प्रार्थना—आत्मा की करुण पुकार

March 1965

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आज का मनुष्य औरों की अपेक्षा अपने प्रति अधिक भयानक हो गया है। उसने अपने हृदय में द्वेष, द्वन्द्व, छल-कपट, ईर्ष्या और मत्सरता के इतने बीज बो लिए हैं कि उसकी सुगन्धित हृदय-वाटिका विषैली वनस्थली बन गई है। इसका मुख्य कारण है उसकी कामशक्ति।

जो मनुष्य जितनी अधिक कामना रखता है, वह उतना ही अधिक दरिद्र रखता है। उसकी व्यग्रता उतनी बढ़ जाती है और उसका मन विविध तृष्णाओं की और दौड़ता रहता है। मनुष्य की विषय विविधता ही उसको पतन की ओर ले जाती है और पतनोन्मुख मनुष्य से किसी सदाशयता की आशा नहीं की जा सकती। उसका सन्तोष नष्ट हो जाता है और इस प्रकार उसे संसार में सभी प्राणी अपने से अधिक सुखी दिखाई देते हैं, जिससे उसे औरों से ईर्ष्या और अपने से खीझ होने लगती है। वह हर समय हर बात पर असंतुष्ट रहता है, जिससे उसमें क्रोध का बाहुल्य हो जाता है। क्रोध से विवेक नष्ट हो जाता है और विवेक के विनाश से वह सर्वनाश की ओर बड़ी तीव्र गति से अग्रसर हो पड़ता है।

मनुष्य को अपने विनाश रोकने के लिए कामनापूर्ण विषयासक्ति को छोड़ना ही पड़ेगा। मनुष्य की विषय वृत्ति की सन्तुष्टि नहीं हो सकती। इसके विषय में प्रकृति का कुछ ऐसा नियम है कि विषयों को जितना सन्तुष्ट करने का प्रयत्न किया जाता है, वे उतने ही अधिक बढ़ते हैं। अस्तु इनका त्याग ही इनसे पीछा छुड़ाने का एक मात्र उपाय है।

विषय वासनायें हाथ में पकड़ी हुई छड़ी की तरह तो हैं नहीं कि हाथ खोल दीजिए वह स्वतः गिर जायेंगी। यह जन्म-जन्मान्तर का कलुष है, जो मनोदर्पण पर सञ्चित हो कर स्थायी बन जाता है। इसे मल-मल कर ही धोना पड़ेगा। जिस प्रकार मैल को मैल से साफ नहीं कर सकते उसी प्रकार विषयों को वासनात्मकता से नहीं धोया जा सकता। इनको धोने के लिये निर्मल भावनाओं की आवश्यकता होगी।

निर्मल भावनाओं में करुणा की भावना सर्वोत्कृष्ट है। मनुष्य को अपने में अधिक से अधिक करुणा का स्फुरण करना चाहिए। करुणा एक दैवी गुण है, आत्मा का प्रकाश है। इसकी उत्पत्ति होते ही, मनुष्य के सारे मानसिक मल धुल जाते हैं और उसका हृदय-दर्पण अपनी स्वर्गीय छटा से चमक उठता है, जिसमें वह आत्मा रूप परमात्मा का दर्शन कर सकता है।

इस करुणा को प्रस्फुटित करने के लिए मनुष्य को सर्व प्रथम विनम्रतापूर्ण दया दाक्षिण की उपासना करना होगी। संसार का कोई भी धर्म अथवा मत-मतान्तर ऐसा नहीं है, जिसमें विनम्रता, दया, क्षमा, सहानुभूति आदि गुणों को महत्ता न दी गई हो।

करुणा लाने के लिए मनुष्य को करुणा-वरुणालय भगवान का आश्रय लेना होगा। विनम्रता पूर्वक उसकी शरण जाना होगा। प्रेम पूर्वक उसकी सृष्टि को दया से ओत-प्रोत करना होगा। विनम्रता को अपनाना होगा।

यह सारे गुण परमात्मा को आतुर कातरता पूर्वक स्मरण करने से अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। उसे याद करिए, पुकारिये, अपनी याद दिलाइये, उसकी अनुनय-विनय करिये।

साँसारिक व्यक्तियों की अनुनय-विनय करने से जो दैत्य मनुष्य में आता है, वह आत्मा को कलुषित और निर्बल बनाता है, किन्तु इसके विपरीत परमात्मा की अनुनय-विनय करने से जो दैन्य प्राप्त होता है, उससे आत्मा का परिमार्जन होता है, उसमें प्रकाश आता है।

अपने अनुनय-विनय में यदि आप परमात्मा से भौतिक सुख साधनों की याचना करेंगे तो फिर अपने ध्येय मार्ग करुणा की प्राप्ति से विचलित हो जायेंगे। पुनः उन्हीं विषय वासनाओं की ओर उन्मुख हो चलेंगे, जिन्हें छोड़ने के लिए आपने परमात्मा की पुकार प्रारम्भ की है। यदि याचना ही करना है तो केवल अपने ध्येय के विषय की याचना करें, अन्यथा एक मात्र उसकी प्रसन्नता के लिए प्रार्थना करिये। उसकी कृपा कोर से क्या लौकिक क्या पारलौकिक कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है, जिसकी उपलब्धि न हो जावे। किन्तु फिर भी उसकी दी हुई उपलब्धियों में से आप केवल महान् गुण-सम्पत्ति की ओर ही आकर्षित रहिए और उन्हें अधिक से अधिक प्राप्त करने की कोशिश कीजिए।

परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए प्रार्थना सबसे सरल साधन है। एक निश्चित समय पर पवित्र तन-मन से उसे विह्वलता-पूर्वक याद करते हुए कातर वाणी से उसकी प्रार्थना कीजिए। प्रार्थना के शब्द अधिक से अधिक करुणा-जनक, सरल एवं सरल हों, और उनका तात्पर्य तो नितान्त पवित्र निष्काम और उसके उदार नामों से परिपूर्ण हो उनके अर्थों से एक निस्पृह आनन्द का उद्रेक होता है। उसका संगीत सहज गेय और मनोहर हो, प्रार्थनायें की तो गद्य में भी जा सकती हैं, किन्तु भावना की अभिव्यक्ति जितनी सुन्दरता से पद्य में होती है उतनी गद्य में नहीं। आपकी प्रार्थना से हृदय भावों की जितनी तीव्र समाविष्टि होगी, जितनी तन्मयता होगी उतना ही शीघ्र आप उस परम प्रभु की करुणा और कृपा को प्राप्त कर लेंगे।

प्रार्थना अधिक जोर से गाने की आवश्यकता नहीं। उसको एक ऐसे सम स्वर से गाइये जिससे आपके कण्ठ को न तो अधिक श्रम करना पड़े और वह आपको स्वयं भी स्पष्टतया सुनाई भी दे।

प्रार्थना करते समय हर ओर से निश्चित रहिए और समस्त संसार को भुलाकर इतने एकाग्र चित्त से तन्मय होइये कि उस समय आपके लिए एक प्रार्थना के अतिरिक्त और कुछ शेष न रह जाये। प्रार्थना में एकाग्रता मूल मन्त्र है।

आप जितनी विह्वलता से परमात्मा को याद करेंगे उतनी आतुरता से वह आपका स्मरण करेगा। आप ज्यों-ज्यों उसकी ओर आकर्षित होंगे त्यों-त्यों वह आपकी ओर आकर्षित होगा। इस प्रकार दोनों ओर का पारस्परिक आकर्षण बीच के व्यवधान और दूरी को बहुत शीघ्र समाप्त कर देगा। और आप आत्मा में आनन्द के रूप में उसका साक्षात्कार कर सकेंगे।

उपासनाओं में प्रार्थना का बहुत बड़ा महत्व है। संसार को कोई भी ऐसा महात्मा अथवा धर्म-प्रवर्तक नहीं हुआ, जिसने किसी न किसी रूप में परमात्मा की प्रार्थना न की हो। यहाँ तक कि देवतागण भी एक-दूसरे की प्रार्थना करते रहते हैं। विष्णु, महेश की, महेश विष्णु की, ब्रह्मा विष्णु और महेश की तो ब्रह्मा की प्रार्थना विष्णु और महेश किया करते हैं। बिना परमात्मा की प्रार्थना किए कोई भी ध्येय पूरा नहीं हो सकता। महात्मा गाँधी कहा करते थे कि—”प्रार्थना मेरा प्राण है, जीवन है। मैं भोजन छोड़ सकता हूँ, पानी छोड़ सकता हूँ, संसार की सारी चीजें छोड़ सकता हूँ किन्तु प्रार्थना नहीं छोड़ सकता। प्रार्थना करने से मैं अपने अन्दर एक सुख, शान्ति, शक्ति और सम्पूर्णता का अनुभव करता हूँ। जिस दिन प्रार्थना में विलम्ब हो जाता है या किसी कारणवश नहीं कर पाता हूँ, वह दिन मेरे लिए, सबसे खराब दिन होता है, मुझे लगता है जैसे में निर्जीव हो गया हूँ, अशक्त हो गया हूँ, न मैंने कुछ किया है और न कुछ कर सकता हूँ। अपने अन्दर एक भयानक खोखलापन पाने लगता हूँ। और प्रार्थना कर लेने पर तत्काल सारी दुर्बलतायें दूर हो जाती हैं और अपने अन्दर फिर पूर्णता का अनुभव करने लगता हूँ।” उनका कहना था कि—”मैं सारे दुःख, सारे कष्ट और सारे संघर्ष प्रार्थना के बल पर ही हँसते-हँसते सहन कर लेता हूँ। मुझे कभी आभास ही नहीं होता कि मैं किसी संघर्ष अथवा दुःख में हूँ। हर प्रकार से प्रसन्न और प्रफुल्लित रहता हूँ।”

कहने का तात्पर्य यह है कि ईश प्रार्थना में सारी शक्तियों और सारे सुख सन्निहित रहते हैं। महात्मा गाँधी की सारी सफलता के कारणों में प्रभु प्रार्थना एक प्रमुख कारण है। इसी के बल पर उन्होंने इतने बड़े राष्ट्र का नेतृत्व किया, स्वतन्त्रता का संग्राम जीता और विविध धर्मावलम्बियों को एकता के सूत्र में बाँध दिया। उन्होंने इस प्रार्थना के बल पर ही बड़े-बड़े भौतिकवादी विदेशी राजनीतिज्ञों को द्रवित करके झुका दिया।

परमात्मा का करुण वरदान प्राणिमात्र को उपलब्ध होता है। बिना किसी प्रतिफल की भावना के परमेश्वर प्रत्येक जीव पर अपनी अनन्त करुणा बिखेरता रहता है। प्राणियों के सुखों की अभिवृद्धि और कष्टों की निवृत्ति के लिए उसने अनेक प्रकार के अनुदान पग-पग पर प्रस्तुत किए हैं। उन्हीं के सहारे जीव-धारियों की जीवन-लीला चल पाती है। शरीर और मन की विलक्षण रचना इतने उत्तम प्रकार से न हुई होती तो जीवों का अस्तित्व ही प्रकट न हो पाता और प्रकट भी हो पाता तो वे आनन्दपूर्ण रीति से जीवन का रसास्वादन कर सकने में समर्थ न हुए होते। एक शब्द में इसी बात को यों भी कहा जा सकता है कि परम प्रभु की करुण अनुकम्पा के सहारे ही जीवनधारी अपना शील क्षेम करते हुए, सरल जीवन बिता रहे हैं।

प्रभु की अनन्त अनुकम्पा और करुणा प्राप्त करने वाले मनुष्य के लिए यह उचित ही है कि उस अनुदान का अंश दूसरे असहाय, असमर्थ और बिछड़े हुओं को प्रदान कर अपनी सत्पात्रता सिद्ध करता रहे। यह ठीक है कि परमात्मा को उसकी करुणा का बदला नहीं चुकाया जा सकता, पर इतना तो हो ही सकता है कि उसकी दुर्बल सन्तानों को सुखी और समुन्नत बनाने के लिए हम आवश्यक सहृदयता का परिचय देते रहें और अपने से जो बन पड़े उतना लोक कल्याण के लिए प्रयत्न करते रहें।

करुणा को सहानुभूति और सहृदयता का रूप मिलना ही चाहिए। भावना वही सार्थक है, जो कार्यान्वित हो सके। संसार में पीड़ा बहुत है, यदि हम दूसरों की पीड़ा का एक अंश बँटा सके और अपनी सद्भावना से टूटे हृदयों को जोड़ सकें तो यह मानवोचित महानता ही होगी। ईश्वर प्रार्थना केवल पूजा के समय प्रकट किए जाने वाले, गुनगुनाए या दुहराये जाने वाले शब्दों को ही नहीं कहते। सच्ची प्रार्थना वह है जो चिरस्थायी सद्भावना का रूप धारण कर प्राणी मात्र की कामनाओं के लिए सहानुभूति बनकर विचलित होती है।

हम प्रभु से प्रार्थना करें—करुणा पूर्ण भावना के साथ और उनसे एक ही याचना करें कि हमारी अन्तरात्मा में उस करुणा का एक छोटा-सा झरना प्रस्फुटित करे जिसमें वे प्राणीमात्र को स्नान कराके उन्हें निरन्तर सुखी, समृद्ध और सुविकसित बनाते रहते हैं।

शास्त्र-चर्चा


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