धन का अपव्यय भी पाप है।

March 1965

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हमारे जीवन-निर्वाह के लिए सदा धन की आवश्यकता पड़ा करती है। छोटा-बड़ा, गरीब-अमीर कैसा भी मनुष्य क्यों न हो, वह धन को अवश्य महत्व देता है और अनुभव करता है कि इसके बिना हमारा काम नहीं चल सकता। वर्तमान समय में तो धन की महिमा इतनी अधिक बढ़ गई है कि लोग चाँदी-सोने के चन्द टुकड़ों के लिए कैसा भी काम करने को तैयार हो जाते हैं। जहाँ धन का प्रश्न सामने आता है अधिकाँश लोग सच-झूठ, धर्म-अधर्म, नीति-अनीति संबंधी समस्त विचारों को उठाकर ताक पर रख देते हैं। ऐसे लोग खुले आम कहते हैं कि पास में पैसा होगा तो सब कोई हमारी बात पूछेगा, पर पैसा न हो तो कोई कौड़ी के तीन भी न लेगा, चाहे हम कैसे भी भले और पुण्यात्मा क्यों न हों।

धन के संबंध में लोगों की उक्त धारणा को हम सोलह आना तो सच नहीं मान सकते पर इसमें सन्देह नहीं कि धन की आवश्यकता सदा से सबको रही है और आजकल तो ऐसा जमाना आ गया है कि बिना रुपये-पैसे कि एक दिन भी गुजारा होना सम्भव नहीं है। इस समय सब प्रकार की साधन सामग्री प्राप्त हो सकने का एकमात्र माध्यम रुपया ही बना दिया है, उसके द्वारा सभी कामों के सम्पन्न होने में पूर्ण सुविधा होती है, और इसलिए एक साधारण स्थिति का आदमी सबसे पहले उसी के लिए इच्छा करता है।

धन की आवश्यकता तथा उपयोग को स्वीकार करते हुए भी हम यह बतलाना चाहते हैं कि उसके प्रति लोगों ने जो दृष्टिकोण अपना रखा है वह वास्तव में सही नहीं है, और उसके कारण संसार का उत्थान होने की बजाय वह एक बड़ी दुर्दशा में फँस गया है। धन के लोभ ने मनुष्यों में सैकड़ों प्रकार के दुर्गुण पैदा कर दिये हैं और अनेक मानवीय विशेषताओं का खात्मा कर दिया है। चोरी, हिंसा, बेईमानी, ईर्ष्या, द्वेष, अविश्वास, दम्भ आदि अनेक दोषों की वृद्धि का कारण यह धन का अनुचित महत्व ही है। लोग तो धन को सुख का साधन मानते हैं, पर जरा गहराई से उतर कर विचार किया जाय तो आज धन ने सब लोगों का जीवन विपत्ति ग्रस्त और दुखी बना दिया है। धनवानों को अपने धन की रक्षा की चिन्ता रहती है, वे सभी को अपने धन पर ताक लगाये समझकर अविश्वास करने लगते हैं और इस कल्पना से बड़ा दुख पाते रहते हैं कि यदि किसी कारणवश हमारा धन जाता रहा तो हमारी क्या दशा होगी। दूसरी तरफ गरीब धन के अभाव से किसी तरह की उन्नति करने में असमर्थ रहते हैं, उनके विकास की गति ही रुक जाती है। उनको बचपन से ही पढ़-लिख कर एक सभ्य नागरिक बनने की बजाय किसी तरह रुपया, आठ आना कमाकर पेट के गड्ढे को भरने की फिक्र लग जाती है। वे भी धन के अभाव से अनेक प्रकार के असत्य व्यवहार करने को बाध्य होते हैं और अमीरों की खुशामद, लड़ना, झगड़ना आदि अनुचित कार्य का आश्रय लेने लगते हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि धन को गलत तरीके से जो सर्वोच्च स्थान दे दिया गया। और उसके कारण लोगों की धन संबंधी तृष्णा जिस प्रकार बढ़ती जाती है उसके परिणामस्वरूप मनुष्य के सुखी-जीवन का अन्त हो गया है। अनेक लोग धन के द्वारा अमीरों को बढ़िया बँगले, मोटरें, कीमती भोजन, चमचमाते वस्त्र, नौकर चाकर आदि भोग-सामग्री प्राप्त होते देखकर उनको बड़ा सुखी और आनन्द का उपभोग करने वाला समझ लेते हैं। पर वे यह नहीं समझते कि वास्तव में सुख इन जड़ वस्तुओं भौतिक सामग्री में नहीं हो सकता। सुख तो मन की वृत्ति है और वह तभी प्राप्त हो सकता है जबकि हमको किसी उपाय से शान्ति और संतोष मिल सके। केवल धन के कारण कभी किसी का सच्चा सुख प्राप्त नहीं हो सकता, हाँ धन के अनुचित प्रयोग से अनेकों को घोर विपत्ति में फँसते अवश्य देखा गया है।

पर धन की प्रधानता ने हमारा इससे भी बढ़कर अहित किया है। साँसारिक सुखी-जीवन को नष्ट करके वह अब हमारी आत्मा को भी नष्ट कर रहा है। इस तथ्य को समझाते हुए एक विद्वान ने लिखा है कि—”तुम ईश्वर और शैतान दोनों की एक साथ उपासना नहीं कर सकते। न जाने किस बुरी सायत में रुपया-पैसा संसार में आया कि आज हम उसके दास बन गये हैं। यदि मैं कहूँ कि संसार के समृद्धिशाली और सुखी बन सकने में सबसे बड़ी बाधा धन यानी रुपया है तो पुराने खयालों के लोग चौंक पड़ेंगे। पर आज संसार में जो कुछ पीड़ा है वह इस नीच देवता के कारण है। खाद्य-सामग्री का संकट, रोग, व्याधि सबका कारण यही है। चूँकि सभी सुख की वस्तुएँ इसी से प्राप्त की जा सकती हैं, इसीलिए संसार में इतना कष्ट है। जितना समय उपभोग की सामग्री के उत्पादन में लगता है, उससे कई गुना अधिक समय उन वस्तुओं को बेचने के दाव-पेंच में लगता है। व्यापार की दुनिया में ऐसे करोड़ों नर-नारी लगे हुये हैं जो उत्पादन के नाम पर कुछ नहीं करते। आज लाखों आदमी हिसाब- किताब, बही-खाते और प्रचारक बन कर घूमने के काम में परेशान हैं, और लाखों आदमी फौज, पल्टन या पुलिस में केवल इसलिए नियुक्त हैं कि बही खाते वालों की तथा उनके कोष की रक्षा करें। जेल तथा पुलिस की आवश्यकता रुपये की दुनिया में होती है।”

वास्तव में आज की दुनिया की सबसे बड़ी कठिनाई यही है कि लोगों ने रुपये को भगवान समझ कर उस ईश्वरीय आदेश को भुला दिया है कि मनुष्य मात्र एक ही परम पिता की सन्तान हैं और इस दृष्टि से परस्पर में भाई-भाई हैं। अगर मनुष्य इस सचाई को समझकर एक दूसरे को प्यार करने लग जाय और अपने लिए अधिक से अधिक अपनाने की स्वार्थी भावना को त्याग कर प्रतिदान की भावना को ग्रहण करले तो संसार की कायापलट हो जाय। आज जो करोड़ों की सम्पत्ति, किले और महलों, बैंक तथा बीमा कम्पनियों, सेना, पुलिस, जेल तथा चौकीदारों के विशाल दल में खर्च हो रही है वह यदि संसार के पेट भरने में खर्च होने लगे तो शायद कोई भूखा, नंगा या गरीब दिखाई न दे। यदि हम स्वार्थ के स्थान पर परार्थ, भोग के स्थान पर त्याग का भाव कुछ अंशों में भी अपना लें तो संसार के अधिकाँश कष्टों का अन्त हो सकता है।

भारतवर्ष के मनीषियों ने धन की प्रधानता के इन दोषों को आरम्भ में ही समझ लिया था, इसलिए उन्होंने धनोपार्जन के साथ उसके सदुपयोग को भी अनिवार्य बतलाया था। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषणा कर दी थी कि वही धन सार्थक है जो दीन-दुखी, असहाय और कष्टों में पड़े व्यक्तियों के उद्धार के कामों में खर्च किया जाय। वे धन को परमात्मा का एक धरोहर बतलाते थे, जो हमको इसीलिए दिया गया है कि हम उसे भगवान की बनाई दुनिया की सुव्यवस्था और सेवा के लिए खर्च करें ऐसा करने से धन भी हमारे लिए कल्याणकारी बन जाता है और उससे हमारा आत्म-विकास होता जाता है। यही कारण है कि भारतीय कथाओं में ऐसे अनेक व्यक्तियों का वर्णन मिलता है जिन्होंने दूसरों के हितार्थ अपना सर्वस्व दान कर दिया। हरिश्चन्द्र, कर्ण, हर्ष, भामाशाह आदि के नाम आज भी अत्यन्त आदर और श्रद्धा के साथ इसीलिए याद किए जाते हैं कि उन्होंने लोकोपकार के लिए अपनी सम्पत्ति को तिनके की तरह त्याग दिया था। यह बात नहीं है कि उस समय उनसे बढ़कर अन्य धनवान नहीं थे, या आजकल उनसे बड़े धनी मौजूद नहीं है, पर लोग प्रशंसा उन्हीं की करते हैं जिनका धन दूसरों के हितार्थ व्यय किया जाता है।

पर आजकल का आदर्श इससे सर्वथा विपरीत हो गया है। प्रत्येक व्यक्ति अपने पास एकत्रित धन को अपने और अपने बाप-दादों का बतलाता है और किसी अन्य का उसमें से एक कौड़ी का हकदार भी स्वीकार करने को तैयार नहीं होता। यही कारण है कि उसे अपने धन की रक्षा के लिए तहखानों, तिजोरियों, पहरेदारों, और बन्दूकों की आवश्यकता पड़ती है। ऐसा व्यक्ति दूसरों को कष्ट देकर उन्हें अभावग्रस्त बनाकर धन इकट्ठा करने में भी कोई बुरा नहीं समझता। इस दृष्टि से उसका धन लोकोपकार की बजाय संसार में दुःख, दैन्य और अव्यवस्था उत्पन्न करने वाला सिद्ध होता है। इस प्रकार का आचरण ईश्वरीय विधान के प्रतिकूल ही है और उससे मनुष्य का आत्म विकास होने के बजाय उसमें कठोरता, कृपणता, क्रूरता के भावों की ही वृद्धि होती है। ऐसे व्यक्ति आन्तरिक शान्ति और संतोष प्राप्त करने के स्थान पर या तो धन अहंकार से उन्मत्त होकर भाँति-भाँति के दुराचरणों के शिकार बन जाते हैं अथवा सदैव धन को बढ़ाते जाने और उसकी रक्षा करने में ही डूब जाते हैं। देखने वाले कहते हैं कि वे अपने धन पर साँप बनकर बैठे हुये हैं।

वास्तव में यह एक बड़ा संकीर्णता का विचार है कि मनुष्य धन को सद्गुणों और सचाई से भी बढ़कर समझने लगे और उसकी प्राप्ति के लिए धर्म-अधर्म और पाप-पुण्य के विचार को भी त्याग दे। ऐसे ही धन लोलुप, अज्ञानी व्यक्तियों की दशा को देखकर भारतीय सन्त यह कहने लगे थे—”अर्थमनर्थ भाविय नित्यम्” अर्थात् अर्थ (धन) को सदैव अनर्थ (पाप) का मूल समझो। निस्सन्देह जिन लोगों की तृष्णा, हविस इतनी अधिक बढ़ जाती है कि वह पैसे को ही सब कुछ समझ कर उसके पीछे दीन दुनिया का ध्यान भी छोड़ देते हैं तो वह पैसा उसके सुख, कल्याण, उत्थान के बजाय उन्हें विवेकशून्य और हीन मनोवृत्ति का बनाने वाला ही सिद्ध होता है। ऐसे लोगों को चाहे कुबेर का भण्डार भी मिल जाय तो भी न तो उनकी तृष्णा शान्त होती है और न वे उससे वास्तविक सुख, आनन्द उठा सकते हैं। ऐसे लोग जन्म भर बुरे से बुरे काम करके धन इकट्ठा करते हैं और मरते समय कारुँ और महमूद गजनवी की तरह उसे देखकर रोते और विलाप करते हैं। ऐसे लोग आगामी जन्म में सचमुच साँप बनकर अपने धन पर बैठते हों तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

हमको अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि धन किसी का नहीं है। जो उसे अपना समझकर पकड़कर रखना चाहता है वह बड़ा मूर्ख है। हमारे शास्त्रों में लक्ष्मी को ‘चंचला’ बतलाया गया है और कहा है कि जो उसे अपनी समझता है वह अज्ञानी है। सच तो यह है कि यह उसी जगह ठहरती और वृद्धि को प्राप्त होती है जहाँ उसका सदुपयोग किया जाता है। वेदों में उच्च स्वर से यह घोषणा की गई है कि—”सौ हाथों से कमाओ और हजार हाथों से खर्च करो।” इसका आशय यही है कि धनोपार्जन में कोई बुराई नहीं है, मनुष्य को अवश्य ही उद्योगी और कर्मशील बनकर उसका उपार्जन करना चाहिए, पर उसे कंजूस के समान पकड़ कर बैठ जाने के बजाय उचित और आवश्यक कामों में खर्च करते रहना चाहिए। इस प्रकार का गतिशील धन बहती हुई नदी के जल के समान गन्दगी से बचा रहता है और समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक बनता है। इस प्रकार के व्यवहार से धन को कमाने वाला और उसका संचालन करने वाला भी सर्वसाधारण की प्रतिष्ठा का पात्र बनते हुए आत्मसुख और सन्तोष प्राप्त करता है। ऐसे धनी की सम्पत्ति ही सार्थक और लोक-परलोक में कल्याणकारी मानी जाती है।


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