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March 1965

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यस्मान् त्रयो ऽप्याश्रमिणो नान्नेन चान्वहम्।

गृहस्थे नैवधार्यन्ने तस्माज्येष्ठा श्रमो गृही॥

—मनु. 3 । 78

ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, संन्यासी इन तीनों आश्रमों का पालन गृहस्थी के ही ज्ञान और अन्न से होता है। इसलिए गृहस्थ श्रम ही सबसे बड़ा है।

किं बहूक्तेन लोके ऽस्प्रिन्साधनं यद्धिविद्यते।

ब्रह्मचर्ये तु तर्त्सयमर्न्तभवति सर्वथा॥

ब्रह्मचर्य की महत्ता के विषय में जितना कहा जाय कम है। इस संसार में सुख-सुविधाएँ प्राप्त कराने वाले जितने भी साधन हैं उन सब में श्रेष्ठ साधन ब्रह्मचर्य है। अन्य सब साधन तुच्छ हैं।

बच्चे को अपने साथ बाजार ले जाइये। कोई वस्तु खरीदने में इस ढंग से उसकी राय लीजिए कि उसकी राय आपकी राय से साम्य खा जाये, और यदि कोई विशेष अड़चन न हो तो अपनी देख-रेख में पैसे उससे गिनाकर दिलाइये इससे बच्चे में आर्थिक लेन-देन की चेतना का विकास होगा, और वह अपने अन्दर एक जिम्मेदारी महसूस करेगा। कोई भी वस्तु जिसे आप अधिक मूल्य के कारण खरीदना न चाहें उसमें बच्चे की अस्वीकृति शामिल कीजिए। इससे उसमें मितव्ययिता का भाव बढ़ेगा और पैसे का महत्व समझेगा।

बच्चे को पैसा दीजिए और माँ के पास जमा कराने की आदत डालिये। कभी-कभी अपने पास पैसे की कमी बतला कर उससे उधार माँगिये और उसकी बचत की सराहना करते हुए कहिये—”वाह भाई इस समय तुम्हारी बचत ने हमारा अटकाव दूर कर दिया”। इस प्रकार उसमें आकस्मिक आवश्यकता के लिए बचत करने का उत्साह बढ़ेगा।

उसकी बचत से उसे स्थायी शोभा, स्थायी उपयोगिता अथवा स्थायी अभिरुचि की चीजें खरीदवाइये, जिससे उसमें उपयोगिता तथा सौंदर्य के प्रति अभिरुचि उत्पन्न होगी।

अधिकतर बच्चे के अतिरिक्त व्यय की मात्रा निश्चित धन राशि में रखिये और उसको घर का आय-व्ययक बनाते समय पास बिठाइये, इस प्रकार उसमें अपने व्यय का बजट बनाने की अभिरुचि उत्पन्न होगी, जिससे वह पैसे के उपयोग की कला सीखेगा।

जहाँ तक हो सके उसे अतिरिक्त व्यय किसी ऐसे काम के लिए दीजिए जिसे वह कर सके ओर जो उसके विकास के लिए उपयोगी भी हो। इस प्रकार उसमें श्रम की आदत तो पड़ेगी ही, साथ ही वह धनोपार्जन की कठिनता को भी समझने लगेगा।

इस प्रकार यदि बच्चे में आर्थिक अनुशासन की प्रवृत्तियाँ बाल्य-काल से ही विकसित कर दी जाती हैं तो वे आगे चलकर उसके जीवन के लिए बड़ी उपयोगी सिद्ध होती हैं। यदि बच्चे में आपने अर्थ-नियन्त्रण की क्षमता का विकास कर दिया तो समझिए आपने उसके आगामी जीवन की बहुत-सी कठिनाइयाँ प्रारम्भ में ही दूर कर दीं।

किन्तु इसके लिए वह नितान्त आवश्यक है कि माता−पिता इस विषय में स्वयं भी पूर्णतया अनुशासित रहें किसी क्षेत्र में पैसे का अपव्यय तो नहीं ही करें, अपितु कोई ऐसी वस्तु भी न खरीदें जो एकमात्र उनकी एकाकी अभिरुचि की हो, और यदि उसे खरीदते ही बने तो उसमें घुमा-फिरा कर बच्चे की रुचि शामिल कर लीजिये।

समझ लीजिए कि जीवन निर्माण एक शिल्प है जिसका अच्छा बुरा होना बहुत कुछ आर्थिक-नियंत्रण पर निर्भर करता है। बिना समझे-बूझे बच्चे के बार-बार जिद पर पैसा देकर पीछा छुड़ाने की कोशिश न कीजिए उसके बुरे स्वभाव के सामने आत्म-समर्पण की शीघ्रता उसके स्वभाव को और भी बिगाड़ देगी।

किसी हद तक ठीक होने पर भी इस भावना से कदापि प्रेरित न होइये—”कि जो कुछ है या जो कुछ कमाते हैं, है तो सब बच्चों के ही लिए, खाने-उड़ाने दो।’ आपकी यह असंस्कृत उदारता बच्चों के लिए हानिकारक सिद्ध होगी। वैसे तो समाज में जिसके पास जो कुछ है उसके कुछ न कुछ अंश पर, धर्म, देश, समाज एवं परोपकार का नैतिक अधिकार है, फिर भी यदि आप अपने प्रत्येक पैसे पर केवल अपने बच्चों का ही अधिकार मानते हैं, तो भी उसे खाने-उड़ाने की स्वतन्त्रता देकर उनकी आर्थिक बहबूदी को कमजोर करते हैं।

अन्य दुर्व्यसनों की भाँति आर्थिक अपव्ययता भी एक ऐसा व्यसन है जो बचपन से लग जाने पर आजीवन पीछा नहीं छोड़ता। अतएव, अपने बच्चों को अर्थ-अनुशासन की स्वस्थ शिक्षा देकर उनका हित कीजिए। उन्हें न तो पैसे का दुश्मन ही बनाइये और न दास ही, अपितु एक सच्चा मित्र बनाकर अभिभावक का ठीक-ठीक कर्तव्य पालन कीजिये।


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