सन्तान न होना-कोई दुर्भाग्य तो है नहीं

March 1965

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सुख की अनेक मृग-तृष्णाओं में से पुत्र-प्राप्ति की लालसा भी बड़ी जबर्दस्त है। पुत्र न होना इस अभागे समाज में दुर्भाग्य समझा जाता है अतः विवाह होने के दो-चार वर्ष बाद ही यदि किसी के बच्चा पैदा नहीं हुआ तो लोग विक्षुब्ध होने लगते हैं। तरह-तरह की मनौतियां मनाते हैं। डाक्टरों और देवी-देवताओं की शरण में धन फूँकते रहते हैं। किन्तु परमात्मा के अधिकार की बात, यदि पूरी नहीं हुई, पुत्र का जन्म नहीं हुआ, तो बेतरह बेचैन होते हैं। कई पुत्र गोद लेने की बात करते हैं, कई दूसरी शादी करते हैं।

प्रजनन प्रकृति को अपनी सृष्टि संचालन व्यवस्था को चलाते रहने के रूप में आवश्यक है। इसलिए उसने प्राणियों को एक ऐसे जाल-जंजाल में जकड़ दिया है कि आमतौर से उन्हें उसी गोरखधन्धे को सुलझाने में अपना जीवन-क्रम पूरा करना पड़ता है। पुरुषों में प्रबल कामेच्छा और स्त्रियों में तीव्र मातृत्व की भावना नहीं होती तो सम्भवतः इस सृष्टि का क्रम पहले ही रुक गया होता। विषय भोग की इच्छायें ही सन्तान के प्रति ममता, नाना प्रकार की तृष्णाओं तथा माया-मोह के जाल में मनुष्य को फँसाये रखती हैं और इस संसार के सारे काम विधिवत् चलते रहते है। संसार के बहुत थोड़े से व्यक्ति कोई महान् उद्देश्य लेकर जीवन जीते हैं, अधिकाँश लोग तो इसी भूल-भुलैया में पड़े हुए जीवन यापन करते रहते हैं। विषय भोग, नारी का आकर्षण और सन्तान सुख की झूठी कल्पनाओं में ही मनुष्य जीवन का सारा ताना-बाना चलता रहता है।

जहाँ तक प्राकृतिक जीवन की बात है विषय-वासना और सन्तानोत्पत्ति कोई अपराध नहीं हैं बल्कि यह एक प्रकार से कालक्षेप करने का अच्छा मनोविनोद ही है। किन्तु सन्तान के लिए अनुचित मोह मनुष्य के लिए उचित नहीं है। जिनके यहाँ कोई सन्तान नहीं है उन्हें समझना चाहिए कि परमात्मा ने उनके लिए धर्म-कर्म और जीवन-लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अधिक सुअवसर प्रदान किया है।

पिण्डदान और सन्तान के द्वारा तर्पण आदि से जो स्वर्ग और मोक्ष की अभिलाषा करते हैं उन्हें यह समझना चाहिए कि परमात्मा कर्मकाण्ड के बाह्य स्वरूप को देखकर ही किसी के लिए पुण्य-फल और स्वर्ग-मुक्ति की व्यवस्था नहीं कर देता। अपने ही अच्छे-बुरे कर्मों का फल मनुष्य भोगता है। फिर प्रत्येक सन्तान सद्गुणी ही होगी इसका भी तो कुछ ठीक-ठीक पता नहीं है। सन्तान के द्वारा स्वर्ग-मुक्ति की कल्पना इस दृष्टि से प्रवंचना मात्र है, इसके लिए दुःखी होना मनुष्य के लिए उचित नहीं।

जिस तरह अनियंत्रित कामवासना अधर्म है उसी तरह सन्तान के लिए मोह-भाव बन्धन का कारण है। मनुष्य जीवन का यह तुच्छ सा उपयोग है। हमारा जीवन इससे ऊँचे उठ कर जब विशुद्ध पारमार्थिक कर्मों में प्रवृत्त होता है तभी सुख-स्वर्ग की कल्पना की जा सकती है। इसके लिए सन्तान हो ही यह कोई जरूरी नहीं है। सन्तान पालन के लिए जो जीवन विविध कर्मों में फँसा देना पड़ता है वह, यदि सन्तान न हों, तो बचाकर श्रेय की साधना पूरी कर सकता है। अतः इन से वैराग्य उत्पन्न करने और इनकी ओर चित्तवृत्तियों को न भटकने देने में ही कल्याण है। जिनके सन्तान है उन्हें तो अपने कर्त्तव्य का पालन करना ही चाहिए पर जिन्हें सन्तान उपलब्ध नहीं हुई उन्हें अकारण परेशान नहीं रहना चाहिए। “पुत्र होता तो सुख मिलता” यह कल्पना सर्वथा निराधार है। अनेक व्यक्तियों को सन्तान के द्वारा कष्ट पाते देखा गया है। इसके विपरीत कितने ही ऐसे हुये हैं जिन्होंने सन्तान न होने पर भी अपेक्षाकृत अधिक आनन्द अनुभव करते हुए सुविकसित जीवन बिताया है।

राजा महेन्द्र प्रताप ऐसे ही व्यक्तियों में से एक हैं। कहते हैं उनके कोई सन्तान नहीं थी फिर भी एक दिन उन्होंने सभी नाते-रिश्तेदारों को पुत्र के नामकरण संस्कार में सम्मिलित होने का निमंत्रण भेज दिया। आचार्य के रूप में महामना मदनमोहन मालवीय जी आमंत्रित थे। उत्सव में सारे-उपक्रम जुटाये जा चुके थे पर सभी को एक ही हैरानी हो रही थी कि राजा साहब के तो कोई सन्तान है ही नहीं फिर नामकरण संस्कार किसका किया जायगा? सभी कौतूहल में थे, तभी मालवीय जी ने घोषणा की कि राजा साहब ने सन्तान के रूप में एक विद्यालय को जन्म दिया है उसी का नामकरण किया जाना है।

पुत्र रहा होता तो सम्भवतः राजा साहब को कोई जानता भी नहीं किन्तु जिस “प्रेम महाविद्यालय” को उन्होंने जन्म दिया उसके कारण देश-विदेश में सर्वत्र उनको लोग श्रद्धा से सिर झुकाते हैं।

बालक आगे चलकर पिता का नाम रोशन करता है, यह सोचना नितान्त भ्रमपूर्ण है। विचार करके देख सकते हैं कि अब तक संसार में कितने लोग मर कर चले गये इनमें से कितने सौभाग्यवान ऐसे हैं जिन्हें पुत्रों को द्वारा यश मिला है? ऐसे व्यक्ति बहुत ही थोड़े होंगे। यश मनुष्य को तप, त्याग और श्रेष्ठ कर्मों के सम्पादन से मिलता है। इसके लिए निःसन्तान होना कोई बाधा नहीं है।

बालक के पालन-पोषण, सेवा-शुश्रूषा में जो झंझट उठाने पड़ते हैं उनसे दाम्पत्य-जीवन का सारा आनन्द ही चला जाता है। लोग चाहें तो इस अवसर का लाभ ज्ञान-वृद्धि के रूप में प्राप्त कर सकते हैं। समय का सदुपयोग व्यक्तिगत योग्यता बढ़ाने से लेकर जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति तक किसी में भी किया जा सकता है। पति-पत्नी आपस में अधिक स्नेह, आत्मीयता और सहानुभूति अनुभव कर सकते हैं।

कई बार मनुष्य अपनी अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति पुत्र या पुत्री के माध्यम से पूर्ण हुआ देखना चाहते हैं। जिन्हें परिस्थितिवश अधिक शिक्षा प्राप्त करने का अवसर नहीं मिला वे सोचा करते हैं कि अपने बच्चे को खूब पढ़ा-लिखा कर विद्वान बना देंगे, ताकि सर्वत्र उसका सम्मान किया जाय। इसमें लोग अपना गौरव भी समझते हैं। पुत्री की अपेक्षा पुत्र से यह सौभाग्य प्राप्त करने की अधिक आशा की जाती है। यह दृष्टिकोण सन्तान के प्रति और भी मोह उत्पन्न करने वाला है। परन्तु यह मनुष्य का बिलकुल ओछा दृष्टिकोण है। अपने ही बालक हों तो उनकी शिक्षा तथा विकास में सुख देखने की धारणा मनुष्य के स्वार्थीपन का लक्षण है। समाज में कितने ही बालक ऐसे होंगे जो साधनों के अभाव में अविकसित रह रहे होंगे। विकास के लक्षण होते हुए भी उनकी परिस्थितियाँ अनुकूल न बन पाती होंगी। इन बालकों के उत्थान के लिए यदि निःसन्तान व्यक्ति कुछ योग दे सकें तो यह उनके लिए अधिक सुख तथा संतोष की बात होगी। हमें अपने आप तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। यह सोचना चाहिए। कि यह सारा संसार अपना ही घर है। यहाँ सभी अपने भाई, मित्र, पड़ोसी और बालक हैं। यह सोचकर सभी के हित और कल्याण की दृष्टि से जब कर्त्तव्य-पालन किया जाता है तो अपेक्षाकृत अधिक सुख का अनुभव होता है।

वृद्धावस्था में पुत्र सुख देगा ही अब इसकी भी कोई गारण्टी नहीं रह गई। बालक कुसंस्कारी हो तो मनुष्य तरह-तरह के झंझटों, कलह और मुसीबतों में ही पड़े रहते हैं। यौवन के उन्माद में आजकल के युवक प्रायः अशिष्टता का ही बर्ताव करते हैं। अधिकाँश बालक तो यही सोचते हैं कि कब बाप मरे और उसकी सम्पत्ति का उत्तराधिकार प्राप्त हो। शौक और मौज के लिए कई स्वेच्छाचारी तो अपने अभिभावकों के प्राण तक लेने से नहीं चूकते।

आप यदि निःसन्तान है तो सन्तोष अनुभव कीजिए कि आप अनेकों, झंझटों से मुक्त हैं। संसार में बालकों की भी कोई कमी है। इन सभी को अपना ही अनुभव किया कीजिये और उन्हें वात्सल्य दान दिया कीजिए। इससे आप कहीं अधिक सुख का अनुभव कर सकेंगे। संसार में आत्मा की दृष्टि से सब एक ही हैं। अपने पराये का कहीं कोई भेद-भाव नहीं है। अपने हृदय की विशालता अनुभव कीजिए और पुत्र-प्राप्ति का अनावश्यक मोह छोड़कर अपना आध्यात्मिक लक्ष्य पूरा कीजिए। सन्तान न होना कोई दुर्भाग्य नहीं है। आप सभी के बालकों को अपना ही समझा करें। इससे आपको सुख मिलेगा, सन्तोष बढ़ेगा और शान्ति उपलब्ध हो सकेगी।


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