फ्रेडरिक महान शासक होने के साथ-साथ कुछ नाटक लिखने का भी शौक रखता था। वह अपने लिखे नाटक अपने दरबारियों को सुनाया करता था। दरबारी नाटक अच्छा न होने पर भी उसकी तारीफ के पुल बाँध दिया करते थे। इससे फ्रेडरिक को अपने बहुत बड़े नाटककार होने का भ्रम हो गया।
उसी के समय में “व्हाल्टायर” नाम का एक बहुत ही जाना-माना प्रसिद्ध नाटककार था। फ्रेडरिक-द-ग्रेट ने एक बार उक्त नाटककार को आमंत्रित कर बड़े गर्व से अपना नाटक सुनाया। उसे आशा थी ‘व्हाल्टायर’ भी अन्य दरबारियों की तरह राज-रचना होने के कारण प्रभावित हो प्रशंसा करेगा।
किन्तु उस नाटक-मर्मज्ञ व्हाल्टायर ने उसका नाटक सुनकर बड़ी ही स्पष्टता से असफल और रद्दी कह दिया। इस पर फ्रेडरिक को बहुत बुरा लगा और उसने व्हाल्टायर को जेल भिजवा दिया।
कुछ समय बाद फ्रेडरिक ने एक और नाटक लिखा, और उसने व्हाल्टायर को बन्दीगृह से बुलवाकर अपना नया नाटक सुनाया। उसे विश्वास था कि व्हाल्टायर का दिमाग जेल की यातनाओं से बदल गया होगा और अब वह अवश्य नाटक की तारीफ करेगा।
किन्तु व्हाल्टायर नाटक सुनते-सुनते बीच में ही उठ कर चल दिया। फ्रेडरिक ने पूछा—”कहाँ जा रहे हो?” इस पर उस नाटककार ने उत्तर दिया कि—”आपका यह नाटक सुनने से तो जेल की यातना अच्छी है।”
उसकी इस प्रकार निर्भीक स्पष्टोक्ति से फ्रेडरिक महान बहुत प्रभावित हुआ और व्हाल्टायर को जेल से मुक्त करके उसे अपना साहित्यिक गुरु मान लिया।