न ह्येष दूर नाभ्याशे नालभ्यो विषमे न च।
स्वानन्दाभास रुपो ऽसौ स्वदेहा देव लभ्यते॥
—योगवशिष्ठ 3। 6। 3
परमात्मा न तो दूर है और न कठिनाई से प्राप्त होता है। वह अपनी देह के भीतर ही है और आत्मानंद के रूप में प्रत्यक्ष है।
ज्योतिपामषि त ज्योतिस्तमसः परमुच्यते।
ज्ञान ज्ञेयं ज्ञान गम्यं हृदि सर्वस्य विष्टितम्॥
—गीता 13। 17
वह परमात्मा अज्ञानांधकार से परे ज्योति की भी ज्योति है। वह सबका सुहृद, सब में विराजमान है और वह ज्ञान स्वरूप परमात्मा ज्ञान से ही देखा जाता है।
एष देवो विश्वकर्मा महात्मा
सदा जनानाँ हृदये संनिविष्टः।
हृदा हृदिस्थं मनसा य एव
मेवं विदुर मृनास्ते भवन्ति॥
—श्वेता0 4।17, 20
संसार की रचना करने वाला वह परमात्मा सदैव प्राणियों के हृदय में स्थित है। इस महात्मा (परमात्मा) को जो शुद्ध हृदय और निर्मल मन से अपने भीतर विद्यमान देखते हैं वे अमृतत्व को प्राप्त कर लेते हैं।
न शास्त्रैर्नापि गुरुणा दृश्यते परमेश्वरः।
दृश्यते स्वात्मनैतात्मा त्वया मस्तवस्थायाधिया॥
—योग वशिष्ठ 6। 118 । 4
परमात्मा का दर्शन न शास्त्र करा सकते हैं न गुरु। उनका दर्शन तो अपनी आत्मा को स्वस्थ बनाने से ही होता है।
न संदृशे निष्ठति रूप मस्य न।
वक्षुपा पश्यति कश्चनैनम्॥
—श्वेताश्वत 4। 20
उस ईश्वर को कोई इन चर्म चक्षुओं से नहीं देख सकता।