इतना तो बेटियाँ भी किया करें

March 1965

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स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों का कार्य-क्षेत्र कुछ अधिक दुरूह, जटिल और कठिनाइयों से पूर्ण होता है। अकेले श्रम की ही बात होती तो संभवतः उतनी जटिलतायें पुरुष वर्ग के सामने न होती किन्तु लोक-व्यवहार, लेन-देन, गृहस्थी के लिए आपा-धापी, धन-जुटाना, कचहरी मुकदमें आदि करना, इनमें उसे बार-बार निराशा का सामना करना होता है। कितने ही जगह उसे लताड़े मिलती हैं, कई जगह अपमान होता है। कहीं थकावट, कहीं पीड़ा। दिनभर तमाम मुसीबतों, कठिनाइयों का कामना करना पड़ता है। इतनी सारी परेशानियों का बोझ सिर पर उठा कर चलना निःसन्देह पुरुष का ही काम है। सचमुच उसे अधिक कष्ट उठाने पड़ते हैं।

दिन-भर का हारा-थका आदमी अपनी पत्नी और बच्चों से स्नेह और आत्मीयता की आशा रखकर घर पहुँचता है। सोचता है—घर पहुँचते ही पत्नी उसका स्वागत करेगी, कुछ ममत्व प्रकट करेगी, अपने दुःख को सुनकर कुछ प्रबोध देगी, धीरज बंधायेगी तो कुछ सान्त्वना मिलेगी। थके हुए आदमी को एक लोटा जल मिल जाता है तो उसका सारा श्रम दूर हो जाता है। पत्नी के इतना पूँछ लेने से “आज आपका मुख उदास क्यों है, कुछ कष्ट तो नहीं है।” मनुष्य की सारी बेचैनी दूर हो जाती है। अपना जीवन-साथी, चिर-सहचर होने का यही अर्थ तो है कि एक के दुःख-दर्द को दूसरा बँटाये, आपत्ति में कुछ धैर्य दे और उसकी पीड़ा को अपनी पीड़ा समझकर कुछ सेवा शुश्रूषा करे।

इतना करना तो दूर रहा यदि स्त्रियाँ अपने पुरुषों से ठीक तरह बात भी न करें, उन्हें बात-बात पर ताने, झिड़कियाँ देती रहें तो उस मनुष्य को कितनी पीड़ा, कितनी व्यथा होती होगी यह वह बेबस भुक्त-भोगी ही समझता होगा। ऐसी दशा में क्या कभी दाम्पत्य जीवन सुखी रह सकता है? क्या कभी स्त्रियाँ यह कल्पना कर सकती हैं कि उन्हें पुरुष का प्यार मिलेगा? ऐसे परिवारों में कभी सौजन्यता रहती होगी वह सोचा भी नहीं जा सकता।

मानते हैं कि स्त्रियों के अपने भी कुछ अधिकार हैं। उन्हें भी अपनी भावनायें व्यक्त करने के लिए आवश्यक वस्तुयें चाहिए। उन्हें भी काम करना पड़ता है, उनके लिए मान सम्मान का भी एक क्षेत्र है किन्तु अपनी परिस्थितियों को भी तो देखना, समझना ही चाहिए। अपनी आमदनी यदि सिर्फ इतनी है कि कठिनाई से बाल-बच्चों का पेट पालन हो सके, किन्तु स्त्री अधिक अच्छे कपड़े, जेवर-जकड़ों की माँग करे तो फिर कर्ज ही तो लेना होगा। यह नहीं तो कहीं चोरी-झपटी करनी पड़ेगी। इन अशुभ कृत्यों के दंड से क्या सारे परिवार का वातावरण दुःखमय, बोझयुक्त और मलिन नहीं बनता? इस तरह की माँगें कभी भी उचित नहीं कही जा सकती। स्त्रियाँ अपने लिए उतनी ही अपेक्षा कर सकती हैं जितना संभव है। नाजायज की कल्पना करना बेजा है। इससे सम्पूर्ण गृहस्थी चौपट होने का भय रहता है।

चिन्ताओं से घिरा हुआ मनुष्य कभी ठीक तरह से सोच नहीं सकता। उसकी कार्य-क्षमता दिन-प्रतिदिन घटती जाती है। शरीर गिर जाता है। कई व्यक्ति तो हार मानकर घर छोड़कर भाग जाते हैं, कई आत्महत्यायें कर डालते हैं। कितने ही अपने शरीर को सुखा-सुखाकर अकाल मौत के घाट उतर जाते हैं। स्त्रियों को पुरुषों के मस्तिष्क में इस प्रकार की चिन्तायें पैदा करने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए।

इतना तो कम क्या अनपढ़ स्त्रियाँ भी समझती हैं कि जैसी भी कुछ परिस्थिति है, जैसा भी कुछ रूप-कुरूप आदमी है, है तो अपना ही। अपनों के साथ भी यदि प्रेम-पूर्ण व्यवहार न किया जाय तो गृहस्थ-जीवन में सरसता कैसे आयेगी? हर व्यक्ति अपनी पत्नी-बच्चों से अपेक्षाकृत अधिक मधुर तथा सहृदय व्यवहार की आशा रखता है। यदि वह प्यार और आत्मीयता उसे न मिले तो मनुष्य गृहस्थी के मामलों में भी पूरी लगन से दिलचस्पी न लेगा। वह परिवार सदा डाँवाडोल परिस्थिति में ही पड़ा रहेगा।

क्या हमारी बेटियों की अवस्था सती शाँडिली से भी गई बीती होगी। अपने कोढ़ी पति को सम्पूर्ण प्यार उत्सर्ग कर देने वाली इस सती-कन्या से बढ़कर विपरीत परिस्थिति आज तक शायद ही किसी नारी को मिली होगी। सहज स्नेह, स्वाभाविक निश्छलता और मधुर व्यवहार स्त्रियों के आभूषण हैं। नम्रता, विनयशीलता तथा मधुर शब्दों से वह अपने दुष्ट से भी दुष्ट पतियों के हृदय जीत सकती हैं। उनकी महानता पुरुष बनाने में है न कि उन्हें शैतान। यह उत्तरदायित्व बहुत कुछ स्त्रियों पर भी है। उन्हीं के गौरव से आज भी भारत का गौरव है। उन्हीं की शक्ति और तपश्चर्या के प्रभाव से भारतीय संस्कृति आज भी जीवित है और युगान्तरों तक अमर रहेगी।

किन्तु इन दिनों परिस्थिति विपरीत होती जा रही है। अशिक्षा और रूढ़िवादी अन्ध परम्पराओं के फलस्वरूप अब स्त्रियों में भी वह कर्त्तव्य भावना घट रही है। पुरुष स्वभाव से कुछ अधिक स्वाभिमानी होते हैं। थोड़ा-सा भी यदि मान-सम्मान उन्हें अपनी पत्नियों से मिलता रहे तो दाम्पत्य-जीवन के अधिकाँश कलह दूर हो सकते हैं।

दाम्पत्य-जीवन का सच्चा सार है—पारस्परिक प्रेम, सहानुभूति और आत्मीयता। उन्हें यह दृढ़ प्रतिज्ञा लेनी चाहिए कि हम प्रत्येक स्थिति में प्रेम, सहानुभूति, त्याग, शील-आदान-प्रदान, आशा, विश्वास, सहिष्णुता आदि का परित्याग नहीं करेंगे और इसका सजगता के साथ निर्वाह करना चाहिये।

भावना की दृष्टि से स्त्रियाँ अधिक कोमल होती हैं, किन्तु पुरुषों में कार्यक्षेत्र की जटिलता के कारण कठोरता कुछ अधिक होती है। अतः गृहस्थ को सुखी रखने की अधिकाँश जिम्मेदारी स्त्रियों पर आती है। उन्हें अपेक्षाकृत अधिक सहिष्णु मधुर-भाषी तथा व्यवहारकुशल होना चाहिए। स्त्री को अनन्य भावना से पति में लीन हो जाने में ही सुख मानना चाहिए। समर्पण नारी का बड़प्पन है इससे उसे सम्मान भी मिलता है, प्रेम भी। सारा परिवार जो सुख से भरा-पूरा रहता है वह इस तरह के स्त्री पुरुषों के आध्यात्मिक सम्मिलन से ही होता है।

जीवन संघर्ष में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का संपर्क अधिक होता है। पुरुषों का क्षेत्र रोजगार तथा कमाई धन्धे तक ही सीमित है किन्तु स्त्रियाँ समाज का निर्माण करती हैं अतः उनके शिक्षित होने का महत्व अधिक है। उनके लिए कल्पना मूलक शिक्षा की उतनी आवश्यकता नहीं है। घर में तथा समाज के यथायोग्य निर्माण का काम नारी को करना पड़ता है, इसलिए उसे कर्त्तव्य मूलक शिक्षा की आवश्यकता होती है। इसके लिए यह जरूरी है कि उन्हें स्कूली शिक्षा के साथ रचनात्मक व्यवहार की भी शिक्षा मिलनी चाहिए।

हमारे धर्म-ग्रन्थों और विज्ञजनों का यह कथन पूर्णतया सत्य है कि गृहस्थ जीवन का, और इस दृष्टि से मनुष्य समाज का सुचारु रूप से संचालन, सद्गुणी पत्नियों पर ही आधार रखता है। इसलिए स्त्रियों को सुयोग्य गृहिणी का पद प्राप्त करने की सदैव चेष्टा करनी चाहिए। बालकों के निर्माण और इस दृष्टि से सम्पूर्ण राष्ट्र के निर्माण का उत्तरदायित्व स्त्रियों पर आता है। यह जिम्मेदारी सचमुच बहुत बड़ी है इसका निर्वाह पूर्ण समझदारी के साथ ही किया जा सकता है।

आज सम्पूर्ण नारी जाति का कर्त्तव्य है कि निन्दनीय वातावरण छोड़कर आगे बढ़े, और समाज सुधार, नैतिक उत्थान तथा धार्मिक पुनर्जागरण का संदेश मानवता को दें। उन्हें इस ढंग से कार्य करना होगा कि पुरुषों को बल मिले, उनकी खोई हुई शक्तियाँ जागें। इसके लिए उन्हें पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर आगे बढ़ना होगा। अपने कार्यक्षेत्र का सफलतापूर्वक निर्वाह किये बिना विकास की गति को स्त्रियाँ प्रवाहमान नहीं रख सकतीं। उन्हें सारे उत्तरदायित्व समझदारी से निभाने पड़ेंगे।

यह शिक्षा हमारी बच्चियों को प्रारम्भ से ही मिलनी चाहिए। सुशील सुन्दर आचरणयुक्त एवं मधुर-भाषिणी स्त्रियाँ जहाँ भी जाती हैं वहीं स्वर्ग उतर आता है। विपरीत परिस्थितियों, गरीबी और अभाव में भी विनम्र पत्नियाँ, घरेलू वातावरण को खुशहाल तथा उल्लासमय बना सकती हैं। हमारी बेटियाँ सत्य, शिव और सौंदर्य गुणों को धारण करें तो हमारा देश पुनः वही प्राचीन गौरव प्राप्त कर सकता है।


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