हम एकता की ओर बढ़ें

February 1964

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अनेकता में एकता देखने की हमारी साँस्कृतिक उदारता दार्शनिक दृष्टि से सराहनीय ही मानी जा सकती है। परस्पर भारी मतभेद रखने वाले, यहाँ तक कि घोर मतभेद रखने वाले सम्प्रदाय और धर्म प्रचारक भी यहाँ अपना-अपना काम शान्तिपूर्वक करते रहे हैं और कर रहे हैं। अपनी इस विशेषता को कायम रखते हुए भी हमें यह ध्यान रखना ही होगा कि कोई समाज उतना ही संगठित रह सकता है जितनी कि उसमें एकता हो। भिन्नताएं जितनी ही बढ़ेंगी उतनी ही विश्रृंखलता उत्पन्न होगी। संसार के इतिहास पर दृष्टिपात करने से यही प्रतीत होता है कि भाषा, भेष और भाव की एकता ही लोगों को एक संगठन सूत्र में बाँध रही है। जहाँ जितनी भिन्नता बढ़ी है वहाँ उतना ही विघटन हुआ है। दार्शनिक दृष्टि से भिन्नता में एकता देखना एक प्रशंसनीय उदारता मानी जा सकती है पर सामाजिक दृष्टि से, मानवीय मनोविज्ञान की दृष्टि से विचार करने पर यही मानना पड़ेगा कि भिन्नता एक हद तक ही उपयोगी हो सकती है। यदि उसका विस्तार बढ़ेगा तो निश्चित रूप से विसंगठन ही बढ़ेगा और ऐसा समाज कभी भी सशक्त न हो सकेगा। विचार भिन्नता के कारण परस्पर उपेक्षा बढ़ेगी और अनैक्य एवं विरोध की परिस्थितियाँ उत्पन्न होने लगेंगी।

भारतीय धर्म की उदारता ने अनेकता को जो छूट दी थी उसका व्यतिक्रम होने से हमें भारी सामाजिक क्षति उठानी पड़ी है। धर्म, सम्प्रदाय एवं जाति-पाति के नाम पर हमारा इतना विघटन हुआ है कि कई बार तो हिन्दू समाज को एक समाज मानने तक में संकोच होने लगता है। संसार के अन्य देशों पर दृष्टिपात करने से उनकी आन्तरिक एकता को बनाये रहने में कुछ मूलभूत तथ्य काम करते दीखते हैं। भाषा, भेष और भाव के बन्धनों में बंधे रहकर ही वे एकता का मधुर फल प्राप्त कर सकने में समर्थ हो रहे हैं। योरोपियन लोगों की एक ही पोशाक है। कोट, पेन्ट, टाई, टोप पहने ही सब लोग दिखाई पड़ेंगे। यों सिलाई में थोड़ा फर्क हो सकता है पर मोटे तौर पर सबकी पोशाक एक–सी होगी । रोमन लिपि और अंग्रेजी भाषा ने पृथ्वी के एक बड़े क्षेत्र को एकता के सूत्र में बाँधा है। ईसाई धर्म, बाइबिल, गिरजा, बपतिस्मा और ईश्वर पुत्र ईसा की मान्यता ने संसार के आधे भाग को जातीय भावनाओं में आबद्ध करके उनमें एकता और संगठन की परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी हैं।

इस्लामी संस्कृति की यही अपनी विशेषता है और उनकी धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताएं एक–सी होने के कारण संसार भर में जहाँ कहीं भी इस प्रकार के लोग है भ्रातृ भाव का उत्साह अनुभव करते हैं। चीन, रूस, जापान आदि प्रगतिशील राष्ट्रों में भी वहाँ की एकता का कारण तलाश करने पर यही तत्व काम करते दिखाई पड़ते हैं। भारत का जातीय विसंगठन उस भिन्नता के कारण हुआ जो उसके भीतर धर्म, सम्प्रदाय, जाति-पाति एवं पूजा पद्धतियों की भिन्नता के कारण पैदा हुई । दार्शनिक दृष्टि से यह भिन्नता भले ही उदारता का चिन्ह मानी जाय पर सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह हेय और हानिकारक ही सिद्ध होती है। ‘अति’ हर बात की बुरी होती है। विचार भिन्नता के, रुचि भिन्नता के आधार पर यदि सब लोग मनमानी करने लगें तो फिर एकता का स्थिर रह सकना कभी भी संभव न होगा।

पिछले एक हजार वर्ष का दुःखद इतिहास इसी तथ्य का प्रतिपादन करता है। मुसलमान और योरोपियन आक्रमणकारियों की संख्या बहुत थोड़ी थी। इतने बड़े देश में मुट्ठी भर आक्रमणकारियों की जादू जैसी सफलता का श्रेय हमारी आन्तरिक विसंगठनकारी प्रवृत्तियों को ही है। आक्रमणकारियों ने जिस राज्य पर हमला किया दूसरे लोग अपने सम्प्रदाय जाति या उपास्य की भिन्नता के कारण उस विजित की पराजय पर हर्ष मनाते रहे, उपेक्षा करते रहे। इसी क्रम से एक -एक करके सब राज्य विदेशी गुलामी के चंगुल से जकड़ते चले गये। नृशंस अत्याचारों को खून के आँसू पी-पीकर लोग देखते सहते रहे, पर संगठित प्रतिरोध की कोई व्यवस्था न हो सकी। भावनात्मक दृष्टि से विसंगठित राष्ट्र भला कर भी क्या सकता था, उसकी दुर्बलता स्वाभाविक थी। दुर्बल के सामने पराजित होने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं होता। मुसलमानी आक्रमणकारियों को उनकी सशक्तता ने नहीं, यहाँ की फूट और विश्रृंखलता ने सफलता की जयमाला पहनाई।

अंग्रेज, पुर्तगाली, फ्राँसीसी यहाँ व्यापारी बन कर आये थे। यहाँ की विविधता में उनने फूट को परखा और केवल कुटिलता के आधार पर इतने बड़े देश को चुटकी बजाते जितनी देर में हड़प लिया। धन्यवाद भगवान को इसी बात का है कि उसने जातीयता की चेतना दी और जब गाँधी जी ने संगठित राष्ट्र के रूप में यहाँ की जनता को खड़ा कर दिया तो उस एकता की शक्ति ने ही गुलामी से मुक्ति दिलाने का वातावरण बनाया। यदि उस प्रकार की चेतना उत्पन्न न हुई होती तो कौन जाने कितनी शताब्दियों तक हमें पराधीनता के बन्धनों में बँधा रहना पड़ता।

राजनैतिक स्वतन्त्रता का भी अपना महत्व है पर उसका वास्तविक लाभ उसी समाज को मिल सकता है जो आन्तरिक दृष्टि से सशक्त हों। सशक्तता का सर्वोपरि माध्यम एकता ही तो है। जिन लोगों में एकता होगी वे ही सशक्त होंगे जिनके भीतरी मतभेद बड़े-चढ़े होंगे, जिन्हें प्रेम और भ्रातृत्व पैदा करने वाले तत्वों की कमी का सामना करना पड़ रहा होगा वे धन, शस्त्र, व्यापार, उद्योग, शिक्षा आदि क्षेत्रों में कितने ही बढ़े चढ़े क्यों न हो जातीय दृष्टि से दुर्बल ही रहेंगे और यह दुर्बलता किसी छोटी सी कठिनाई के आने पर ही फिर गुलामी में परिणत हो सकती है।

इस युग में संगठन को ही शक्ति माना गया है और संगठन का तत्व ज्ञान यही है कि वह समान गुण धर्म वाले पदार्थों या मनुष्यों में संभव होता है। जिन्हें एकता का महत्व विदित है, जो एकता की शक्ति को जानते हैं और उसकी आवश्यकता अनुभव करते हैं उन्हें इस बात का प्रयत्न करना चाहिए कि भिन्नता उत्पन्न करने वाले तत्वों को जितना घटाया जा सकता हो घटाया जाय और समानता एवं एकता उत्पन्न करने वाली संभावनाओं को जितना बढ़ाया जा सकता हो उतना बढ़ाया जाय।

परस्पर प्रेम, सद्भाव, उदारता आदि आध्यात्मिक गुणों के कारण ही सच्ची एकता संभव होती है। इसलिए गुण कर्म स्वभाव की दृष्टि से जन मानस को ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की ओर अग्रसर किया जाना चाहिए साथ ही यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक परिस्थितियाँ भी एकता में सहायता करने वाली ही उत्पन्न की जायें। भिन्नता का बाह्य वातावरण आन्तरिक एकता में सहायक नहीं बाधक ही सिद्ध होता है। भाषा-भेष-भाव की एकता बाहरी ही क्यों न कही जाय आन्तरिक एकता में बहुत सहायता पहुँचाती है। जातिवाद, भाषावाद, शान्तिवाद सम्प्रदायवाद का जो विकृत रूप आज देखा जाता है उसके मूल में भी समान लोगों का एकताबद्ध होकर दूसरे प्रकार के लोगों के साथ पक्षपात करने की नीति ही पाई जाती है पक्षपात की नीति की हमें निन्दा करनी चाहिए पर साथ ही मानव स्वभाव की इस विशेषता को भी समझ लेना चाहिए कि बाह्य समानता भी लोगों को परस्पर समीप लाने में बहुत सहायक होती है। अनेक भिन्नताएं होते हुए भी लोग जाति, भाषा, प्रान्त आदि के नाम पर जब गुटबन्दी कर लेते हैं तो इन तथ्यों को व्यापक बनाने पर व्यापक संगठन की संभावना क्यों न बनेगी?

अपना देश लम्बी गुलामी के बाद राजनैतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने में समर्थ हुआ है। प्रगति की ओर अनेक दिशाओं में अग्रसर होने का कार्य करना शेष है। इसके लिए आवश्यक शक्ति का संचय करते हुए यह ध्यान रखना ही चाहिए कि बाह्य साधनों की नहीं आन्तरिक एकता और पुरुषार्थ की प्रवृत्ति ही सर्वोपरि साधन हो सकती है, इसके बिना बाह्य उपकरणों के होते हुए भी भीतरी दुर्बलता के कारण प्रगति का कार्य अवरुद्ध ही बना रहेगा। परिश्रम और कल्पनापूर्वक बनाई गई योजनाएं भी सफल न हो सकेगी।

भारतीय राष्ट्र को एकता और समानता के लिए प्राणपण में प्रयत्न करना चाहिए। लोग अपनी प्रान्तीय और क्षेत्रीय भाषाओं का प्रसन्नतापूर्वक उपयोग करे पर राष्ट्र भाषा हिन्दी का प्रचलन अधिकाधिक बढ़ाने का भी ध्यान रखा जाय। कट्टरपंथी और संकीर्णता से दायरा छोटा रह जाता है। उदारता और व्यापकता को अपनाने से ही ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का लक्ष्य पूरा होगा। माया के माध्यम से ही हम सोचते-विचारते, विचारों का आदान-प्रदान करते और एक दूसरे को समझने में समर्थ होते हैं। एक राष्ट्र या एक समाज की दृढ़ता का महत्व मानने वालों को भाषा की एकता के लिए भी तेजी से कदम बढ़ाने होंगे। भारत का प्रत्येक नागरिक राष्ट्र भाषा हिन्दी को भली प्रकार बोल और समझ सके इसके लिए जो भी प्रयत्न संभव हो उन्हें करना चाहिए। सरकारी और गैर सरकारी दोनों ही प्रकार के प्रयत्न इस दिशा में किये जायें इसकी आज भारी आवश्यकता है।

राष्ट्रीय पोशाक जो यहीं की परम्पराओं के उपर्युक्त हो, धोती, कुर्ता, ऊपर से जवाहरकट या बन्द गले का कोट यही उपर्युक्त रह सकती है। जलवायु या परम्परा का ध्यान रखे बिना जल्दबाजी में कोई पोशाक राष्ट्रीय घोषित कर देने से उसका प्रचलन नहीं हो सकता। सरकार ने चूड़ीदार पाजामा और अचकन, शेरवानी को राष्ट्रीय पोशाक माना है। सरकारी कामों में उसका प्रयोग होता भी है। पर जन-मानस में वह अभी तक उतर नहीं सकी है। कारण कि भारतीय परम्पराओं और जलवायु का उसमें समुचित ध्यान नहीं रखा गया है। यह जन रुचि एवं भावनाओं का प्रश्न है इसका समाधान भी इसी आधार पर किया जा सकता है। विभिन्न प्रान्तों में जो अलग-अलग प्रकार की पोशाकें पहनी जाती हैं, उस अनेकता को धीरे-धीरे कम करना चाहिए और समानता के महत्व को समझना चाहिए। विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की वस्तुओं की आवश्यकता रहने से उनका निर्माण महंगा पड़ता है और शक्ति एवं साधनों का अनावश्यक अपव्यय होता है। वस्त्र, आभूषण, बर्तन आदि में समता रहे तो निर्माण कार्य व्यापक होने से सस्ता पड़ेगा और भावनात्मक एकता भी स्पष्ट बढ़ेगी।

भावनाओं में आध्यात्मिकता का अधिकाधिक समावेश होना चाहिए। संयम, सदाचार, पुरुषार्थ, श्रमशीलता, मधुरता, स्वच्छता, कर्त्तव्यनिष्ठा, समय का पालन, क्रियात्मकता, उदारता, शिष्टता जैसे सद्गुणों को हमारी भावनाओं में समुचित स्थान मिलना चाहिए। यही आध्यात्मिक गुण मनुष्य जाति के विकास में सच्ची सहायता कर सकते हैं। स्वार्थपरता और दुष्टता, आलस्य और असंयम का दोष किसी सशक्त राष्ट्र को भी अपंग बना सकता है फिर हम पिछड़ी स्थिति के लोगों के लिए तो यह नितांत आवश्यक है कि सहिष्णुता, सज्जनता, सामूहिकता एवं सहयोग भावना का अधिकाधिक विकास होता चले। मतभेदों को सुलझाने के लिए विचार-विनिमय, मध्यस्थता एवं पंच निर्णय जैसे महकमों को अपनाया जाय। सामाजिक रीति-रिवाजों में समानता उत्पन्न की जाय। कुछ दिन पहले विभिन्न देहातों में, प्रान्त एवं क्षेत्रों में तोल के बाँट अलग-अलग थे, कच्ची तोल, पक्का तोल के अनेक मापदण्ड प्रचलित थे। उनमें असुविधा ही रहती थी। अब जबकि हर जगह एक सी तोल नाप हो गई है तो उससे सुविधा ही रहती है। ईसाई, मुसलमान, बौद्ध आदि प्रधान धर्मों के अनुयायी प्रायः एक से ही रीति-रिवाज मानते हैं। देशों की अपनी-अपनी परम्पराएं भी एक-सी हैं। भारतवर्ष इसका अपवाद है, यहाँ इतनी अधिक भिन्नता युक्त प्रथा परम्पराएं प्रचलित हैं कि उनके कारण एकता में भारी बाधा पहुँचती है। हमें यह भी प्रयत्न करना चाहिए कि धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताओं और प्रथा परम्पराओं में प्रचलित असमानताएं दूर करके समानता की ओर बढ़ा जाय। कुरीतियों का शमन और शोधन किया जाय। इस सम्बन्ध में धर्म पुरोहित एवं गुरुजन आदि दूरदर्शिता से काम लें तो परस्पर विचार-विनिमय द्वारा जातीय एकता का मार्ग बड़ी आसानी से प्रशस्त कर सकते हैं।

पूजा, उपासना, एवं कर्म-काण्ड, दर्शन, धर्म ग्रन्थ आदि की समानता भी जातीय एकता की दृष्टि से आवश्यक है। इनमें भिन्नता रहने से जातीयता की भावना दुर्बल होती है। मुसलमान और ईसाई धर्मों की शक्ति उनकी धार्मिक एकरूपता में सन्निहित है। एक पैगम्बर एक प्रकार का ईश्वर, एक धर्म-ग्रन्थ एक दर्शन, एक संहिता होने से थोड़े ही समय में इन धर्मों ने संसार में अपना भारी प्रभाव बढ़ाया है। हिन्दू धर्म की भिन्नताएं उनके अनुयायियों में भी अश्रद्धा एवं उपेक्षा की भावनाएं उत्पन्न कर रही है। नई पीढ़ी उन्हें ढोंग मानने लगी है और शिखा सूत्र जैसे आवश्यक प्रतीकों का भी परित्याग कर रही है, जबकि मुसलिम धर्म में सुन्नत जैसी कष्टकर प्रथा भी सहर्ष सर्वत्र श्रद्धापूर्वक अपनाई जाती है। सिक्ख धर्म के अनुयायी पंच केश रखने में अपना सौंदर्य नष्ट हुआ नहीं समझते पर हिन्दू के लिए चोटी के चार बाल रखना भी भारी पड़ता है। इसका दोष युवकों का नहीं उस विश्रृंखलता एवं अव्यवस्था का है जिसके कारण हिन्दू धर्म का कोई एक रूप नहीं बन पाता और उसकी मान्यताओं को बुद्धिवादी ढंग से समझना या समझाया जाना संभव नहीं होता।


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