प्रथम जाति सम्मेलन और उसका आमंत्रण

March 1965

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

विवाह शादियों में होने वाला अपव्यय, दहेज, चढ़ावा, दिखावा आदि का ढोंग अब इतना भारी एवं घातक हो चला है कि इस नासूर का आपरेशन जल्दी से जल्दी किया जाना चाहिए। उसके लिए आदर्श विवाहों की योजना बनाई गई है। अब उसे व्यापक रूप से कार्यान्वित करना है। इसके लिए अलग-अलग जातियों के प्रगतिशील संगठन आवश्यक हैं, क्योंकि आमतौर से अभी विवाह, शादी का क्षेत्र अपनी-अपनी जाति-उपजाति तक ही सीमित है। किस जाति में कौन व्यक्ति प्रगतिशील विचारों के हैं, यह अभी पता न चलने से इस प्रकार के वर-कन्या ढूंढ़ना कठिन होता है जो आदर्श रीति से बिना खर्च का विवाह करना पसन्द करें। एक पक्ष सुधारवादी हो और दूसरा न हो तो फिर वह एकांकी सुधारवादिता कुछ कारगर नहीं रह जाती। इस कठिनाई का एकमात्र हल यही है कि प्रत्येक जाति के प्रगतिशील संगठन अलग-अलग बना दिए जायं जिनका कार्य प्रगतिशील विचारों के लोगों को संगठित कर उनके बीच आदर्श विवाहों की परम्परा आरम्भ करना हो।

इस कार्य के लिए प्रथम सम्मेलन 17, 18, 19 को रख रहे हैं। यह प्रधानता “सनाढय” ब्राह्मणो का होगा। चूँकि हम स्वयं सनाढय हैं, इसलिए अपने समीपवर्ती क्षेत्र से सेवा कार्य आरम्भ करने की नीति के अनुसार शुरुआत यहीं से करना उचित है। अखण्ड-ज्योति परिवार में जो भी प्रगतिशील विचारों के सनाढय ब्राह्मण हों उपरोक्त तिथियों में मथुरा पधारने के लिए हम सबको आमंत्रित करते हैं। सम्मेलन में एक अखिल भारतीय संगठन बना दिया जायगा, और आवश्यक विचार−विनिमय के उपरान्त जातीय क्षेत्र में जो सुधार और आवश्यक होंगे उन्हें प्रसारित करने के लिए कार्य आरम्भ कर दिया जायगा।

यों यह त्रिदिवसीय सम्मेलन सनाढय ब्राह्मणों के लिए होगा, पर वही रूपरेखा एवं पद्धति अन्य सभी जाती प्रजातियों की भी अगले दिनों बनाई जानी है, अतएव यह आवश्यक है कि इन सुधार कार्यों में अभिरुचि रखने वाले अन्य जातियों के परिजन भी सम्मिलित हों। इस सम्मेलन को प्रत्यक्ष देखकर वे भी अपनी जाति का उसी ढंग से संगठन करने तथा कार्यक्रम बनाने की तैयारी करें।

अलग निमंत्रण पत्रों की प्रतीक्षा न कर उन सभी प्रगतिशील विचारों के अखण्ड-ज्योति सदस्यों को इसमें सम्मिलित होने की तैयारी करनी चाहिए और अपने आने की सूचना भेज देनी चाहिए ताकि उनके ठहरने आदि का समुचित प्रबन्ध किया जा सके।

भारत में सहस्रों जातियाँ और उपजातियाँ हैं, उनमें अलग-अलग प्रकार की कुरीतियाँ प्रचलित हैं। एक ही नगर में बसने वाले लोगों में जाति भिन्नता के कारण अलग-अलग प्रकार की विडम्बनाएं घुसी पड़ी हैं। रीति-रिवाजों में काफी अन्तर है। इसलिए सुधार कार्य एक स्तर पर नहीं हो सकता और न एक प्रकार के प्रस्ताव सबकी समस्याओं को हल कर सकते हैं। नाते-रिश्ते एवं कुटुम्ब परिवार के कारण अपने-अपने वर्ण के लोगों के साथ जुड़ा रहना पड़ता है और उनमें प्रचलित कुरीतियों के आगे सिर झुकाना पड़ता है। सुधार कार्य यदि जातीय स्तर पर हों तो उससे समस्याओं का समाधान अधिक आसानी से हो सकता है।

वैसे बहुत-सी जातीय सभाएं पहले से ही बनी हुई हैं। पर उन पर कब्जा प्रायः पुराने खयाल के पंच, चौधरियों का ही होता है। जब जातीय सम्मेलन होते हैं तब विद्या, धन या प्रतिभा की दृष्टि से जो बड़े होते हैं उन्हें ही पदाधिकारी बना दिया, चुन लिया जाता है। यह कोई नहीं देखता कि इनके विचार सुधारवादी हैं या नहीं? फल यह होता है कि उन पर रूढ़िवादी लोगों का ही कब्जा बना रहता है। छोटे-मोटे सुधारों के अलावा कोई क्रान्तिकारी कदम उठा सकना उनके लिए संभव नहीं होता। इन तथाकथित बड़े आदमियों में क्रान्ति भावना होती भी नहीं। फिर उनके निहित स्वार्थ भी होते हैं। दहेज लेने-देने में उनकी कुछ हानि भी नहीं, जिनके पास पैसा है वे क्यों न उसकी होली खेलने का मजा लूटें। इसलिए उन तथाकथित चौधरी पंचों का मुँह ताकने की अपेक्षा भावनाशील, प्रगतिशील लोगों को लेकर कार्य आरम्भ करना है। भले ही वे गरीब स्तर के क्यों न हों। कठिनाइयाँ भी तो उसी वर्ग की हैं। अतएव आगे भी उन्हें ही बढ़ना होगा।

किसी जाति में पहले से बनी हुई कोई सभा है या नहीं, इससे हमें कोई वास्ता नहीं। जो सभाएं बनी हुई हैं उनसे न हमें राग होना चाहिए न द्वेष। वरन् अपना प्रगतिशील मार्ग स्वयं ही निर्धारित करना चाहिए। अपने द्वारा संगठित, संगठनों के आगे प्रगतिशील शब्द जुड़ा होगा और उसका अन्य जातीय संगठनों से स्वतन्त्र अस्तित्व रहेगा। ताकि दूसरे प्रतिगामी विचारों के लोग उस पर हावी न हो सकें। जिन्हें आदर्शवादिता पसंद है, जो सुधार चाहते हैं उन्हें ही इन संगठनों की सदस्यता पर हस्ताक्षर करने के उपरान्त इन सभाओं में सम्मिलित होने का अधिकार मिलेगा। जो उन प्रतिज्ञाओं को तोड़ेंगे वे उसकी सदस्यता से वंचित हो जायेंगे इस प्रकार यह संगठन प्रगतिशील लोगों के ही हाथों में अन्त तक बने रहेंगे और जो कुछ कहने का अपना मन है उसकी प्रक्रिया निर्बाध गति से चलती रहेगी।

इन संगठनों का प्रथम कार्य यह होगा कि आदर्शवादी विवाहों की मान्यता को स्वीकार करने वाले लोगों को तलाश किया जाय, या प्रचार द्वारा उन्हें वैसी मान्यता बनाने के लिए सहमत किया जाय। सदस्यों की संख्या के अनुसार उनकी शाखा, उपशाखाएं बना दी जायँ। इन शाखाओं में लड़के-लड़कियों की आवश्यक जानकारियाँ संग्रहीत रहें ताकि तलाश करने वालों को बहुत-सी जानकारी उनके केन्द्रों से ही मिल जाया करे। इन संगठनों द्वारा आदर्श विवाह कराने, उनका प्रचार विज्ञापन करने, इस मार्ग पर चलने वालो को यशस्वी बनाने, समय-समय पर सम्मेलन करने, सामूहिक यज्ञोपवीत आदि कराने तथा बौद्धिक एवं नैतिक क्रान्ति के लिए आवश्यक पृष्ठभूमि तैयार करने की बहुमुखी योजना सामने रहेगी। उपजातियों का भेदभाव दूर करके एक जाति के अंतर्गत विविध छोटे वर्गों में परस्पर विवाहों का प्रचलन भी इनका एक कार्यक्रम रहेगा।

कुंए में गिरे को निकालने के लिए कुंए में उतरना पड़ता है, काँटे को निकालने के लिए काँटे का उपयोग करना होता है। जातिगत कुरीतियों को मिटाने के लिए इस प्रकार के जातीय संगठन उपयोगी ही सिद्ध होंगे। इस उठते हुए कदम के साथ जिनकी सहमति हो उन सभी उत्साही एवं विचारशील लोगों को हम इन पंक्तियों द्वारा 17, 18, 19 जून को होने वाले इस प्रथम सम्मेलन में पुनः सादर आमंत्रित करते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118