युग निर्माण आन्दोलन की प्रगति

March 1965

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नव-निर्माण अभियान का व्यापक सूत्रपात

माघ मास का शिक्षण शिविर गायत्री तपोभूमि में अभूतपूर्व सफलता के साथ सम्पन्न हुआ। यों अब तक अनेकों शिविर समय-समय पर होते रहे हैं और उनके आशाजनक परिणाम भी होते रहे हैं, पर इस माघ मास के शिविर की अपनी अनोखी ही विशेषताएँ थीं।

वसन्त पञ्चमी हमारे कार्यक्रमों की जन्मदात्री पुण्य तिथि रही है। लगभग सभी महत्वपूर्ण कार्य हमने इसी शुभ मुहूर्त में आरम्भ किये हैं। अब से पच्चीस वर्ष पूर्व “अखण्ड ज्योति” पत्रिका का प्रकाशन इसी दिन से आरम्भ किया गया था। प्रथम वर्ष वह केवल 500 छपती थी अब उसके सदस्यों की संख्या 30 हजार से ऊपर निकल रही है। उसने लाखों व्यक्तियों के अन्धेरे में पड़े हुए मानसिक धरातल को आलोकित किया है और अपना एवं समाज का कल्याण करने की शिक्षाओं पर साहसपूर्ण कदम उठाने वाले शूरवीरों की पंक्ति में उन्हें ला खड़ा किया है। इस परिवार के सदस्यों ने नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान की दृष्टि से पिछले दिनों जो भूमिका प्रस्तुत की है, उसे धार्मिक जगत में अनुपम कहा जा सकता। धीरे-धीरे यह परिवार जिस संगठित रूप में विकसित होता चला जा रहा है और जो तैयारियाँ युग-निर्माण के महाअभियान को पूर्ण करने के लिए कर रहा है, उसे भारत में एक ऐतिहासिक घटना माना जायगा।

अखण्ड ज्योति संस्थान में ‘अखण्ड दीप’ की स्थापना और गायत्री तपोभूमि में ‘अखण्ड अग्नि’ की स्थापना वसन्त पञ्चमी के दिन हुई थी। इन दोनों ज्योतियों ने उपासना क्षेत्र में उत्साहवर्धक सहायता दी है। ‘अखण्ड दीप’ का सम्बल लेकर अपनी निज की गायत्री उपासना करते हुए हमने अपना पथ अधिक सफलतापूर्वक अधिक दूरी तक पार किया। यदि यह साधन न रहा होता तो जितना कुछ मिल सका उसकी सम्भावना न रही होती।

इसी प्रकार गायत्री तपोभूमि में रहने वाली ‘अखण्ड अग्नि’ के सान्निध्य में रह कर जिन आध्यात्मिक मार्ग में पथिकों ने अपनी तपश्चर्याएँ की हैं, उनमें से अधिकाँश को वैसा प्रकाश मिला है, जिसके लिए वे सदा अपने भाग्य की सदैव सराहना करते रहेंगे। इन दोनों अग्नि ज्योतियों ने हमें व्यक्तिगत रूप से आगे बढ़ाया है और हमारे विशाल परिवार को नव जीवन की अभिनव चेतना से प्रकाशवान बना दिया है। ऐसे पुण्य माध्यमों की जन्म जयन्ती का दिन वसन्त पञ्चमी अपने आप में कुछ महत्व रखेगी ही और हमें उसका उल्लासपूर्ण अभिनन्दन करना ही होगा।

गायत्री तपोभूमि के निर्माण का शिलान्यास उसी दिन हुआ था। शतकुण्डी गायत्री यज्ञ का शुभारम्भ उसी पर्व पर किया गया था। चारों वेदों के भाष्य का आरम्भ वसन्त पञ्चमी को करके उसकी पूर्णता इसी दिन की गई थी। और भी ऐसी अनेक प्रकट, अप्रकट हमारे जीवन की प्रक्रियाएँ हैं, जो अपना विशेष महत्व रखती हैं। उन्हें भी संयोगवश या जान बूझ कर वसन्त पञ्चमी को ही आरम्भ किया गया था। युग-निर्माण योजना का विधिवत उद्घाटन गुरु पूर्णिमा के दिन आरम्भ हुआ। हमारे गुरुदेव की प्रेरणा का पर्व वही है। इसी से वसन्त पञ्चमी की तरह दूसरा पर्व हम गुरु पूर्णिमा को मानते हैं। पर विचारात्मक दृष्टि से आज से तीन वर्ष पूर्व अखण्ड ज्योति के माध्यम से योजना की रूप-रेखा वसन्त पञ्चमी के अवसर पर ही जन साधारण के सामने रखी गई थी और उसी दिन से उसका प्रचार कार्य आदि किया था। इस प्रकार भगवती सरस्वती का ही नहीं, युग-निर्माण योजना का शुभारम्भ भी इसी अवसर पर होता है। अज्ञातवास से लौटने के बाद हम हर वर्ष इस पर्व को ही नहीं, पूरे माघ-मास को विशेष भावनाओं के साथ मानते आ रहे हैं। इस मास चांद्रायण व्रत करने के लिए विशिष्ट साधक आते हैं। पिछले कितने ही वर्षों की भाँति इस वर्ष भी वैसा ही आयोजन किया गया और प्रसन्नता की बात है कि वह अब तक के सभी शिविरों की अपेक्षा अधिक सफल रहा।

संख्या की दृष्टि से शिविर में उतने ही व्यक्ति थे, जितनों को बुलाने की योजना पहले से ही बना रखी गई है। 70 से अधिक व्यक्ति वर्तमान स्थिति में यहाँ ठीक तरह एक महीने नहीं रह सकते। प्रवचन- कथा में तो इतने व्यक्ति भी बड़ी कठिनाई एवं ठूँस-ठाँस से आते हैं। फिर आगन्तुकों के साथ व्यक्तिगत परामर्श भी करना पड़ता है, जो सीमित संख्या में ही सम्भव है। अतएव प्रायः इतने व्यक्तियों को आने की स्वीकृति दी जाती है, जितनों की व्यवस्था ठीक तरह हो सके। गर्मियों के शिविरों में यह संख्या 100 तक भी हो जाती है पर माघ में इसे सीमित ही रक्खा गया और उतने ही आने दिए गए जितनों के लिए कि उपयुक्त स्थान था। बड़े आनन्द से यह महीना व्यतीत हो गया। शिविर में सम्मिलित होने वालों ने बड़ी श्रद्धापूर्वक इस युग की सबसे कठिन एवं सबसे महत्वपूर्ण इस तपश्चर्या को पूरा किया। साथ ही सवा-सवा लक्ष गायत्री पुरश्चरण भी विधिवत् सम्पन्न किये। जिन दुर्बल शरीर एवं गिरे हुए स्वास्थ्य के नर-नारियों को इतनी लम्बी उतनी कठिन तपश्चर्या आरम्भ में बहुत कठिन प्रतीत होती थी उन्होंने हँसते-खेलते हुए पूरा कर लिया और तनिक भी कठिनाई अनुभव न की। किसी के भी स्वास्थ्य पर कोई बुरा प्रभाव न पड़ा । वरन् जो सुधार होने वाला है, उसका प्रत्यक्ष अनुभव हर एक ने कर लिया। अगले दिनों साधकों के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य में जो सुधार होने वाला है, उसे तो आने वाले दिन ही बतायेंगे । पर शिविर में सम्मिलित प्रत्येक साधक ने उसकी सम्भावना का आरम्भ इन्हीं दिनों देख लिया और प्रत्येक साधक आशा पूर्ण उल्लास लेकर अपनी तपश्चर्या पूर्ण करते हुए विदा हुआ।

एक महीने तक जीवन निर्माण की कला का सांगोपांग प्रशिक्षण किया जाता रहा। एक सप्ताह गीता कथा कही गई। नव निर्मित सत्यनारायण व्रत कथा भी एक दिन बड़े उत्साह पूर्ण वातावरण से हुई। भारतीय धर्म के दस प्रमुख पर्वों को समाज को सुसंस्कृत बनाने का लक्ष्य रख कर किस प्रकार मनाया जाना चाहिए इसका पूरा विधि-विधान समझाया गया। जन्म से लेकर मरण पर्यन्त सभी संस्कार किस तरह से मनाए जाने पर व्यक्ति निर्माण एवं परिवार निर्माण की आवश्यकता पूर्ण कर सकते हैं, यह विधान विस्तार-पूर्वक बताया गया। गीता सप्ताहों के माध्यम से सामूहिक समारोह मनाने एवं जन-जागृति के लिए प्रेरणाप्रद शिविर लगाने का धर्मानुष्ठान किस प्रकार हो सकता है और उसे 100 — 150 रुपए के स्पष्ट व्यय से किस प्रकार संपन्न किया जा सकता है उसकी व्यावहारिक रूपरेखा बताई गई। इस सारे प्रशिक्षण से शिक्षार्थी वह योग्यता प्राप्त करके गये कि वे यदि चाहें तो एक सुयोग्य धर्म प्रचारक का काम कर सकते हैं।

इसी वसन्त पञ्चमी से प्रतिनिधियों एवं उत्तराधिकारियों के लिये जो ज्योति अवतरण साधना आरंभ की गई है, उसका क्रियात्मक स्वरूप इस शिविर में उपस्थित व्यक्ति और भी अधिक व्याख्या एवं विवेचना के साथ समझ सके। यों फरवरी अंक को पढ़-कर देश भर में बिखरे हुए विशिष्ट परिजनों ने उसे आरम्भ कर ही दिया है, पर शिविर में रहने वाले साधक चूँकि व्यक्तिगत रूप से भी यहाँ उपस्थिति थे इसलिए इन्हें इस प्रकाश का अनुभव अधिक प्रत्यक्ष रूप से करने का अवसर मिला।

वानप्रस्थ परम्परा का नवजागरण—

भारतीय धर्म संस्कृति के पुनर्जागरण का प्रयोजन उच्चस्तर के भावनाशील कार्यकर्ताओं पर निर्भर है। यह आवश्यकता वानप्रस्थ आश्रम की परम्परा सजीव करने से ही संभव हो सकती है। प्राचीनकाल में यह प्रथा थी कि बच्चों के समर्थ होते ही ढलती आयु का प्रत्येक व्यक्ति अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र में कूद पड़ता था और अपनी अनुभवपूर्ण योग्यता का निःशुल्क अनुदान देकर समाज को प्रत्येक दृष्टि से सुविकसित करने में आश्चर्यजनक योगदान देता था, प्राचीन भारत का गौरवपूर्ण इतिहास यहाँ के साधु, ब्राह्मणों एवं लोकसेवी वानप्रस्थों का ही इतिहास है। उन्हीं के अनवरत प्रयत्नों का यह प्रतिफल था कि जनता का चरित्र, मनोबल एवं विवेक उच्च स्तर पर टिका रहता था। अब जब कि इन वर्गों का एक प्रकार से लोप हो गया तो लोक मानस में गिरावट आनी ही थी और उसका प्रतिफल हर प्रकार की दुर्दशा के रूप में हमें भोगना ही था। सो ही हुआ भी।

अब जब उठने की बारी आई है तो उठाने वाले माध्यमों पर लगी हुई जंग भी छुड़ानी पड़ेगी और उन्हें पुनः सतेज बनाना पड़ेगा। आज की परिस्थितियों में कोई वंश या वर्ण राष्ट्रीय पुनरुत्थान का कार्य अपने कन्धे पर उठा सकेगा यह तो कठिन दीखता है पर यह सरल है कि ढलती आयु के वे व्यक्ति जिनके पारिवारिक एवं आर्थिक उत्तरदायित्वों के सँभालने वाले मौजूद हैं, वे “वानप्रस्थ” लेकर अपनी जिम्मेदारी एवं वफादारी समाज निर्माण के लिए सौंप दें। इसी प्रकार हमें अनुभवी, सच्चे और निःस्वार्थी लोक सेवी मिलेंगे और उसी आधार पर इस निर्माण का प्रयोजन पूरा होगा। इसके लिए अखण्ड ज्योति परिवार के उपरोक्त स्थिति वाले प्रत्येक नर-नारी को इन दिनों हम प्रबल प्रेरणा दे रहे हैं कि वे उचित अवसर पर वानप्रस्थ लेकर आत्म कल्याण एवं राष्ट्र के नव-निर्माण को अपना लक्ष्य बनायें और उसी में तत्परतापूर्वक संलग्न हों। यह कार्य घर में रहते हुए, अपने परिवार को भी समाज का एक अंग मानकर उसकी भी देखभाल एवं सेवा करते हुए हो सकता है। असल में यही उचित भी है कि अपनी आजीविका अपने घर में चलाई जाय और बचत का अधिकाधिक समय लोक सेवा के लिए लगाया जाय।

वानप्रस्थाश्रम की धर्म परम्परा का व्यापक पैमाने पर आरम्भ किया जाना आज की अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यकता है। इस दिशा में सर्वत्र अति उत्साहपूर्वक कदम उठाने ही होंगे। प्रसन्नता की बात है कि यह कार्य माघ-मास के शिविर के साथ आरम्भ हो गया।

उन्नाव (उ.प्र.) के सुप्रसिद्ध डॉक्टर श्री राजेन्द्र सहाय अपना निज का सफल अस्पताल चलाते हैं। उनकी प्रतिष्ठा एवं आजीविका बढ़ी-चढ़ी है। आध्यात्मिक दृष्टि से उनकी साधना योगियों जैसी है। गृहस्थ में रहकर उन्होंने घर को ही गुफा बनाकर कठिन तपश्चर्याएँ एवं साधनाएँ की हैं। साँसारिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से उन्हें एक सफल व्यक्ति कहा जा सकता है। वे इसी शिविर के अन्तिम दिन वानप्रस्थ संस्कार कराने मथुरा आये। ता0 14 फरवरी को उनके जीवन का 50 वाँ वर्ष पूरा होकर 51 वाँ आरम्भ होता है। प्रचलित परम्पराओं के आधार पर किसी व्यक्ति या संस्था के जन्म से 25 वे वर्ष में रजत-जयन्ती, 50 वे वर्ष में स्वर्ण-जयन्ती, 75 वे वर्ष में हीरक-जयन्ती और 100 वे वर्ष में शताब्दी मनाई जाती है। गत वर्ष अखण्ड ज्योति के 25 वें वर्ष में हम लोगों ने उसकी रजत-जयन्ती मनाई भी है। डॉक्टर साहब के जन्म का यह 50 वाँ वर्ष था अतएव उसका हर्षोल्लास मनाना उचित भी था। युग निर्माण के वे कर्मठ सदस्य हैं। यों उनका निज का भी समुन्नत परिवार है। पर उससे घनिष्ठ उनका आध्यात्मिक परिवार अखण्ड-ज्योति परिवार भी है। अतएव उन्होंने यह उचित ही समझा कि अपनी स्वर्ण-जयन्ती के अवसर पर मथुरा पहुँचे। शिविर के साधकों ने इस पर बड़ा हर्ष माना और 50 पुष्प हार से उन्हें लाद दिया। 50 दीपक उनके जीवन को अधिक प्रकाशवान करने के लिए जलाये गये तथा संस्था में उनका विशिष्ट अभिनंदन किया। उसी अवसर पर डॉक्टर साहब ने भारतीय परम्पराओं के आधार पर अपनी ढलती आयु के साथ लोकसेवा का व्रत ग्रहण करते हुए वानप्रस्थ भी ग्रहण किया। यज्ञ वेदी पर वे संस्था की ओर से दिये गये पीत परिधान पहने, धर्म देह धारण किये ऋषि हो जैसे दृष्टिगोचर हो रहे थे। 24 कलशों से वेद मन्त्रों की ध्वनियों के समक्ष उनका अभिषेक किया गया, पुष्पलता से लाद दिया गया। संस्कार के बाद डॉक्टर साहब ने अपने भावी जीवन की रूप रेखा समझाई तो उपस्थित लोग भाव विभोर हो उठे। वह दृश्य कितना स्वाभाविक, कितना मनोरम और कितना भावनापूर्ण था कि उस स्थिति का चित्रण पंक्तियों में संभव नहीं।

मानव जीवन की सार्थकता के लिए इस प्रकार उठाये गये कदम ने दूसरों को भी बड़ी प्रेरणा दी और उन्होंने भी इसका अनुकरण किया। शिविर में उपस्थित कई व्यक्ति पहले से ही इस प्रकार का निश्चय कर चुके थे और लगभग वैसा ही जीवन यापन कर भी रहे थे। पर इस अनुपम दृश्य को देखकर उनकी भी भावनाएँ उमड़ पड़ी और ता. 15 को शिविर की पूर्णाहुति के दिन 9 अन्य कर्मठ परिजनों ने भी वानप्रस्थ ग्रहण कर लिया। जिनके परिचय एवं चित्र युग निर्माण योजना में छपे हैं। इन्हीं वानप्रस्थियों लेने वालों में मस्तीचक (बिहार) के सुयोग्य डॉक्टर एवं प्रतिभाशाली विद्वान श्री रमेश चन्द्र शुक्ल भी हैं जो काफी दिनों से अपना जीवन धर्म संस्कृति की सेवा के लिए उत्सर्ग किए हुए हैं। इन्हीं वानप्रस्थों में देहरादून के प्रथम श्रेणी के उच्च परिवार की सुसंस्कृत महिला श्रीमती सुशीला देवी भी हैं जिनका पुत्र एवं पुत्र-वधू दोनों ही डॉक्टर हैं और चिकित्सा विभाग में विशेष योग्यताएँ प्राप्त करने के लिए दोनों ही अमेरिका गये हुए हैं। उनकी धार्मिकता एवं समाज सेवा की वृत्ति पहले से ही थी पर अब तो उनने पूरा समय जन-जागरण के लिए ही लगाना निश्चय कर लिया है। इसी प्रकार के अन्य सभी वानप्रस्थी हैं, जिनकी शिक्षा, प्रतिभा, साधना एवं सामाजिक स्थिति निखरी हुई है।

वानप्रस्थ आन्दोलन का शुभारम्भ जिस शुभ मुहूर्त में हुआ है, जिन लोगों ने पहल की है, उसे देखते हुए यह लगता है कि यह भावना आँधी, तूफान की तरह फैलेगी और देश भर में विशेषतया अखण्ड-ज्योति परिवार में, सहस्रों व्यक्ति अगले ही दिनों वानप्रस्थ ग्रहण करने के लिए भावान्वित होंगे और देश की इस विषम परिस्थिति को बदल डालने में महत्वपूर्ण भूमिका सम्पादन करेंगे।

धर्म प्रचार का रचनात्मक अभियान—

इस माघ शिविर में उस योजना का भी विधिवत् उद्घाटन हो गया जिसके अनुसार धर्म तंत्र के माध्यम से जन-जागरण का प्रयोजन पूरा करने के लिए धर्म प्रचारकों की, युग निर्माताओं की एक बड़ी सेना खड़ी की जानी है। पिछले अंकों में यह बताया जा चुका है कि राजतंत्र से भी अधिक शक्तिशाली धर्मतंत्र है। लोक भावनाओं का परिष्कार यदि वस्तुतः संभव हो सकता है तो उसका माध्यम धर्मतंत्र ही है। हमें धर्म मंत्र का आश्रय लेकर ही लोक मानस का पुनर्निर्माण करना होगा। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए ऐसे प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं की आवश्यकता है जो धर्मानुष्ठानों के विधि-विधानों की प्रक्रियाओं में पारंगत होने के साथ-साथ जन-जीवन में प्रबुद्ध भावनाएँ उत्पन्न कर सकने में भी समर्थ हों। धर्मानुष्ठानों के माध्यम से आजीविका किसी की भी बड़ी अच्छी तरह चल सकती है। जब निरर्थक भार रूप धर्म वेषधारी लाखों, करोड़ों की संख्या में गुलछर्रे उड़ा रहे हैं तो क्या अपने को खपा देने वाले सच्चे लोक सेवक, सच्चे कर्मनिष्ठ ब्राह्मणों को आजीविका न मिलेगी। वह मिलती रहे, उसके लिए हमारे पूर्व पुरुष दान-दक्षिणा की आवश्यक परम्परा पहले से ही प्रचलित करके रख गये हैं।

(1) जन्म से लेकर मरण पर्यन्त षोडश संस्कारों की प्रक्रिया पुनः जागृत करके व्यक्ति निर्माण एवं परिवार निर्माण का प्रशिक्षण प्रारंभ करना (2) पर्व और त्यौहारों के अवसर पर सामूहिक धर्मानुष्ठानों का आयोजन करके समाज में विविध सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन करना (3) सत्य नारायण व्रत कथा में सन्निहित, नैतिक, बौद्धिक क्रान्ति को घर-घर में प्रज्ज्वलित करना (4) गीता सप्ताह कथा आयोजनों से एक सप्ताह के रचनात्मक शिविरों का तथा प्रस्तुत 3000 शाखाओं के वार्षिकोत्सवों का आयोजन करना (5) जन्म दिन, विवाह दिन एवं संस्कारों के माध्यम से प्रत्येक शाखा में पारिवारिक सत्संगों का प्रचलन तथा संगठनात्मक उद्देश्य को पूर्ण करना (6) पंच कुण्डी छोटे गायत्री यज्ञों द्वारा कम खर्च में जगह-जगह विशेष उत्साहवर्धक धर्म सम्मेलनों का आयोजन करना। यह कार्यक्रम तत्काल ही क्रियान्वित किये जाने थे। प्रसन्नता की बात है कि इसकी सुव्यवस्थित रूप रेखा बना दी गई और इस माघ शिविर में उसका व्यावहारिक प्रशिक्षण भी आरंभ कर दिया गया।

उपरोक्त प्रयोजन के लिए छह अत्यन्त महत्वपूर्ण पुस्तकें छप कर इसी महीने में तैयार हुई हैं, जिनकी सूचना इसी अंक के पिछले टाइटल पृष्ठ पर विज्ञापन रूप में छपी है। यह साहित्य इस ढंग से लिखा गया है कि इसके आधार पर उपरोक्त सभी कार्यक्रम चलाने की शिक्षा घर बैठे भी प्राप्त की जा सकती है और कोई भी उत्साही एवं धर्म प्रेमी व्यक्ति अपनी आजीविका कमाते हुए लोक निर्माण के कार्य में तत्परतापूर्वक संलग्न हो सकता है। शाखाएँ अपने-अपने यहाँ ऐसे प्रचारक नियुक्त कर सकती हैं। दान इन संगठनों को प्राप्त हो और वे संगठन प्रचारकों को आजीविका दिया करे तो उत्तम रहेगा। यों गीता कथा के साप्ताहिक आयोजनों से भी आमदनी हो सकती है। पहले सोचा गया था कि सात दिन के आयोजन में उन्हें 40) दक्षिणा से काम चला जायगा और सोचने पर तथा विचार करने पर मालूम हुआ कि इस महंगाई के जमाने में सुयोग्य व्यक्ति उतने सस्ते नहीं हो सकते। उनकी दक्षिणा 50) तो रखनी ही होगी। महीने में दो तीन सप्ताहों से अधिक एक प्रचारक काम नहीं कर सकता। उसकी आय सौ-डेढ़ सौ रुपए से भी क्या कम होनी चाहिए। इस दृष्टि अब ऐसे प्रचारकों की दक्षिणा 50) नियत कर देने पर दोनों ओर से कोई हिचकिचाहट वाली बात न रह जायगी और जो प्रचार के इस क्षेत्र में उतरेंगे वे अधिक उत्साह एवं मनोयोग पूर्वक अपना कार्य चला सकेंगे। आयोजन कर्ताओं के लिए भी यह रकम अन्य प्रचारकों की अपेक्षा अत्यधिक कम एवं सुविधाजनक ही प्रतीत होगी।

इस महीने में प्रकाशित छह पुस्तकों के आधार पर वे लोग जिन्हें धर्म प्रचारक बनना है, घर बैठे अपनी तैयारी आरम्भ कर सकते हैं और सुविधा हो तो जेष्ठ के शिविर में मथुरा आकर उस प्रशिक्षण को और भी अधिक स्पष्टतापूर्वक समझ सकते हैं तथा प्रत्यक्ष देख सकते हैं। जो कमियाँ रह गई होंगी वे सब दूर हो जायेंगी। आमतौर से इन पुस्तकों के आधार पर बिना ट्रेनिंग के भी काम लिया जा सकता है क्योंकि उन्हें लिखा ही इस ढंग से गया है कि अजनबी व्यक्ति भी इस प्रक्रिया को सरलता पूर्वक कार्यान्वित कर सकें। शाखाएँ इन छह पुस्तकों के सैट और अपने यहाँ मंगाकर रख लेंगे तो उन्हें इन आयोजनों को प्रचलित करने में तनिक भी असुविधा न होगी।

धर्म प्रचारकों की एक बड़ी सेना तैयार करने का उद्देश्य यह नव प्रकाशित साहित्य बड़ी सुविधा पूर्वक पूर्ण करेगा। व्यावहारिक प्रशिक्षण की व्यवस्था भी मथुरा में रहेगी ही। इस प्रकार आशा की जा सकती है कि हम अगले वर्ष एक हजार धर्म प्रचारक देश के कोने-कोने में फैला सकने की स्थिति में हो सकेंगे। शाखाएँ अपने यहाँ पर एक प्रचारक व्यक्ति को रखेंगी ही। जो लोग बाहर नहीं जा सकते वे अपने निज के परिवार में अथवा शाखा संगठन के माध्यम से अपने समीपवर्ती यज्ञों में प्रचार कार्य करेंगे ही। इस प्रकार यह असम्भव नहीं कि अगले वर्षों में छोटे बड़े दस हजार धर्म प्रचारक युग-निर्माण जन जागरण की अपनी अभिनव योजना को कार्यान्वित करने के लिए खड़े हो जायं।

सामाजिक क्रान्ति की व्यापक योजना—

इस प्रचार तन्त्र के समर्थ एवं सुव्यवस्थित होने पर सामाजिक क्रान्ति का उद्देश्य पूरा कर सकना

कुछ कठिन न रह जायगा। विवाह-शादियों के नाम पर होने वाला अपव्यय जैसी अगणित सामाजिक कुरीतियाँ ऐसी हैं, जिनने अपनी जाति को खोखला करके रख दिया है। इनकी कमर तोड़नी आवश्यक है। धन की प्रतिष्ठा को गिराना और चरित्र एवं सेवा की महत्ता को अपना न आवश्यक है।

हमें ऐसे आयोजन करने होंगे, जिसमें उपेक्षित आदर्शवादियों को सम्मान एवं प्रोत्साहन मिले और अनीति अपनाने वालों को तिरस्कृत होना पड़े। शिक्षा के क्षेत्र क्रान्ति में होनी बाकी है। हमारी विचारणाएँ सज्जनोचित नहीं रही और न पारस्परिक संबंध में ही मानवोचित सौहार्द रह गया है, यह स्थिति बदली जानी चाहिए यह बदलाव संगठित विशाल प्रयत्नों एवं व्यापक अभियानों से ही सम्भव होंगे। यह संगठित शक्ति विकसित करने के लिए शाखाओं द्वारा एवं धर्म प्रचारकों द्वारा व्यापक बनाया गया अभियान कितना अधिक कारगर होगा, इसका साकार स्वरूप कुछ ही दिनों में आँखों से देखने के लिए हमें तैयार रहना चाहिये।


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