सुख-प्राप्ति ही मनुष्य की मूलभूत आकाँक्षा है। उसका सारा जीवन प्रायः इसी के प्रयत्न में बीतता है। जिस वस्तु परिस्थिति में मनुष्य को सुख दिखाई देता है, उसी की प्राप्ति में ही उसकी सारी प्रवृत्तियाँ, सारी चेष्टायें काम किया करती हैं। पर अधिकाँश व्यक्ति सुख प्राप्ति के सच्चे उपाय को जान नहीं पाते हैं। अज्ञानवश वह तात्कालिक सुखोपभोग की कामना से प्रायः दूसरों के हित का भी ध्यान नहीं रखते। अधर्मी लोग सुख प्राप्ति स्वार्थपूर्ण दृष्टिकोण के द्वारा ही करते हैं, किन्तु इससे कठिन समस्यायें, विवाद और बुराइयाँ उठ खड़ी होती हैं, फलस्वरूप मूलभूत आकाँक्षा का पतन हो जाता है। सुख ढूँढ़ने चलते हैं, फँस जाते हैं विपत्तियों के जंजाल में।
सुख का आधार धर्म और सदाचार है। इसके बिना मनुष्य वास्तविक सुख प्राप्त नहीं कर सकता। शास्त्रकार का उपदेश है—
सुखार्थाः सर्वभूतानाँ मताः सर्वाः प्रवृत्तयः।
सुखं च न बिना धर्मात् तस्मार्द्धमपरो भवेत्॥
अर्थात् “सुख सभी चाहते हैं कि धर्म के बिना सुख प्राप्त करना—असम्भव ही है।” इसलिये अपनी चेष्टाओं की बड़ी सावधानी से देख-रेख करते रहना चाहिए।
पाप वृत्तियाँ और देवत्त्व दोनों ही मनुष्य के अन्तः करण में निवास करते हैं। आसुरी शक्तियों में आकर्षण और तात्कालिक प्रलोभन का भाव अधिक होता है, इससे मनुष्य बलात् बुराइयों की ओर खिंच जाता है। यह बुराइयाँ जब स्वभाव में गहराई तक प्रवेश कर जाती हैं तो वे संस्कार बन जाती हैं। यह कुसंस्कार ही मनुष्य को जन्म जन्मान्तरों तक जन्म-मरण और साँसारिक दुःखों में—आवृत्त किए रहते हैं। मनुष्य बार-बार पाप करता है। बार-बार दुःख पाता है। इस भ्रम-जाल में वह अपने वास्तविक लक्ष्य को भूल जाता है, परिणाम यह होता है कि मनुष्य जीवन मिलने पर भी यह सामान्य प्राणियों जैसे ही आचरण करता रहता है। उसका विचार, उसका विवेक उसकी सद्बुद्धि अधर्माचार के कारागार में बँधी पड़ी रहती है। बेचारा जीव तरह-तरह के दुःख सहन करता हुआ भाग्य और ईश्वर को दोष लगाता रहता है।
विषयों में प्रवृत्ति के कारण ही प्रायः लोग पापकर्म करते हैं। इसलिए भगवान कृष्ण ने यह निर्देश किया है—
रागद्वेववियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैविधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥
प्रसादे सर्वदु खानाँ हानिरस्योपजायते।
अर्थात् “अपने अन्तःकरण में उठने वाली दुष्प्रवृत्तियों के वशीभूत न होकर, स्वच्छन्द—अन्तःकरण वाले बनिए। जब तक ऐसा नहीं करेंगे, राग-द्वेष से तब तक निवृत्ति नहीं होगी। जब तुम इन्द्रियों का स्वामित्व प्राप्त कर लोगे तभी प्रसन्नता प्राप्त होगी। इस दिव्य आनन्द के द्वारा ही जीवन का सच्चा सुख प्राप्त कर सकोगे।
पाप और अधर्म की दुष्प्रवृत्तियों से जो समय रहते सावधान हो गया वही सच्चा साधक, सच्चा आध्यात्मवादी कहा जा सकता है। मोह माया के क्षुद्र जीवन से ऊपर उठने के लिए सदाचार आवश्यक है जो केवल अपरिपक्व, अस्थिर, क्षुद्र और छोटी-छोटी बातों में ही जीवन गँवाते रहते हैं उन्हें अज्ञानी ही माना जायेगा। उनको इस लोक में दुःख भोगने पड़ते हैं और परलौकिक अनुभूतियों से भी वञ्चित रहना पड़ता है।
प्रसिद्ध फ्राँसीसी विद्वान् बर्थेलो ने एक बार अपने प्रवचन में कहा—”मनुष्य-जाति की सर्वोपरि प्रेरक शक्तियाँ हैं—शक्ति और धर्म।” आत्मा का अस्तित्व इन्हीं से जाना जा सकता है।” आत्मा का अस्तित्व इन्हीं से जाना जा सकता है।” मनुष्य को जिस सुख की कामना है वह यथार्थ में कोई बाह्य वस्तु या परिस्थिति नहीं है। मनुष्य अपनी रुचि के अनुसार जिन वस्तुओं में तृप्ति देखता है, उन्हीं को सुख का साधन मान लेता है। यहाँ यह भूल जाते हैं, कि हमारा मूल विषय निजत्व का ज्ञान प्राप्त करना है।
अर्थात् हम तब तक सुख प्राप्ति नहीं कर सकते जब तक यह नहीं जान लेते कि हम क्या हैं, कौन हैं और हमारा शाश्वत स्वरूप क्या है। यह अज्ञानता ही दुःख का कारण है, क्योंकि लोग पाप और दुष्कर्म अज्ञानवश ही करते हैं। आत्मा की सही स्थिति का ज्ञान होते ही मनुष्य की चित्तवृत्तियाँ शुद्ध और पवित्र होने लगती हैं, इसीलिए सुख प्राप्ति के लिए भी शुद्ध जीवन की आवश्यकता पर अधिक जोर दिया जाता है।
दुःख—जिसे कोई नहीं चाहता—वह मनुष्यों के अधर्म और पाप कर्मों का ही परिणाम होता है। सुख की प्राप्ति सुयोग्य आचरण से होती है और पाप-सम्पादन से त्रास बढ़ता है। पर मनुष्य सदैव इससे विपरीत ही आचरण—करता है, इसलिए शास्त्राकार ने निर्देश दिया—
पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्तिमानवाः।
न पापफल मिच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः॥
अर्थात् “मनुष्य सुखों की, पुण्य फल की इच्छा तो करता है, किन्तु स्वयं पुण्य अर्जित नहीं करता है। पाप के दुष्परिणामों से डरता है, किन्तु यत्नपूर्वक करता दुष्कर्म ही है।” ऐसी स्थिति रहते हुए भला किसी को सुख मिल सकता है? आम का फल आम होता है, बबूल नहीं। इसलिए सुख वही प्राप्त कर सकते हैं, जिनकी प्रवृत्तियाँ भी सन्मार्गगामी होती हैं।
मनुष्य संकुचित दृष्टिकोण के कारण पाप करता है। तत्काल के लाभ प्राप्त करने के लिए जब दूरगामी परिणाम दिखाई नहीं देते तभी मनुष्य दुष्कर्म करता है। चोरी करने वाला यदि यह जान ले कि उसे इसके बदले में जेल जाना पड़ेगा, पकड़े जाने पर तरह-तरह के दण्ड दिए जा सकते हैं, तो यह संभव है कि उस दुष्कर्म से बच जाय। किंतु संकुचित दृष्टिकोण के कारण वह यह समझता है कि उसे कोई नहीं देखता, किन्तु उसका हृदयस्थ आत्म इस दुष्कृत्य को देखता रहता है, जो बाद में उसके पश्चाताप, ग्लानि और विक्षोभ का कारण बनता है। भगवान् मनु ने लिखा है—
मन्यन्ते वै पापकृतो न कश्चित्पश्यतीतिनः।
ताँस्तु देवाः प्रपश्यन्ति स्वस्यैवान्तरपुरुषः॥
अर्थात् “पाप करने वालो! यह न समझो—कि तुम्हें कोई देख नहीं रहा है। तुम्हारे हृदय में बैठा हुआ तुम्हारा आत्मा ही सब कुछ देख रहा है।” अतः मनुष्य सबसे प्रथम इस सत्य को स्वीकार करे कि संसार के सभी मनुष्य समान हैं। सबके साथ न्याय का बर्ताव करना चाहिए। जब तक ऐसी धर्म बुद्धि नहीं तब तक मनुष्य बुरे कर्म ही करता है और उनके दुष्परिणाम भोगता रहता है।
सच्चे धर्म के सिद्धान्त सभी के लिए इतने स्वाभाविक हैं कि जैसे ही उन्हें लोगों के आगे रखा जाता है, लोग उन्हें इस प्रकार स्वीकार कर लेते हैं, जैसे इससे बहुत समय से परिचित रहे हैं। धर्म आत्मा की आध्यात्मिक प्यास है। उसे धर्म में ही सुख मिलता है। इसलिए जब भी वह अपने शुद्ध स्वरूप को समझ पाता है, तभी से उसके शुद्ध जीवन की प्रशस्ति प्रारम्भ हो जाती है। सम्प्रदायवाद की विविधता में भी धर्म का स्वरूप अविच्छिन्न है। धर्म वह है जो मनुष्य को क्षुद्र जीवन से उठाकर डडडडडडड और आत्मदर्शी बनाता है।
भले-बुरे कर्मों के द्वारा मनुष्य अपने ईश्वरीय अंश को चाहे तो बढ़ा ले, चाहे घटा ले। ईश्वरीय-ज्योति को विकसित करने के लिए वासनाओं का दमन करना पड़ता है और अपने अन्दर प्रेम-भाव, अहिंसा और उदारता के सद्गुणों का जागरण करना होता है। यह सिद्धान्त पूर्णतया सर्व-धार्मिक और सार्वभौमिक है। मतमतान्तर का इसमें किसी प्रकार झगड़ा नहीं है।
धर्म सिखाता है कि मनुष्य का और संसार के समस्त पदार्थों का परमात्मा से क्या संबंध है। धर्म मनुष्य की आन्तरिक शक्तियों को जगाता है। सही ज्ञान और आन्तरिक शक्तियों के समन्वय से ही मनुष्य का जीवन सर्वांगपूर्ण बनता है।
मना पापसंकल्प सोडूनि द्यावा।
मना सत्यसंकल्प जीवी घरावा॥
अर्थात् हे मन! तू अपने पाप-संकल्पों को त्याग कर सत्य-संकल्प धारण कर। यह निर्विवाद सत्य है, कि हमारा जीवन लक्ष्य बाह्य सुखोपभोग तक ही सीमित नहीं है। अपना एक सात्त्विक लक्ष्य भी है—वह है, आत्म-ज्ञान और आध्यात्मिक-सुख की प्राप्ति। इस लक्ष्य को पूरा करना हो तो अधर्म और पापाचार से बचकर सत्य-संकल्पों को ही जीवन में प्रथम स्थान देना होगा।