बच्चों को अर्थ-अनुशासन की शिक्षा दीजिए

March 1965

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आज के घोर आर्थिक युग में प्रायः यह देखने में आता है कि जिस प्रकार हर बात का मापदण्ड पैसा बन गया है, उसी प्रकार बच्चों के लाड़-प्यार का मापदण्ड भी पैसा बन गया है। जो व्यक्ति अपने बच्चों पर जितना अधिक खर्च करता है और जितना अधिक खर्च करने को देता है, मानो वह उन्हें उतना ही अधिक प्यार करता है।

जहाँ माता-पिता बच्चों के प्रति अपने प्यार को इस प्रकार आँकते और अँकवाते हैं, वहाँ बच्चों ने भी अपने माता-पिता के प्यार का मापदण्ड पैसा बना लिया है। बहुधा देखा जाता है कि जितने माता-पिता अपने बच्चों पर जिस अनुपात से खर्च करते हैं और उनको खर्च करने को देते हैं, बच्चे उसी अनुपात से उनकी ओर आकर्षित रहते हैं, और दोनों पक्ष इस स्वार्थ-जन्य आकर्षण को प्यार समझने के भ्रम में भूले रहते हैं।

स्कूलों और कॉलेजों के लड़के अपने माता-पिता की अच्छाई-बुराई की विवेचना अधिकतर आर्थिक आधार पर करते पाये जाते हैं। जो लड़के अच्छे-अच्छे कपड़े पहनने और ज्यादा से ज्यादा पैसा खर्च करने को पाते हैं, वे तो बढ़-चढ़ कर अपने माता-पिता की तारीफ करते हैं, और जो बेचारे इससे वंचित रहते हैं वे वास्तविक रूप से अच्छे होने पर भी अपने माता-पिता की प्रशंसा करने में शर्म महसूस करते हैं।

आज अर्थ-जन्य प्यार का इतना बोलबाला हो गया है कि वे माता-पिता अपने बच्चों की सहज श्रद्धा से भी वंचित रहने लगे हैं, जिनके पास एक अच्छा आर्थिक आधार नहीं होता, अपितु कभी-कभी उन्हें अपनी सन्तानों की तुरसी और तिरस्कार का भी पात्र बनना पड़ता है।

धनाढ्य माता-पिता आत्म-अध्ययन के अनुभव पर अपने आर्थिक आधार को जीवन-भर बड़ी दृढ़ता से पकड़े हुये, आर्थिक-लोभ से उत्पन्न बच्चों की प्रतिस्पर्धी श्रद्धा को बनाये रखने का प्रयत्न करते हैं। यहाँ तक कि वसीयत करते समय “जब तक जिऊँ, मेरे मरने के बाद” आदि वाक्यों की व्यवस्था बड़ी सावधानी से करा लेते हैं। उन्हें सन्तानों से अधिक अपने पैसे पर अधिक भरोसा रहता है। यह सब अर्थ के प्रति बच्चों का गलत दृष्टिकोण विकसित करा देने का ही फल है।

बच्चों के जरा रोने, रूठने अथवा नाराज होने पर तुरन्त देकर मनाने का अभ्यास उनके भविष्य के लिए एक भयानक भूमिका है। इस प्रकार वे पैसे के लोभी बन जाते हैं, और बेबात तक पर रूठ कर माँ बाप का आर्थिक शोषण करने के आदी हो जाते हैं, जो आगे चलकर परिस्थितिवश उनके बीच नापसन्दगी का कारण बन सकता है।

जो माँ-बाप अपने बच्चों को बिना समझे-बूझे मनमाना पैसा खर्च करने को देते हैं, वे न केवल उनके जीवन के साथ खिलवाड़ करते हैं, वरन् परोक्ष रूप से समाज में फैली बुराइयों को भी बढ़ावा देते हैं।

बच्चों की भोजन, वस्त्र, दूध, नाश्ता, पुस्तकें, फीस आदि की प्रायः सारी आवश्यकतायें जब घर पर ही पूरी हो जाती हैं, तब उन्हें अलग से और पैसा देने की आवश्यकता समझ में नहीं आती। यह निश्चित है कि अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाने के बाद जो धन उन्हें अलग से खर्च करने के लिए दिया जावेगा, उसको वे अनावश्यक चीजों पर ही खर्च करके अपनी आदत बिगाड़ लेंगे। वे उस पैसे से चाट खायेंगे, पतंग-उड़ायेंगे, सिनेमा देखेंगे, पान-सिगरेट का प्रयोग करेंगे और होटल व रेस्टोरेन्टों में यार-दोस्तों के साथ बैठकर खाने न खाने वाली चीजें खायेंगे, चाय पियेंगे और गप्प मारते हुए समय गंवाएंगे और न जाने इस प्रकार की कितनी बुरी बातों के आदी बन जायेंगे

हाथ में अनावश्यक पैसा होने से उनकी वृत्तियाँ चंचल हो उठेंगी और उनका मन पढ़ने-लिखने के बजाय घूमने-फिरने और सैर-सपाटे की ओर दौड़ेगा। अपने स्वार्थी मित्रों से घिरे रहने के कारण दुर्व्यसनी बन जावेंगे। जो आगे चलकर उनकी दुःखपूर्ण आर्थिक अस्त-व्यस्तता का कारण बनेगा।

किन्तु इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि मनुष्य के बच्चों की आवश्यकतायें भी उतनी ही सीमित आवश्यकतायें हैं जितनी कि एक गाय के बच्चे की- आवश्यकता भर दाना-पानी और रात को एक झूल बस।

आज के समय में जिस प्रकार विविध वस्तुओं की बढ़ती हो गई है, उसी प्रकार सबकी आवश्यकताएं भी बढ़ गई हैं। बच्चा खेलने के लिए गेंद-बल्ला चाह सकता है, स्कूल की प्रदर्शिनी में लगी बाजार में क्रय-विक्रय करने की इच्छा रख सकता है। किसी आयोजित पिकनिक में जाते समय जेब में पैसा होना जरूरी हो सकता है, मेले में कोई सुन्दर वस्तु खरीदने के लिए लालायित हो सकता है। कभी-कभी सिनेमा देखने को जी कर सकता है। विद्यार्थी संघों अथवा समितियों में चन्दे की जरूरत पड़ सकती है। ऐसी बहुत-सी चीजें खाने की इच्छा कर सकता है जो घर पर अच्छी प्रकार अथवा सुविधापूर्वक नहीं बनाई जा सकतीं। कोई अच्छी पुस्तक अथवा पत्रिका पढ़ने को मन हो सकता है, अथवा जेब में पैसा रहने के सुखद-संतोष की कामना कर सकता है, आदि बच्चे की ऐसी बहुत-सी अतिरिक्त एवं सामयिक आवश्यकतायें हो सकती हैं।

बच्चे को पैसे के दर्शन न करना अथवा उसकी सामयिक एवं अतिरिक्त आवश्यकताओं के लिए पैसा न देना भी उसके साथ अन्याय करना होगा। बच्चे को पैसे की बुराई से बचाने के लिए आर्थिक पाश को इतना न कसिये कि वह कसमसा कर दरिद्र भावना का शिकार हो जाये, पैसे पैसे को तरस जाये, और इस प्रकार तो वह अनुचित ढंग से पैसा पाने का प्रयत्न करने लगेगा।

आप बच्चे को पैसा दीजिये किन्तु एक निश्चित सीमा तक जिम्मेदारी के साथ। उसे “हर बात पर पैसा हर बात पर पैसा”—का आदी न बनाइये, और नाहीं उसके बार-बार माँगने पर पैसा देकर पीछा छुड़ाने की कोशिश कीजिए। और यह बात तो अपने मस्तिष्क से बिलकुल ही निकाल दीजिए कि बच्चे को बहुत अधिक शान-शौकत से रखना अथवा खर्च के लिए अधिक से अधिक धन देना कोई आर्थिक गौरव अथवा सामाजिक प्रतिष्ठा की बात है।

बच्चे की अतिरिक्त आवश्यकता के औचित्य, अनौचित्य का पता इस ढंग से लगाइये कि वह यह न समझने पावे कि उसकी माँग पर सन्देह किया जा रहा है, अथवा उसकी जासूसी की जा रही है। बच्चा जब पैसा माँगे तब प्यार से उसकी जरूरत की बाबत पूछिये, यदि उसकी आवश्यकता अनुचित होगी तो वह खुद अचकचा जायेगा, तब उसे न तो झिड़किये और न शर्मिन्दा कीजिए, वरन् प्यार से कहिये कि देखो तुम जिस काम के लिए पैसे चाहते हो उसको स्वयं बुरा समझते हो। बच्चे पर इसकी स्वस्थ प्रतिक्रिया होगी, और शरमा कर फिर कभी दुरुपयोग के लिए पैसा की माँग नहीं करेगा। और यदि आप देखें कि उसकी माँग उचित है तो अवश्य उसे पूरा करने का भरसक प्रयत्न कीजिए।


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