अपने दोष स्वीकार कीजिये, औरों के भुलाइये

March 1965

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सद्गुण मनुष्य जीवन की प्रमुख आवश्यकता है। इससे मनुष्य के सुखों में अभिवृद्धि होती है, समाज में व्यवस्था रहती है और सर्वत्र सुखद वातावरण विनिर्मित होता है। सद्गुणी मनुष्य के लिए इस संसार में कुछ भी अभाव नहीं हैं। उसे आन्तरिक शान्ति होती है। संतोष मिलता है। सहज ही में आत्म ज्ञान प्राप्त कर लेता है।

किन्तु मनुष्य जिन परिस्थितियों में जन्म लेता है, उनमें पूर्णरूप से गुण-युक्त बने रहना प्रायः असंभव-सा है। दैनिक व्यवहार और लोकाचार में भूलें, त्रुटियाँ और अपराध होने भी संभव हैं। अच्छे-बुरे का विवेक सदैव नहीं रहता। मनोविकार उठते हैं तो मनुष्य दुष्कर्मों की ओर प्रेरित होता है। कुछ न कुछ दोष-ऐब सभी में होते हैं। पूर्ण रूप से सद्गुणी और सदाचारी व्यक्ति बहुत ही थोड़े मिलेंगे। अधिकाँश व्यक्तियों के स्वभाव में कुछ न कुछ बुराइयाँ जरूर होती हैं। यह संसार गुण दोषमय है, एक-सी स्थिति यहाँ कहीं नहीं है।

दोष मनुष्य जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया है किन्तु निन्यानवे प्रति सैकड़ा अवस्थाओं में कोई भी मनुष्य अपने को दोषी नहीं ठहराता, चाहे उससे कितनी ही भारी भूल क्यों न हुई हो।

भूल को स्वीकार कर लेने में हानि कुछ भी नहीं है। अपना मन निर्मल हो जाता है, और आगे के जीवन के लिए स्वस्थ-चित्त एवं जागरुक हो जाते हैं। किन्तु दोष को जब दोष मानकर स्वीकार नहीं किया जाता तो मनुष्य का दुस्साहस उद्दीप्त होता है और उसे अपराध करने में ही आनन्द आने लगता है। छिपाई हुई भूल भी अनेकों दूसरे प्रकार के अनर्थों को जन्म देती है। इस तरह पाप और दोष-दुष्कर्म से प्रत्यक्ष में उतना विषैला वातावरण नहीं बनता जितना उसे छिपाने से होता है।

छिपाये हुये अस्वीकृत दोष की जड़ें मनुष्य के मस्तिष्क में गहराई तक प्रवेश करके मजबूत स्थिति बना लेती हैं जो एक बार क्या बार-बार दंड देने से भी दूर नहीं होतीं। बाँध लगा कर रोके गये पानी की तरह उसे जिधर से असावधानी और कमजोरी दिखाई पड़ती है, उधर ही बार-बार फूट पड़ता है। इससे मनुष्य की अशान्ति बढ़ती है, सारी शक्ति इस शक्ति-अपव्यय की चौकसी में ही खर्च होती रहती है और रचनात्मक या गुणात्मक जीवन के सारे सुख और आनन्द तिरोहित हो जाते हैं। आत्म-कल्याण के इच्छुक को मनोगत दोषों को सुधारने में बहुत परेशान होना पड़ता है, किन्तु यदि इन दोषों को प्रकट कर दिया जाय तो मस्तिष्क का बहुत-सा बोझ हलका हो जाता है और आत्म-विकास का नैतिक पथ प्रशस्त होने लगता है।

अपने दोष स्वीकार कर लेने का अर्थ है सच्चाई के प्रति प्रेम। सच्चाई मनुष्य के बाह्य-आन्तरिक विकास में परमोपयोगी गुण है। अगर सच्चाई न हो तो मनुष्य एक पग भी आगे नहीं बढ़ सकता। सच्चाई प्रथम आवश्यक वस्तु है। इसका परित्याग कर देने की विश्वात्मा की अनुभूति संभव नहीं हो सकती है। मनुष्य डरा-डरा सा रहेगा। झूठ में हृदय काँपता है। चारों ओर से कोई न कोई अपनी ओर उँगली ही उठाता जान पड़ता है। हर संकेत पर, प्रत्येक इशारे पर यही संशय होता है कि वह अपनी कोई बुराई कर रहा है, चाहे वहाँ बात किसी अन्य पुरुष की ही चल रही हो। निर्भीकता सच्चाई में होती है। जिसे सच बोलने का अभ्यास होगा वह भला किसी की निन्दा से क्यों घबराएगा। सच्चे आदमी सदैव साहसी होते हैं। सन्त सुकरात कहा करते थे कि—जो अपने आपको व्यक्त कर सकता है, उसे मैं सर्वोपरि साहसी मानता हूँ। मुझे विश्वास हो जाता है कि वह एक दिन जरूर अपना जीवन लक्ष्य प्राप्त कर लेगा क्योंकि अब उसका हृदय साफ हो गया है और परमात्मा को धारण करने की स्थिति बन गई होती है।

पाप जब तक मनुष्य के मन में ही चक्कर काटते रहते हैं, वह उन्हें प्रकट नहीं कर पाता तो उसकी दया बहुत गिरी-गिरी सी दबैल और दिग्भ्रांत जैसी बनी रहती है। किसी सही निष्कर्ष पर पहुँच सकने की उसकी शक्ति नहीं होती। विचार नहीं उठते, जो उठते भी हैं, वह टूटे-टूटे, बिखरे-बिखरे। ऐसा गतिशील विचार प्रवाह उसमें नहीं आता जो वह कुछ विशेष कार्य कर सके।

इसलिए मनुष्य के मन में जब तक दोषों की विचार-तरंगें उठती रहती हैं, तब तक वह उतने ही सीमा क्षेत्र में घूमता रहता है। उसकी दृष्टि अन्तर्मुखी नहीं हो पाती। बाह्य-जीवन के सुखोपभोग की चाह पर ही वह टकराया करता है। इस स्थिति के रहते मनुष्य का सामान्य जीवन क्रम भी व्यस्त और विशृंखलित ही बना रहता है। उसके जीवन में सच्चा आनन्द नहीं उमड़ पाता है। अतः अपनी बात को भी प्रकट होने देने का अवसर मिलना चाहिए। अपने दोषों को भी कबूल कर लेना चाहिए ताकि यह स्पष्ट हो जाय कि सच्चाई के प्रति आप में साहस है और दुर्गुणों को आप अच्छी दृष्टि से नहीं देखते, चाहे वह अपने ही क्यों न हों। बुराइयों के लिये लज्जा का अनुभव होना ही चाहिए।

अपनी बातों को ठीक मानने का अर्थ तो यही होता है कि दूसरे सब झूठे हैं, गलत हैं। इस प्रकार का अहंकार, अज्ञान का द्योतक है। इस असहिष्णुता से घृणा और विरोध बढ़ता है, सत्य की प्राप्ति, नहीं होती। सत्य की प्राप्ति होनी तभी सम्भव है, जब हम अपनी भूलों, त्रुटियों और कमियों को निष्पक्ष भाव से देखें। अपने विश्वासों का निरीक्षण और परीक्षण भी करना चाहिए। मनुष्य का मन ऐसा हो जैसा किसी बाग का रखवाला—माली होता है। माली का काम केवल पौधे लगाना ही नहीं वरन् फूलों के पौधों के आस-पास उगने वाली अनावश्यक झाड़-झंखाड़ को भी उखाड़ कर बाहर फेंकना है। गुणों को पौध भी तभी अंकुरित, एवं पल्लवित हो सकती है, जब मानसिक-विद्वेषों को समय-समय पर मस्तिष्क से निकाला जाता रहे। इससे चित्त स्वस्थ, मन प्रसन्न और मस्तिष्क विकास-शील बना रहता है।

मनुष्य जीवन की पवित्रता के लिए शारीरिक स्वच्छता ही काफी नहीं है, आन्तरिक सफाई भी चाहिए। शास्त्र मर्यादा में इसे यों कहा है—

वसताँ ना पवित्रः सन् बाह्मतोऽभ्यन्तस्तथा।

यतः पवित्रताया हि रिजतेऽति प्रसन्नता॥

अर्थात् “मनुष्य को भीतर और बाहर सभी ओर से पवित्र होना चाहिए। पवित्रता में ही प्रसन्नता समाविष्ट है।”

बाह्य पवित्रता का अर्थ व्यावहारिक जीवन की शुद्धि है और आन्तरिक स्वच्छता, विचार और भावनायें स्वच्छ रखने से आती है। विचारों का शुद्धिकरण मन के मैल धोने, बुराइयों को मन से निकाल देने से ही सम्भव है। कूड़ा-करकट, मैल विकार, पाप गन्दगी, दुर्गन्ध, सड़न, अव्यवस्था और घिच-पिच से मनुष्य की आन्तरिक-निष्कृष्टता प्रकट होती है। पवित्रता में चित्त की प्रसन्नता, शीतलता, शाँति, निश्चिन्तता—प्रतिष्ठा और सचाई छिपी रहती है। इस सदुद्देश्य का जीवन में आयत्तडडडडडडड होना चाहिए।

अपने दोष व्यक्त करते हुए आन्तरिक निष्कपटता पा लेना जितना जरूरी है, उतना ही दोषान्वेषण की प्रवृत्ति के परित्याग में भी सावधान रहना चाहिए। मन की भरी हुई बुराइयों की सडाँद से कुछ कम घातक प्रभाव दोष-दर्शन का नहीं होता। यह ठीक पहली स्थिति जैसी ही खतरनाक बात है। मन को दोषों में रस नहीं लेने देना चाहिए फिर वे चाहे अपने हों चाहे पराये। दूसरों में दोष न निकालना, दूसरों को इतना उन दोषों से नहीं बचाता जितना अपने आपने को बचाता है। दूसरों में दोष नहीं ढूँढ़ते वरन् अपने लिये जी की जलन और विक्षोभ ढूँढ़ते हैं—जिसे पाकर मनुष्य का जीवन न सन्तुष्ट होता है न सुखी। उसकी वाणी और व्यवहार से सदैव ओछापन ही टपकता है।

गुणों का चिन्तन न करें केवल अवगुणों पर ही दृष्टिपात करें तो अपना प्रत्येक प्रियजन भी अनेकों बुराइयों दोषों में ही ग्रस्त दिखाई देगा। अतः स्नेह, आत्मीयता, सौजन्यता तथा प्रेमपूर्ण व्यवहार में कमी आयेगी, जिससे जीवन के सुखों का अभाव हो जायगा। अपने बच्चों के छोटे-मोटे दोष भूल जाने की पिता की दृष्टि ही सच्ची होती है। माँ यदि बेटों की गलतियाँ ढूँढ़ा करे तो उसे दण्ड देने से ही फुरसत न मिले। अवगुणों को उपेक्षा की दृष्टि से ही देखना उचित है। पराये दोषों को भुला देना बड़प्पन का ही चिन्ह माना जायगा।


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