सम्मान इस तरह मिलता है।

March 1965

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यश और सम्मान प्राप्त करने की अभिलाषा प्रत्येक मनुष्य को होती है। किन्तु जिन कार्यों से सम्पादन मिलना संभव होता है, उन्हें करने के लिए बहुत कम लोग राजी होते हैं। झूठे सम्मान के लोभी व्यक्तियों को बहुत प्रयास करने पर भी असफलता ही हाथ लगती है। जिस योग्यता पर यश मिलता और सम्मान बढ़ता है, उसे बढ़ाया न जाय तो यह महत्वाकांक्षा अधूरी ही बनी रहेगी। उचित योग्यता के अभाव में भला किसी को सम्मान मिला भी है?

मनुष्य की बड़ी इच्छा होती है कि वह प्रधान मन्त्री बन जाय। सेनापति या कोई वरिष्ठ पद पाने की कामना तो बहुत लोग करते हैं, पर राज्य-संचालन, सैन्य-व्यवस्था की उचित योग्यता न हुई तो यह अधिकार कैसे मिल सकेंगे? संयोगवश यदि मिल भी जायें तो बन्दर के हाथ में तलवार के समान आफतों को बुलावा देना ही होगा। इस तरह मिला सम्मान दुःख, क्लेश और अशान्ति ही दे सकता है। उससे मनुष्य की आकाँक्षा किसी भी तरह पूरी नहीं होती।

इस संसार को व्यवस्थित रखने के लिए प्रकृति ने एक कानून लागू किया है।—विनिमय का अधिनियम। एक वस्तु दो, तब दूसरी मिलती है। रुपया दो तो खाद्य, वस्त्र आदि कोई भी वस्तु खरीद सकते हैं। श्रम और योग्यता के बदले में कुछ मिलता है। निष्क्रिय होकर किसी वस्तु की कामना बालबुद्धि की परिचायक है। उचित मूल्य चुकाये बिना इस संसार में कुछ भी नहीं मिलता। इस नियम का उल्लंघन हम कभी भी नहीं कर सकते। सीधा उपाय यह है कि जो वस्तु आप प्राप्त करना चाहते हैं उसके लिए वैसी योग्यता भी प्राप्त कीजिए। योग्यता अपने आप अभीष्ट स्थान तक पहुँचा देती है। अयोग्य की कामनायें कभी पूर्ण नहीं होतीं।

आप यदि यह चाहते हैं कि आप सम्मानित व्यक्ति ठहराये जायँ, आपकी प्रशंसा हो, सभी आपको आदर दें, तो आदरणीय पुरुषों की विशेषताओं का आपको अध्ययन करना होगा। जिन गुणों के आधार पर लोग आदर के पात्र गिने जाते हैं, उनका अनुसरण करेंगे तो आपका गौरव भी जागृत होगा और बड़प्पन मिलेगा। किन्तु यदि आप बाहरी टीम-टाम के द्वारा लोगों को भ्रम में डालकर सम्मान प्राप्त करने की कामना करेंगे तो महँगा मोल चुकाकर भी आपके हाथ कुछ न आयेगा। धूर्त व्यक्ति अपनी चालाकियों से कुछ देर के लिए बड़ी-बड़ी बातें बनाकर, धन का अभिमान जताकर, रूप-गुण की झूठी प्रदर्शनी लगा कर कुछ थोड़ा-सा सम्मान प्राप्त कर भी ले तो वह आन्तरिक उल्लास नहीं मिल सकेगा जो मिलना चाहिए था। उल्टे जब इस नाटक का पर्दाफाश होता है तो लोग धूर्त और पाखण्डी ठहराकर तरह-तरह से भर्त्सना, उपहास और निन्दा करते हैं। कागज की नाव कब तक चलती? उसे डूबना ही था। धूर्तता की जालसाजी का पर्दा खुल जाता है तो भारी अशान्ति होती है। सम्मान तो मिलता नहीं, अपमान ही भोगना होता है।

गुणों को विकास करने में प्रयत्नशील हों तो सन्देह नहीं आप सम्मान प्राप्त करेंगे। लोग गुणों की पूजा करते हैं, व्यक्ति की नहीं। सच्चाई को सिर झुकाते हैं बनावटीपन को नहीं। टेसू का फूल देखने में बड़ा आकर्षक होता है, किन्तु लोग गुलाब की सुवास को अधिक पसन्द करते हैं।

आप में सद्गुणों का विकास हो तो आप अवश्य ही प्रशंसा के पात्र हैं। गुणों की मात्रा जितनी बढ़ती है, जितनी मनुष्य की योग्यता विकसित होती है, उसी अनुपात में लोग उधर आकर्षित होते हैं। अच्छा काम करने वालों की सर्वत्र प्रशंसा होती है। विद्वान सिसरो का कथन है—”सम्मान सद्गुण का पुरस्कार है।” यह बात अक्षरशः सत्य है कि सच्चा सम्मान गुणवान् को ही प्राप्त होता है।

आपके किसी एक गुण का विकास सामान्य श्रेणी के व्यक्तियों से जितना अधिक होगा उतना ही आपको अधिक यश मिलेगा। कर्ण के युग में दान देने की परम्परा सामान्य थी, किन्तु यह प्रवृत्ति कर्ण में विलक्षणता लिए हुये थी। दान की परम्परा में वह श्रेष्ठतम प्रमाण बना, इसलिये उसे “दानवीर” कहलाने का सौभाग्य मिल सका।

माता-पिता के प्रति आदर और सम्मान की भावनायें अधिकाँश लोगों में होती हैं। लोग अपनी श्रद्धा के अनुसार उनकी सेवा सुश्रूषा भी करते हैं, किन्तु श्रवणकुमार की पितृभक्ति पराकाष्ठा का स्पर्श करने लगी थी, इसलिए उसे सर्वोच्च ख्याति मिली। सद्गुणों के प्रति निष्ठावान् होने से ही सर्वोपरि सम्मान मिलता है।

यों मानवता के प्रति उत्सर्ग की भावना कुछ न कुछ सभी में होती है। अपनी-अपनी सामर्थ्य और योग्यता के अनुसार लोग इस आध्यात्मिक सद्गुण को अपनाते भी हैं, किन्तु देवत्व की स्थापना में अपने आप को जीवित होम कर देने के कारण जो बड़प्पन, गौरव और उच्च पद महर्षि दधीचि को मिल गया, वह अन्य किसी को नहीं। यश की साधना में किसी एक सद्गुण पर पूर्ण रूप से निष्ठावान् होना पड़ता है। आजीवन ब्रह्मचर्य रहने वाले भीष्मपितामह, परम भक्त हनुमान, महासती अनुसुइया, तपस्वी दुर्वासा, सत्य वाही हरिश्चन्द्र अपने विशिष्ट गुणों के कारण ही उच्चतम सम्मान पाने के अधिकारी बन सके थे। गुणों की विशिष्टता के कारण ही पूज्य-पद प्राप्त होते आये हैं। यह सनातन नियम आगे भी इसी तरह चलता रहेगा।

विशेषता-रहित व्यक्ति को कभी लोग पूछते भी नहीं। अपने ही परिवार के एक-दो पीढ़ी के ऊपर के पूर्वजों का लोग नाम तक नहीं जानते। इसका एक ही कारण है कि उनमें कोई विशिष्टता नहीं रही होती। किन्तु रघु, अज और दिलीप आदि का अपनी अनेक पीढ़ियों को ज्ञान होना उनकी अपनी ही विशिष्टता के कारण था।

विलक्षणता अभ्यास और परिश्रम से मिलती है, किन्तु सर्वप्रथम इसके लिए अतुलनीय साहस उत्पन्न करना पड़ता है। साहस के बिना वह शक्ति नहीं आती जो विपन्न स्थिति में धैर्य स्थिर रख सके। सर्वोपरिता प्राप्त करे के लिए घोर कष्टों का सामना किये बिना कोई बच नहीं सकता। साहस से कष्ट सहिष्णुता आती है जिससे लोग हँसते हुए उन कठिनाइयों को झेल लेते हैं जो किसी गुण को उच्चतम नैतिक स्तर पर धारण करने से आती है। जब इस तरह का विशाल हृदय मनुष्य का बन जाता है तो यश स्वयमेव आकर उसके पाँव चूमने लगता है। यह उच्चता सम्मान की अभिलाषा से न हो। कर्त्तव्य बुद्धि के परिष्कार से ही गुणों की पराकाष्ठा तक पहुँच पाना संभव है। यश का लोभ कामना पूर्ति में विलम्ब होते या विघ्न आते देखकर बीच में ही गिरा देता है। इसलिए उसे त्याज्य कहा गया है। यश की अभिलाषा आन्तरिक हो और किसी आदर्श पर प्रतिरोपित हो तो ही मनुष्य कठिनाइयों के उच्च शिखर पर चढ़ता चला जाता है।

श्रेष्ठता प्राप्त करने का अभ्यास आवेश या अंधानुकरण पर आधारित न हो अन्यथा अधिक देर तक उस सत्कर्म में टिके रहना संभव न होगा और उतना परिश्रम व्यर्थ चल जायेगा। साथ ही निन्दा के पात्र बनेंगे। लोग उपहास करेंगे। इसलिए विचार करें कि अपनी प्रकृति, स्थिति और शक्ति के अनुसार कौन-सी विशेषता सहज ही में प्रकट कर सकेंगे। दान, सेवा, भक्ति, चरित्र की निर्मलता, ब्रह्मचर्य आदि का चुनाव अपनी स्थिति को ध्यान में रखकर करें। विपरीत स्थिति और शक्ति से बढ़कर किए गए प्रयास प्रायः निष्फल होते हैं। या फिर साहस इतना बुलन्द हो कि हर स्थिति की कठोरता को अन्त तक सहन कर सकें। इससे अच्छा यही है कि अपनी सामर्थ्य को ध्यान में रखकर ही गुणों का रचनात्मक विकास करें।

सामान्य स्तर के व्यक्ति के लिए भी जीवन में सम्मान प्राप्त करने का एक सीधा-सच्चा उपाय है और वह है—सबके प्रति आदर और शुभ-अभिलाषा का भाव। किसी के प्रति वैर-भाव, ईर्ष्या-द्वेष और प्रतिशोध की भावना न रखना, सबके साथ मिलकर, प्रेम, न्याय, दया, करुणा और सहृदयता से रहकर यह स्थिति सहज ही में प्राप्त हो जाती है। ऐसे निर्मल स्वभाव के व्यक्तियों का किसी के साथ विरोध नहीं होता। उन्हें सभी ओर से सम्मान मिलता है।

सम्मान प्राप्ति की आध्यात्मिक भूख को बुझाने के लिए हमें अपनी श्रेष्ठताएँ और विशेषताएँ निरन्तर बढ़ानी चाहिए। अपना चरित्र अपेक्षाकृत अधिक उज्ज्वल बनाने के लिए और जनहित के लिए अधिक त्याग करने का आवश्यक साहस संचय करना चाहिए। उत्कृष्टता के मूल्य पर ही कोई व्यक्ति जन-साधारण की श्रद्धा का पात्र बन सकता है।


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