दाम्पत्य जीवन का सुख प्राप्त कीजिए

March 1965

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गृहस्थ जीवन में जितने भी सुख हैं, वे सब दाम्पत्य जीवन की सफलता पर सन्निहित हैं। दाम्पत्य जीवन सुखी न हुआ तो अनेक तरह के वैभव होने पर भी मनुष्य सुखी, सन्तुष्ट तथा स्थिरचित्त न रह सकेगा। जिनके दाम्पत्य जीवन में किसी रह का क्लेश कटुता तथा संघर्ष नहीं होता वे लोग बल, उत्साह और साहसयुक्त बने रहते हैं। गरीबी में भी मौज का जीवन बिताने की क्षमता दाम्पत्य जीवन की सफलता पर निर्भर है, इसे प्राप्त किया ही जाना चाहिए।

वैवाहिक जीवन की असफलता में आर्थिक सामाजिक और संस्कारजन्य कारण भी होते हैं, किन्तु मुख्यतया—मनोवैज्ञानिक-व्यवहार की कमी के कारण ही दाम्पत्य जीवन असफल होता है। वस्तुओं का अभाव परेशानियाँ जरूर पैदा कर सकता है, किन्तु यदि पत्नी में पूर्ण प्रेम हो तो गृहस्थ जीवन में स्वर्ग तुल्य सुखोपभोग इसी धरती पर प्राप्त किए जा सकते हैं। दुःख का कारण केवल अनास्था और त्रुटिपूर्ण व्यवहार ही होता है। इसे सुधार लें तो दाम्पत्य जीवन शत-प्रतिशत सफल हो सकता है।

सुखी दाम्पत्य का आधार है, पति-पत्नी का शुद्ध सात्विक प्रेम। जब दोनों एक दूसरे के लिए अपनी स्वार्थ भावना का परित्याग कर देते हैं, तब हृदय परस्पर मिले-जुले रहते हैं। प्रेम में अहंकार का भाव नहीं होता है। त्याग ही त्याग चाहिए विशुद्ध प्रेम के लिए। एक दूसरे के लिए जितने गहन तल से समर्पण की भावना होगी उतना ही प्रगाढ़ प्रेम होना चाहिए। दाम्पत्य सुख प्राप्त करने के लिए प्रेम का प्रयोग करना चाहिए। यह प्रेम त्याग भावना, कर्त्तव्य भावना से ही हो। सौंदर्य और वासना का प्रेम, प्रेम नहीं कहलाता। वह एक तरह का धोखा है। जो इस जंजाल में फँस जाते हैं, उनका दाम्पत्य जीवन बुरी तरह बेहाल हो जाता है। प्रेम आत्मा से करते हैं, शरीर ने नहीं, कर्त्तव्य से करते हैं, कामुकता से नहीं। प्रेम में किसी तरह का विकार नहीं होना चाहिए। शुद्ध निर्मल और निश्छल प्रेम से ही स्त्री-पति एक सूत्र में बंधे रह सकेंगे। सुखी जीवन का यह प्रमुख आधार है।

इस सद्भावना का प्रमुख शत्रु है, अपना विषमय मन; बड़ा शंकातुर होता है, वह बात-बात पर सन्देह प्रकट करता है। लिंग-भेद के कारण स्त्री-पुरुषों में कुछ न कुछ छिपाव होता ही है, हलके स्वभाव के व्यक्ति इन बातों को अपनी कटुता का आधार बनाते हैं। तरह-तरह की कुत्सित कल्पनाओं से सन्देह के बीज बोते और वैमनस्य पैदा करते रहते हैं। स्त्री और पुरुष के बीच में एक विश्वास होना चाहिए। अविचलित विश्वास बना रहेगा तो दुर्भावनायें अपने आप दूर रहेंगी और दाम्पत्य जीवन का वातावरण विषाक्त होने से बच जायेगा।

वेद भगवान का आदेश है कि स्त्री-पुरुष सदैव साथ-साथ रहें वे कभी विलग न हों। विलगता ही सन्देह उत्पन्न करती है। कुटिल शंकाओं की घात तभी लगती है, जब दाम्पत्य जीवन में अलगाव बना रहता है, स्त्रियाँ कभी-कभी अपने माता-पिता के घर चली जाया करें। यहाँ तक तो उचित है, किन्तु सामूहिक जलसों, मेले-ठेलों, सिनेमाओं आदि में दोनों का साथ रहना आवश्यक है। इसी तरह दुःख-सुख के क्षणों में, संपद-विपद में भी एक साथ रहकर अपनी आत्मीयता अक्षुण्ण रखनी चाहिए। यह सम्मिलन होता ही इसलिए है कि सुख का सहयोगी और विपत्ति में धैर्य बँधाने वाला एक साथी चाहिए। भारतीय संस्कृति का यह नियम है कि यहाँ का कोई भी धार्मिक अनुष्ठान स्त्री-पुरुष दोनों के बिना पूरी नहीं होगा। यज्ञ कार्यों में भी यह साहचर्य आवश्यक माना गया है।

निस्वार्थ सेवा भाव हमारे प्रेम-बन्धनों को मजबूत बनाता है। सेवा मनुष्य का सबसे बड़ा कर्त्तव्य है। दाम्पत्य सुख की सुरक्षा में तो वह अपना विशिष्ट स्थान रखता है। सेवा का अर्थ जो यह लगाते हैं कि वह केवल सहधर्मिणी का ही कर्त्तव्य है, वे भूल में हैं। गृह कार्यों का सञ्चालन स्त्री की सेवा है और धन कमाना तथा उसे अपनी पत्नी की इच्छायें पूर्ण करने में पुरुष की सेवा मानी जाती है। इन कर्मों का पालन कर्त्तव्य भावना से हो। दासियों की तरह स्त्रियों से अपनी शारीरिक सेवा लेना बज्रमूर्खता है। बीमारी या विवशता में तो ऐसा सम्भव है किन्तु इसे प्रतिदिन का व्यापार बना लेना उन अविवेकियों का ही काम हो सकता है, जो दाम्पत्य जीवन को एक पवित्र आध्यात्मिक संबन्ध न मानकर केवल जड़ता की दृष्टि से देखते हैं। ऐसे कर्म करें, तो फिर मनुष्य और पशुओं में अन्तर ही क्या रहेगा?

मनुष्य की योग्यता बहुत ही स्वल्प है। कुछ न कुछ कमी सभी में होती है। छोटी-छोटी भूलों, त्रुटियों को तूल देकर जीवन भर के साथी के साथ बिगाड़ पैदा कर लेना मनुष्योचित कर्म नहीं। एक दूसरे की आलोचना करना, खोटी सुनाना—ये आदतें निन्दनीय हैं, इनसे स्त्री-पुरुषों के बीच खाई पड़ जाती है, जिससे सारा जीवन दुःख, क्लेश और कठिनाइयों से ग्रसित हो जाता है। द्वेष दर्शन का परित्याग करें और गुणग्राहकता का स्वभाव बनायें। छोटी-छोटी भूलें के लिए लोग बच्चों को क्षमा कर देते हैं, अपनी त्रुटियों को भी उदारतापूर्वक क्षमा किया जा सके तो पारस्परिक सौजन्यता बनी रह सकती है। जो गुण दिखाई दें, उनकी प्रशंसा करनी चाहिए। जिस वस्तु से किसी को प्रसन्नता मिले, अपनी ओर से उसे पूरा करने की कंजूसी दिखाना उचित नहीं है। अपनी उदारता और क्षमा भावना के द्वारा अपने संबंध दृढ़तर करने का प्रयास दाम्पत्य जीवन की सफलता के लिए प्रत्येक दशा में अपेक्षित है।

सदैव गम्भीर बने रहना, खिन्न मन रहना और उदासीनता व्यक्त करना भी अच्छा नहीं होता। दाम्पत्य जीवन में उल्लास भी हो, हास और विलास भी होना चाहिए। निरंतर काम करते रहने से, श्रम ओर संघर्ष से जो थकान, ऊब और ढीलापन आता है, उसे समाप्त करने का एकमात्र उपाय है—मनोविनोद। पति काम से थक कर जब शाम को घर पहुँचे तो पत्नी का चेहरा हँसता हुआ, खिला-सा दिखाई दे। कुढ़ा हुआ मानसिक थकावट को और भी बढ़ा देता है, इसलिए सदैव हंसमुख और मनोविनोदी भी होना चाहिए। मनोविनोद कर्म-मार्ग का एक अद्भुत संबल है, इससे थकावट दूर भाग जाती है, हम दूसरे दिन के लिए नई ताजगी और स्वस्थता प्राप्त कर लेते हैं। हँसना जीवन शक्ति को बढ़ाता है, शरीर में बल और साहस का सञ्चार होता है। इसी तरह मृदुल हास से स्वभाव, शरीर और आत्मा दृढ़ होती है। इन्हें अपने जीवन में प्रयुक्त किए रहने से संबंध मधुर बने रहते हैं।

दैनिक जीवन में शिष्टाचार, छोटी-छोटी भावनाओं में प्रियजनों की इच्छाओं का समादर भी हो। किसी को छोटा किसी को बड़ा मानने की आदत गलत है। आत्मीयता के परिष्कार के लिए सबको समान इज्जत और प्रेम मिलना अत्यन्त जरूरी है।


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