मनुष्य का निर्माण उसकी भावनाओं की पृष्ठभूमि पर होता है। जैसा वह सोचता, समझता और विचार करता है, प्रायः वैसा ही बन जाता है। भलाई की भावना लोगों को उच्चस्तर की ओर, महानता की ओर अग्रसर करती है। अनिष्टकारी, दीन और निकृष्ट भावनाओं से मनुष्य का जीवन दुःखी, उदासीन तथा पतनोन्मुख होता है। क्योंकि भीतरी भावनाओं के अनुरूप ही बाहरी क्रियाकलाप होते हैं और वैसे ही परिणाम भी उत्पन्न होते हैं। काम से अधिक उस भावना का महत्व होता है जो उस क्रिया का संचालन करती है। जो काम शुद्ध हृदय से होता है, देखने में वह छोटा भले ही हो परन्तु उसका फल बड़ा ही महत्वपूर्ण होता है। बड़े से बड़ा काम भी अगर हीन आदर्श लेकर किया जाय तो उसकी कोई बड़ी कीमत नहीं हो सकती।
बुराइयों के प्रति लोगों में जिस तरह आकर्षण होता है, उसी तरह यदि ऐसा दृढ़ भाव हो जाय कि हमें अमुक शुभ-कर्म अपने जीवन में पूरा करना ही है तो उस कार्य की सफलता असंदिग्ध हो जायगी। यदि सिनेमा न देखने का, बीड़ी-सिगरेट न पीने का, जुआ न खेलने का, माँस-मदिरा न सेवन करने का व्रत ठाना जाय और उस व्रत का दृढ़तापूर्वक पालन किया जाय तो इन दुर्गुणों के कारण मलिन होने वाले स्वभाव में स्वच्छता आयेगी, स्वास्थ्य ठीक रहेगा, मानसिक सन्तुलन बना रहेगा। यह लाभ मिल सकते हैं, किन्तु उन्हें सत्संकल्पों द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।
झूठ बोलना अब लोग व्यावहारिक समझने लगे हैं इसी कारण से सात्विक-जीवन के अनेक उद्देश्य इच्छा रखते हुये ही पूरे नहीं हो पाते। बीड़ी पीना स्वास्थ्य और आर्थिक अपव्यय की दृष्टि से नितांत हानिकारक है, यह हर बीड़ी पीने वाला समझता है और उसके अनौचित्य तथा दुष्परिणामों से प्रभावित होकर धूम्रपान न करने की शपथ भी लेता है किन्तु दृढ़ भावना के अभाव में वह प्रतिज्ञा निभ नहीं पाती, पूरी नहीं हो पाती। सत्य के लिए श्रद्धा होती और उद्देश्य में कुछ सबलता रही होती तो यह कार्य ऐसे नहीं हैं जिन्हें करने पर मनुष्य को कुछ हानि होती। उल्टे इसमें फायदा ही है। पर लोगों का मनोबल इतना दुर्बल होता है कि वे संकल्प कर लेने के बाद देर तक उसमें टिक नहीं पाते। शपथ या संकल्प की विजय दृढ़-निश्चय और सुदृढ़ भावना से होती है।
महापुरुषों की सफलता में उनकी दृढ़-भावना, उच्चतम उद्देश्य के लिए अन्यतम कष्ट, सहिष्णुता ही प्रधान कारण होती है। महाराणा प्रताप ने सौगन्ध खाई थी कि मेवाड़ को वापस न लेने तक वे राजसी-जीवन को धारण नहीं करेंगे। महात्मा गांधी का स्वतन्त्रता आन्दोलन उनके दृढ़-निश्चय का प्रतीक था। महर्षि दयानन्द के हृदय में अपने धर्म, संस्कृति के उत्थान की प्रबल भावना थी—तभी इन महापुरुषों ने अपने लक्ष्य को पूरा भी किया। हवा के एक झोंके में बुझ जाने वाला दीपक नहीं, निरन्तर संकल्पशील सूर्य ही संसार को प्रकाश दे पाता है। जीवन में किसी सद्-उद्देश्य की सफलता के लिए दृढ़-निश्चय होना परमावश्यक है।
दृढ़-भावना रचनात्मक प्रवृत्तियों का विकास करती है। उससे सफलता के अनेकों नये-नये मार्ग स्वतः सूझ पड़ते हैं, जिन्हें सामान्य श्रेणी के व्यक्ति बड़े कौतूहल से देखते हैं। जीवन में जो कुछ करना है उसके लिए यदि मनुष्य का साहस जाग जाय तो शायद ही कोई बाधा उसे उसके निश्चय से हटा सके। विद्याबाँकुरे ईश्वरचन्द्र विद्यासागर अत्यन्त निर्धन परिवार के थे, मुश्किल से फीस और किताबों के पैसे जुटा पाते थे किन्तु विद्याध्ययन की जो उनमें उत्कट चाह थी उससे उनकी वह मनोकामना भी पूरी हुई। विद्यासागर चौराहे की लालटेन के प्रकाश में बैठकर अपना पाठ याद किया करते थे। अपने अदम्य उत्साह और परिस्थितियों से संघर्ष करने की शक्ति के बल पर ही वे सिद्ध मनोरथ हो सके।
मनुष्य के अनेक कर्मों में भावना का सम्मिश्रित होना अनिवार्य है। दृढ़-भावना और कार्य करने की क्षमता के संयोग से ही पूर्ण सफलता संभव है। वृक्ष दो तरह से जीवन तत्व ग्रहण करता है। जड़े पृथ्वी से रस खींचती हैं और पत्तियाँ सूक्ष्म आकाश से प्राण-शक्ति का अवगाहन करती हैं। इन दोनों क्रियाओं के साथ-साथ चलते रहने के कारण ही वृक्ष फल-फूल पैदा करने में सफल हो पाता है मनुष्य का जीवन भी हरा-भरा सुखी-सम्पन्न बना रहे इसके लिए उसमें कर्म और भावना का सम्मिश्रण होना जरूरी है। भावना के अभाव में वे क्रियायें पूरी नहीं हो सकती जो समृद्धि और सम्पन्नता के लिए आवश्यक हैं। चाहे अपना उद्देश्य आध्यात्मिक हो चाहे भौतिक, भावनाओं में दृढ़ता रहेगी तभी कुछ बन सकेगा, कुछ सफलता मिल सकेगी।
मनुष्य की असलियत का संबोधन उसकी आन्तरिक भावनायें कराती हैं। भावनाओं का प्रभाव बाह्य शरीर पर भी लक्षित हुये बिना नहीं रहता। पापी, कुकर्मी तथा आततायी पुरुषों की मुखाकृति ही बतला देती है कि वह कैसा आदमी है। गम्भीर व्यक्तियों को देखने से ही उनके प्रभाव का पता चल जाता है। मनुष्य की निकृष्टता या उत्कृष्टता के भाव उसकी प्रत्येक क्रिया रहन-सहन व बोलचाल से परिलक्षित होते हैं। इन्हीं के आधार पर औरों से मान-सम्मान, मैत्री, आत्मीयता आदि की प्राप्ति होती है। जिनकी भावनायें भौंड़ी और कुरूप होती हैं उनसे लोग घृणा करते हैं। जिनकी भावनायें ऊँची होती हैं, दृढ़ और रचनात्मक होती हैं उनकी समीपता से लोगों को प्रेरणा मिलती है।
कर्त्ता की भावना जब लक्ष्यवान होती है तो वह भीतर ही भीतर प्राण व शक्ति का संचार करती है इससे उसे अनेक अनुभव और ज्ञातव्य प्राप्त होते हैं। इन्हें वह चुपचाप धारण करता है, पोषण करता है पर व्यक्त नहीं करता। इसी शक्ति द्वारा प्राणों का जो विस्तार होता है उसे ही निष्ठा कहते हैं। यह चरित्र निर्माण की मूल आवश्यकता है। वहाँ पल-पल, छिन-छिन बदलते रहने वाले इन्द्रियों को आवेश कामयाब नहीं होते। थोड़ी-थोड़ी दूर पर जो प्रलोभन भरे प्रश्न आते हैं उनका हल स्वतः होता है और बाधायें उस दृढ़ता में टकराकर चकनाचूर हो जाती हैं। दृढ़ता का स्वभाव है गम्भीरता की ओर प्रेरित करना। इसी से मनुष्य के जीवन में आत्म-निर्भरता, सत्यता, कष्ट सहिष्णुता एवं देवत्व की जागृति होती है। मनुष्य के चारित्रिक विकास में भी उसकी भावना ही मुख्य है।
मनुष्य के जीवन में इस प्रकार भावनाओं की गहराई न रहे तो उसका चारित्रिक पतन हो सकता है। शील और सदाचार का अविचलित-अविच्छिन्न योग न रहे, तो वे सभी भाव-संस्पर्श उसके लिए घातक ही सिद्ध होंगे अर्थात् उसके जीवन से सद्प्रवृत्तियों का भाग नष्ट हो जायगा। और कुविचार एवं कुचेष्टायें बढ़ने लगेंगी। ऐसी स्थिति में मनुष्य का जीवन बरबाद और निरर्थक हो जाता है, जिस तरह हरे पेड़ को काट देने पर सूर्य का ताप उसे सुखा देता है। इस प्रकार उत्पन्न हुई चारित्रिक दुर्बलता लोगों को विषय-सुख और भोगों की ओर प्रेरित करेगी, परिणामस्वरूप जीवन के सात्विक लक्ष्य पूर्ण न होंगे और सफलता की पुष्टि का मार्ग बन्द हो जायगा। दुर्बल तथा क्षीण चित्त के लिए ज्ञान का भी कुछ लाभ नहीं है। वह ज्ञान पूर्णतया लौकिक कामनाओं में ही लगा रहेगा। अतः बुरे परिणाम पैदा होने में कोई सन्देह न रहेगा।
भावनायें मनुष्य का जीवन होती हैं। इनके बिना उसमें किसी रस या उल्लास का आनन्द मनुष्य को नहीं मिलता। वह केवल प्रगल्भ विचारों के ही आसपास चक्कर काटता रहता है जिससे मनुष्य का जीवन केवल साँसारिक ही बना रहता है। इसलिए अब जीवन-निर्माण में तब की अपेक्षा अधिक सतर्कता की आवश्यकता है। सत्पथ पर चलते हुए भी मनुष्य धोखा खा सकता है, पथभ्रष्ट हो सकता है अतः अपने जीवन-लक्ष्य का निर्धारण हमें पूरी सावधानी के साथ करना चाहिए और आध्यात्मिक जीवन की आवश्यकता को स्वीकार कर लेने के बाद दृढ़तापूर्वक, मनोयोगपूर्वक उसमें लगा रहना चाहिए। आपकी भावनायें दृढ़ बनी रहेंगी, निश्चय बलवान बना रहेगा तो अनेक कठिनाइयों में भी आप निर्भयतापूर्वक अपने जीवन-लक्ष्य की ओर बढ़ते रहेंगे। मनुष्य का पौरुष दृढ़ निश्चय में है। सुदृढ़ भावनाओं वाले व्यक्ति ही आत्मजयी होते हैं।