियों के जागरण से महात्मा गान्धी असाधारण कार्य कर सके। महापुरुषों का जीवन सदैव व्रतशील रहा है। आत्म-निर्माण के साधकों को भी सफलता के लिये आचरण की शिखा ग्रहण करनी ही पड़ती है।
जीवन की सफलता के लिये जिन-जिन विचारकों ने अपने अनुभव दिये हैं, उन सब ने पहले उसे कसौटी पर कसा होता है। उन नियमों की सत्यता के लिये हमें लम्बे परीक्षण की आवश्यकता नहीं है। इसमें समय बर्बाद करने की अपेक्षा यह अधिक श्रेष्ठ है कि उदाहरण और विवेक के द्वारा नियमों की परख करलें और उन्हें प्रयोग करने लगें, इतने से ही हम अपने श्रेष्ठ जीवन का निर्माण कर सकते हैं।
पूर्व जन्मों के संस्कारों के थोड़े से अपवाद हो सकते हैं, किन्तु अधिकाँश लोगों के लिये आत्म-ज्ञान प्राप्त करने का जो एक सरल रास्ता निश्चित किया हुआ है, वह है—नियम पालन की योग्यता। मनुष्य के जीवन में आत्म-रक्षा वृत्ति से लेकर समाज-वृत्ति तक जो मर्यादायें निश्चित हैं, उन्हीं के भीतर रहकर ही आत्म विकास करने में सुगमता होती है। एक व्यक्ति के लिये नहीं, सामूहिक हित साधना का कार्यक्रम इसी प्रकार पूरा होता है। व्यक्ति का निजी स्वार्थ भी इसी में सुरक्षित है कि सबके लिये समान व्रत का पालन करे। दूसरों को धोखे में डालकर आत्म-कल्याण का मार्ग प्राप्त नहीं किया जा सकता। साथ-साथ चल कर लक्ष्य तक पहुँचने में जो सुगमता और आनन्द है, वह अकेले चलने में नहीं है। अनुशासन और नियम पूर्वक चलते रहने से समाज में एक व्यक्ति के भी हितों की रक्षा हो जाती है और दूसरों की उन्नति का मार्ग भी अवरुद्ध नहीं होता।
सृष्टि का संचालन नियमपूर्वक चल रहा है। सूर्य अपने निर्धारित नियम के अनुसार चलता रहता है, चन्द्रमा की कलाओं का घटना बढ़ना सदैव एक सा रहता है। सारे के सारे ग्रह नक्षत्र अपने निर्धारित पथ पर ही चलते हैं, इसी से सारा संसार ठीक ठीक चल रहा है। यदि अपनी-2 मर्यादायें छोड़ दें तो आपस में टकरा कर विश्व नाश के दृश्य उपस्थिति कर दें। अग्नि-वायु समुद्र, पृथ्वी आदि सभी अपना अपना व्रत धारण किये हुये हैं। नियमों की अवज्ञा करना उन्होंने शुरू कर दिया होता तो सृष्टि-संचालन का कार्य कभी का रुक गया होता। अपने कर्तव्य का अविचल भाव से पालन करने के कारण ही देव-शक्तियाँ “अमृत-भोजी” कहलाती हैं। इन्हीं नियमों का पालन करते हुये मनुष्य भी अपना लौकिक और पारलौकिक जीवन सुखी तथा समुन्नत बना सकता है।
ऊँचे उठने की आकाँक्षा मनुष्य की आध्यात्मिक प्रतिक्रिया है। पूर्णता प्राप्त करने की कामना मनुष्य का प्राकृतिक गुण है, किन्तु हम जीवन को अस्त−व्यस्त बनाकर लक्ष्य-विमुख हो जाते हैं। हर कार्य की शुरुआत छोटी कक्षा से होती है तब कहीं श्रेष्ठता की और बढ़ पाते हैं। आत्म-ज्ञान के महान् लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रारम्भिक कक्षा व्रत-पालन ही है। इसी से हम मनुष्य जीवन को सार्थक बना सकते है। व्रताचरण से ही मनुष्य महान बनता है, यह पाठ जितनी जल्दी सीखलें उतना ही श्रेयस्कर है।