मनुष्य जीवन का उद्देश्य भी समझें

March 1965

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प्रातः सूर्य के उदय होते ही जिन्दगी का एक नया दिन शुरू होता है और सूर्यास्त होते तक दिन समाप्त हो जाता है। इस तरह रोज एक दिन उम्र से घट जाता है। जन्म लेने के बाद से ही आयु-क्षय का यह कार्यक्रम शुरू हो जाता है, किन्तु अनेक प्रकार के कार्यभार से बढ़े हुये विभिन्न क्रिया-व्यापारों में लगे रहने के कारण इस बीतते हुये समय का पता नहीं चलता। ऐसे अवसर प्रायः प्रतिदिन आते हैं जब जीवों के जन्म, वृद्धावस्था, विपत्ति, रोग और मृत्यु के कारुणिक, विचार-प्रेरक दृश्य देखते हैं, किन्तु कितना मदान्ध, कामनाग्रस्त और अविवेकी है इस धरती पर मनुष्य कि वह सब कुछ देखते हुये भी आँखों से, विवेक और विचार की आँखों से अन्धा ही बना हुआ है। मोह और साँसारिक प्रसाद में लिप्त मनुष्य घड़ी भर एकान्त में बैठकर इतना भी नहीं सोचता कि इस कौतुहलपूर्ण नर-तनु में जन्म लेने का उद्देश्य क्या है, हम कौन हैं, कहाँ से आये और कहाँ जा रहे हैं?

प्रकृति-प्रवाह की अबूझ परम्परा में प्रवाहित मनुष्य संसार के सुखों को, इन्द्रियों के भोगों को, पदार्थों के स्वामित्व को, धन, पुत्र तथा विविध कामनाओं को ही जीवन का लक्ष्य बनाकर इस बहुमूल्य अवसर को खो देता है। अन्ततः काल की घड़ी जब सामने आती है और विदा होते समय सिर पर पापों, दुष्कर्मों का भयंकर बोझ चढ़ा दिखाई देता है तो भारी पश्चाताप, घोर-संताप और आन्तरिक अशान्ति होती है। सौदा बिक गया और फिर कीमत लगाई भी तो क्या? विशाल-वैभव अपार धन-धान्य राशि पुत्र-कलत्रादि को कोई भी साथ नहीं देता। यह सारा संसार, यहाँ की परिस्थितियाँ सब ज्यों की त्यों दिखाई देती हैं, किन्तु वह सब उस समय उपयोग के बाहर होती हैं। अपना शरीर भी साथ नहीं देता। केवल अच्छे-बुरे संस्कारों का बोझ लादे हुये जीवन परवश यहाँ से उठ जाता है। कितनी अस्थिरता होती होगी उस समय यह कोई भुक्तभोगी ही समझता होगा।

मनुष्य के जीवन में यह जो विस्मृति है, वह सब असत् के संग से है। ज्ञान का आदर करने से हमारे भीतर से प्रश्न उठेंगे। हमारा कौन है? हम क्या हैं? हमें क्या नहीं करना चाहिये? इसका ज्ञान हमारे अन्दर मौजूद है, पर अपने जीवन का कोई सही दृष्टिकोण न बना सकने के कारण वह सारी ज्ञान-शक्ति विशृंखलित और बेकाम पड़ी हुई है। मनुष्य का पहला पुरुषार्थ है-जीवन लक्ष्य में प्रमाद न होने देना। यह तभी संभव है जब कर्त्तव्यों का उचित और सम्यक् ज्ञान हो। कर्त्तव्यों की विस्मृति मनुष्य ने अपने आप ही की है। जब वह कुछ करना चाहता है तो उसे औरों की आवश्यकता का ध्यान नहीं होता वरन् वह यह जानना चाहता है कि इसमें मेरा लाभ क्या है। अपने लाभ की अपेक्षा औरों के लाभ की बात सोचे तो कर्त्तव्य की विस्मृति न हो। इस कर्तव्य और अकर्तव्य के ज्ञान पर ही मनुष्य का उत्थान और पतन अवलम्बित है।

व्यावहारिक जीवन में कोई नीचे नहीं गिरना चाहता। सभी ऊँचे, बहुत ऊँचे उठने की आकाँक्षा लिये हुये हैं। प्रत्येक मनुष्य अपने आपको ऊँचा सिद्ध करना चाहता है। इसके लिये अपनी-अपनी तरह के पुष्टि और प्रमाण भी एकत्रित करते हैं और समय पड़ने पर उन्हें व्यक्त भी करते हैं। ऊँचे उठना मनुष्य का स्वाभाविक धर्म भी है, पर यदि किसी से यह पूछा जाय कि क्या उसने इस गम्भीर प्रश्न पर गहराई से विचार किया है? क्या कभी उसने यह भी सोचा है कि इस आकाँक्षा की पूर्ति के लिये उसने क्या योजना बनाई है? तो अधिकाँश व्यक्ति इस गूढ़ प्रश्न की गहराई का भेदन भी न कर सकेंगे। बात सीधी-सी है। महानता मनुष्य के अन्दर छिपी हुई है और व्यक्त होने का रास्ता ढूँढ़ती है, पर साँसारिक कामनाओं में ग्रस्त मनुष्य उस आत्म-प्रेरणा को भुला देना चाहता है, ठुकराये रखना चाहता है। अपमानित आत्मा चुपचाप शरीर के भीतर सुस्त पड़ी रहती है और मनुष्य केवल विडम्बनाओं के प्रपंच में ही पड़ा रह जाता है।

शारीरिक दृष्टि से मनुष्य कितना ही बली हो जाय, बौद्धिक दृष्टि से वह कितना ही तर्कशील क्यों न हो, धन के जखीरे भले ही लगे हों, पर आत्मा-सम्पदा के अभाव में वह मणि-विहीन सर्प की तरह अर्द्ध विकसित कहा जायगा। आत्म बल की उपलब्धि का एक सुख, संसार के करोड़ों सुखों से भी बढ़कर होता है। आत्मिक सम्पदाओं वाले नेतृत्व करते हैं, जन मार्ग दर्शन करते हैं। निर्धन-फकीर होने पर भी बड़े-बड़े महलों वाले उनके पैरों में गिरकर दया की भीख माँगते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य की महानता वाह्य नहीं आन्तरिक है। उसकी शक्ति गुण-विकास पर छिपी है। आन्तरिक श्रेष्ठता के आधार पर ही उसकी श्रेष्ठता प्रमाणित होती है। भौतिक सम्पदायें तुच्छ हैं, थोड़े समय महानता या बड़प्पन जताकर नष्ट हो जाती हैं।

मनुष्य-शरीर जैसा अलभ्य अवसर पाकर भी यदि उसका उद्देश्य नहीं जाना गया तो क्या मनुष्य का शरीर, क्या पशु का शरीर। आत्म-कल्याण की साधना जो इस जीवन में नहीं कर लेता उसके लिये इस सुर-दुर्लभ अवसर का कुछ भी उपयोग नहीं, श्रीमद्भागवत में बताया है—

यः प्राप्य मानुषं देहं मुक्ति द्वारमपावृतम्।

गृहेषु खगवत् सक्तस्तमारुढच्युतं विदुः॥

11 । 6 । 74

अर्थात्—”मोक्ष के खुले द्वार रूप मनुष्य शरीर को पाकर भी जो पक्षियों की तरह अज्ञान के घेरे में कैद है, उसे लक्ष्य से निरस्त ही समझना चाहिये।”

थोड़ा बाहर आकर देखिये, यह संसार कितना विस्तृत है, कितना विशाल है। रात्रि के खुले आसमान के नीचे खड़े होकर थोड़ा चारों ओर दृष्टि तो दौड़ाइये, कितने ग्रह—नक्षत्र बिखरे पड़े हैं। कितना बड़ा फैलाव है इस संसार का। पर इन सब बातों पर विचार करने का समय तभी मिलेगा जब भोगोन्मुख वृत्ति से चित्त हटा कर इन अपार्थिव विषयों की ओर भी थोड़ी दृष्टि जमायेंगे। कामनायें ही हैं, जो हमारी राह रोके खड़ी हैं। स्वार्थ ही है—जो आत्म-विकास के मार्ग पर आड़े अड़ा खड़ा है। ईर्ष्या द्वेष, काम, क्रोध , भय, लोभों वाले निविड़ में भटक गये हैं हम, इसलिये इस महानता की ओर अग्रसर नहीं हो पा रहे।

हम उदार बनें, साहस पैदा करें और आध्यात्मिक जीवन की कठिनाइयों को झेलने के लिये उठकर खड़े हो जायँ, फिर देखें कि जिस महानता की, उपलब्धि के लिए हम निरन्तर लालायित रहते हैं, वह सच्चे स्वरूप में मिलती है या नहीं। सत्य हमारे अन्दर छुपा है। उसे धर्म के द्वारा जागृत करो। शक्ति तुम्हारे भीतर सोई पड़ी है, उसे साधना से जगाओ, जीवन की सार्थकता का यही एक मात्र मार्ग है।

जिसे धारण करने से भय-रहित शान्ति मिले, वही धर्म है, वही लक्ष्य है। दूसरों के अधिकार हमारे द्वारा सुरक्षित रहें। स्वयं अधिकार की लोलुपता से मुक्त रहें। अपना कल्याण तृष्णा-रहित वासना-रहित एवं निष्काम होने में है। बन्धन में तो कामनायें ही बाँधती हैं। इसी से भूल होती है। इसी से अवनति होती है। इसी से मनुष्य सब प्रकार से दीन-हीन होकर कष्ट और क्लेश का झंझटों भरा जीवन बिताता रहता है। सुख और शान्ति भोग विलास में नहीं मनुष्य की सच्चरित्रता, ईमानदारी और पवित्रता में है। सद्गुणों में ही मनुष्य का वैभव छिपा हुआ है जिसे प्राप्त कर जीवन के सभी अभाव दूर हो जाते हैं।

जीवन-लक्ष्य के प्रति मनुष्य की दृढ़ता प्रबल होनी चाहिये। उसे विचार और विवेक के द्वारा सुदृढ़ बना कर अपने जीवन में गहराई तक ढाल देना पड़ेगा तभी जीवन लक्ष्य की प्राप्त कर सकने वाली सफलता प्राप्त की जा सकेगी। यह संसार और यहाँ की परिस्थितियों पर जितना अधिक विचार करेंगे उतना ही विवेक बढ़ेगा, समझ आयेगी और आत्म कल्याण का रास्ता साफ होगा। जब मनुष्य वस्तु स्थिति को समझ लेता है तो उसे मानने और अपनाने में भी कोई दिक्कत नहीं होती। पर जीवन-लक्ष्य की दृढ़ता और आत्म-विश्लेषण का विवेक इतना परिमार्जित होना चाहिये कि साँसारिक बाधाओं का, भोगों के प्रलोभनों का उस पर प्रभाव न पड़ सके तभी स्थिरता-पूर्वक उस महानता की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है जिसके लिये मनुष्य योनि में जीवात्मा का अवतार होता है।


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