आत्म-शोधन-अध्यात्म का श्री गणेश

February 1964

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कहावत है कि अपनी अकल और दूसरों की सम्पत्ति, चतुर को चौगुनी और मूर्ख को सौ गुनी दिखाई पड़ती रहती है। संसार में व्याप्त इस भ्रम को महामाया का मोहक जाल ही कहना चाहिए कि हर व्यक्ति अपने को पूर्ण निर्दोष और पूर्ण बुद्धिमान मानता है। न तो उसे अपनी त्रुटियाँ सूझ पड़ती हैं और न अपनी समझ में दोष दिखाई पड़ता है। इस एक ही दुर्बलता ने मानव-जाति की प्रगति में इतनी बाधा पहुँचाई है, जितनी संसार की समस्त अड़चनों ने मिलकर भी न पहुँचाई होगी।

अपनी निर्दोषिता के बारे में फैले हुए व्यापक भ्रम को देखते हुए मानव-जाति की मूर्खता की जितनी भर्त्सना की जाय उतनी ही कम है। सृष्टि के सब प्राणियों से अधिक बुद्धिमान माना जाने वाला मनुष्य जब यह सोचता है कि- “दोष तो दूसरों में ही है, उन्हीं की निन्दा करनी हैं, उन्हें ही सुधारना चाहिए। हम स्वयं तो पूर्ण निर्दोष हैं, हमें सुधरने की जरूरत नहीं।” तब यह कहना पड़ता है कि उसकी तथाकथित बुद्धिमत्ता अवास्तविक है। चौरासी लाख योनियों में अनेकों दोष और कुसंस्कार जीव पर चढ़े रहते हैं, मनुष्य योनि में उसे यह अवसर मिलता है कि उन पिछली त्रुटियों और गन्दगियों का परिष्कार कर सके-अपने को शुद्ध बनाने का प्रयत्न करे इस शरीर का सबसे बड़ा उद्देश्य यह है कि उन मल-विक्षेप और आवरणों को ढूँढ़-ढूँढ़ कर देखे जो पिछले जन्मों की दुरवस्था में उसके गले बँधे चले आये हैं। इस ढूँढ़-खोज के पश्चात् इस बात का प्रबल प्रयत्न करे कि इन कुसंस्कारों को किस प्रकार हटा कर अपने को अधिक स्वच्छ, निर्मल एवं प्रगतिशील बनायें।

प्रगति की स्वाभाविक गति में सबसे बड़ा व्यवधान यह है कि मार्ग को रोकने वाली सबसे बड़ी बाधा का स्वरूप वह समझा नहीं पाता और न उसको हटाने का प्रयत्न करता है। पेट में दर्द है और सिर पर दवा मली जाय तो कष्ट कैसे दूर होगा? अपने दोष दुर्गुणों के कारण जीवन क्रम अस्त-व्यस्त बना रहता है पर उसका कसूर दूसरों के मत्थे मढ़ते रहा जाय तो इससे झूठा आत्म-सन्तोष भले ही कर लिया जाय, समस्या का हल कहाँ सम्भव हो सकेगा? कहते हैं कि भगवान ने अक्ल की कुल डेढ़ मात्रा पैदा की है जिसमें से एक तो हर मनुष्य अपने में मानता है और शेष आधी में सारे संसार का काम चलता हुआ देखता है। इस दृष्टि दोष के कारण अपनी गलतियों का सुधार कर सकना तो दूर उलटे जब कोई उस ओर इशारा भी करता है तो हमें अपना अपमान दिखाई पड़ता है। दोष दिखाने वाले को अपना शुभ-चिन्तक मानकर उसका आभार मानने की अपेक्षा मनुष्य जब उल्टे उस पर क्रुद्ध होता है, शत्रुता मानता है और अपना अपमान अनुभव करता है तो यह कहना चाहिए कि उसने सच्ची प्रगति की ओर चलने का अभी एक पैर उठाना भी नहीं सीखा।

स्कूली शिक्षा के मूल्य पर कई व्यक्तियों को ऊँची नौकरी मिल जाती है। पूँजी होने पर ब्याज भाड़े से या किसी ढेर के व्यापार को अपनाये रहने से धन कमाते रहना भी सरल हो जाता है। शरीर और मस्तिष्क की अच्छी बनावट होने से सुन्दरता, चतुरता एवं कला-कौशल में निपुणता मिल जाती है। संयोग एवं परिस्थितियों भी किसी को सम्मानास्पद स्थिति पर ले जाकर बिठा देती है। इन माध्यमों से कितने ही लोग बड़े बन जाते हैं और सफलता का गर्व-गौरव अनुभव करते रहते है। पर यह संसार आधार बाहरी दिखावा मात्र है। संयोगवश या दुर्भाग्य से किसी कारण यह परिस्थितियों बदल जायँ और सम्मान सौभाग्य छिन जाय तो ऐसे व्यक्ति सर्वथा निस्तेज और दीन-हीन दिखाई पड़ते हैं। अपने निज के सद्गुण न होने के कारण परिस्थितियों के आधार पर बड़े बने रहने वाले व्यक्तियों को ही राजा से रंक और अमीर से भिखारी होते देखा जाता है। जिसमें अपने गुण होंगे वह गई गुजरी परिस्थिति में से भी अपने लिए रास्ता निकालेगा और नरक में जायगा तो वहाँ भी जमादार बनकर रहेगा।

सरकारी ऊँचे पदों पर काम करने वाले व्यक्ति जब सेवा निवृत्त होते हैं तो उनमें से कितने ही मौत के दिन पूरे करते हुए शेष जीवन नीरस, निस्तेज और निकम्मा ही व्यतीत करते हैं। पद ने इन्हें जो गौरव दिया था वह पद छिनते ही चला गया। व्यक्तिगत सद्गुणों के अभाव में अब वे एक निकम्मे निरर्थक मनुष्य की तरह ही बन हुए रहते हैं, जिनकी कहीं कोई पूछ नहीं। किन्तु यदि उनमें वैयक्तिक सद्गुण रहे होते तो सेवा निवृत्त होकर अपनी स्वतन्त्र प्रतिभा के आधार पर जहाँ भी रहते वहीं नवीन चेतना उत्पन्न करते ।

प्राचीन-काल में वानप्रस्थी और संन्यासी लोग गृहत्याग देने के पश्चात् भी समाज की असाधारण सेवा करते थे पर आज तो लाखों साधु महात्मा समाज के लिए भारभूत होकर निरर्थक जीवन बिताते हैं। इसका एकमात्र कारण इतना ही होता है कि उनमें अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं हुआ होता। गुण-कर्म-स्वभाव की दृष्टि से वे पिछड़े हुए या अविकसित होते हैं। ऐसी दशा में जब तक वे गृहस्थ या उद्योग के किसी ढर्रे में फिट थे तब तक कुछ काम कर भी सकते थे पर वे साधन न रहने पर एकाकी विरक्त जीवन में उन्हें शून्यता के अतिरिक्त और कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता।

प्रगति की जड़ व्यक्तित्व को विकसित करने वाले सद्गुणों की मात्रा पर निर्भर रहती है। वह जितनी ही अधिक हो गई उतना ही व्यक्ति सुदृढ़ या उपयोगी हो सकेगा। ऐसे व्यक्ति जहाँ भी, जिस परिस्थिति में भी रहते हैं वहीं अपनी उपयोगिता और आवश्यकता देखते हैं। हर स्थिति में उनका स्वागत और सम्मान होता है। अन्धे, अपाहिज और दरिद्रों में भी कितने लोग ऐसे होते हैं जिनकी समीपता को लोग अपना सौभाग्य समझते हैं। इसके विपरीत कितने ही साधन सम्पन्न लोगों से वे भी मन ही मन घोर घृणा करते हैं जो उनसे निरन्तर लाभ उठाते रहते हैं। सद्गुण तो वह जादू है जिसकी प्रशंसा शत्रु को भी करनी पड़ती हैं।

किसने कितनी उन्नति की इसकी सच्ची कसौटी यह है कि उस मनुष्य के दृष्टिकोण और स्वभाव में कितना परिष्कार हुआ? किसी की बाह्य स्थिति के देखते हुए उसकी उन्नति अवनति का अन्दाज नहीं किया जा सकता। कितने बेवकूफ और बदतमीज आदमी परिस्थितियों के कारण शहंशाह बने होते हैं, कितने ही लुच्चे-लफंगे षड़यन्त्रों के बल पर सम्मान के स्थानों पर अधिकार जमाये बैठे होते हैं। कई ऐसे लोग जिन्हें धर्म का क, ख, ग, घ सीखना बाकी है धर्मगुरु के पद पर पुजते देखे जाते हैं। यह संसार विडम्बनाओं से भरा है। कितने ही व्यक्ति अनुचित रीति से सफलता प्राप्त करते हैं और अयोग्यताओं से भरे रहते हुए भी सुयोग्यों पर हुकूमत चलाते हैं। इस विडम्बना के रहते हुए भी व्यक्तित्व के विकास का, सुसंस्कारिता और श्रेष्ठता का मूल्य किसी भी प्रकार कम नहीं होता। वह जहाँ कहीं भी होगा अपना प्रकाश फैला रहा होगा, अपनी मनोरम सुगन्ध फैला रहा होगा। गई गुजरी परिस्थितियों में भी उसने अपने उत्कृष्ट दृष्टिकोण के कारण उस छोटे से क्षेत्र में एक नये स्वर्ग की रचना कर रखी होगी। मानवीय स्वभाव की श्रेष्ठता गुलाब के फूल की तरह महकती है उसे मनुष्य ही नहीं, भौंरे, तितली और छोटे-छोटे नासमझ कीड़े तक पसन्द कर रहे होते हैं।

बाहरी उन्नति की जितनी चिन्ता की जाती है, उतनी ही भीतरी उन्नति के बारे में की जाय तो मनुष्य दुहरा लाभ उठा सकता है। आध्यात्मिक दृष्टि से तो वह ऊँचा उठेगा ही साथ ही लौकिक सम्मान एवं भौतिक सफलताओं की दृष्टि से भी वह किसी से पीछे न रहेगा। किन्तु यदि आन्तरिक स्थिति को गया बीता रखा गया और बाहरी उन्नति के लिए ही निरन्तर दौड़ धूप होती रही तो कुछ साधन सामग्री भले ही इकट्ठी कर ली जाय पर उसमें भी उसे शान्ति न मिलेगी। कई धनी मानी और बड़े कारोबारी व्यक्ति सामान्य स्तर के लोगों की अपेक्षा भी अधिक चिन्तित और दुःखी देखे जाते हैं। कारण यही है कि कार्य विस्तार के साथ उनकी उलझने तो बढ़ती हैं पर उन्हें सुलझाने का उचित दृष्टिकोण ने होने से उन्हें अधिक उद्विग्न रहना पड़ता है। ऐसे लोग आमतौर से निरन्तर उद्विग्न रहते कुढ़ते और झुँझलाते देखे जाते हैं। सम्पन्नता का सुख भी केवल उन्हें मिलता हैं जिनने अपना आन्तरिक परिष्कार कर लिया होता है। धन का सदुपयोग करके तथा पद एवं मान द्वारा उपलब्ध प्रभाव को परमार्थ में, लगाकर ऐसे ही लोग ईश्वर प्रदत्त सुविधाओं का समुचित लाभ उठाया करते हैं। दूसरे लोग तो सर्प की तरह चौकीदारी करते हुए निरन्तर उद्विग्न रहने का उलटा भार वहन करते हैं।

आन्तरिक परिष्कार की ओर समुचित ध्यान देना यही बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता का प्रथम चरण है। अध्यात्म का पहला शिक्षण यही है कि मनुष्य अपने स्वरूप को समझे। यह सोचे कि मैं कौन हूँ? क्या हूँ? और क्या बना हुआ हूँ? आत्म-चिन्तन ही साधना का प्रथम सोपान कहा जाता है। यह चिन्तन ईश्वर जीव-प्रकृति की उच्च से आरम्भ नहीं किया जा सकता। कदम तो क्रमशः ही उठाये जाते हैं। नीचे की सीढ़ियों को पार करते हुए ही ऊपर को चढ़ा जा सकता है। सोऽहम्, शिवोऽहम् की ध्वनि करने से पूर्व, अपने को सच्चिदानन्द ब्रह्म मानने से पूर्व हमें साधारण जीवन पर विचार करने की आवश्यकता पड़ेगी और यह देखना पड़ेगा कि ईश्वर का पुत्र-जीव आज कितने दोष दुर्गुणों से ग्रसित होकर पामरता का उद्विग्न जीवन-यापन कर रहा है। माया के बन्धनों ने उसे कितनी बुरी तरह जकड़ रखा है और षडरिपु पग-पग पर कैसा त्रास कर रहे हैं। माया का अर्थ है वह अज्ञान जिससे ग्रसित होकर मनुष्य अपने को निर्दोष और सारी परिस्थितियों के लिए दूसरों को उत्तरदायी मानता है। भव-बन्धनों का अर्थ है-कुविचारों कुसंस्कारों और कुकर्म से छुटकारा पाना। अपने दोषों की ओर से अनभिज्ञ रहने से बड़ा प्रमाद इस संसार में और कोई नहीं हो सकता, इसका मूल्य जीवन की असफलता का पश्चात्ताप करते हुए ही चुकाना पड़ता है।

आध्यात्म मार्ग पर पहला कदम बढ़ाते हुए साधक को सबसे पहले आत्म-चिन्तन की साधना करनी पड़ती है। ब्रह्मचर्य, तप, त्याग, सत्य, अहिंसा आदि उच्चतम आध्यात्मिक तत्वों को अपनाने से पहले उसे छोटी-छोटी त्रुटिओं को संभालना होता है। परीक्षार्थी पहले सरल प्रश्नों को हाथ में लेते हैं और कठिन प्रश्नों को अन्त के लिए छोड़ रखते हैं। लड़कियाँ गृहस्थ की शिक्षा गुड़ियों के खेल से आरम्भ करती हैं। युद्ध में शस्त्र चलाने की निपुणता पहले साधारण खेल के रूप में उसका अभ्यास करके ही की जाती है। सबसे पहले एम. ए. की परीक्षा देने की योजना बनाना गलत है। पहले बाल कक्षा, फिर मिडिल, मैट्रिक, इण्टर, बी. ए. पास करते हुए एम. ए. का प्रमाण-पत्र लेने की योजना ही क्रमबद्ध मानी जाती है। सुधार के लिए सब से पहले सत्य, ब्रह्मचर्य या त्याग को ही हाथ में लेना अनावश्यक है। आरम्भ छोटे-छोटे दोष दुर्गुणों से करना चाहिए। उन्हें ढूंढ़ना और हटाना चाहिए। इस क्रम से आगे बढ़ने वाले को जो छोटी-छोटी सफलतायें मिलती हैं उनसे उसका सहारा बढ़ता चलता है। उस सुधार के जो प्रत्यक्ष लाभ मिलते हैं उन्हें देखते हुए बड़े कदम उठाने का साहस भी होता है और उन्हें पूरा करने का मनोबल भी संचित हो चुका होता है।

जो असंयम, आलस, आवेश, अनियमितता और अव्यवस्था की साधारण कमजोरियों को जीत नहीं सका वह षडरिपुओं, असुरता के आक्रमणों का मुकाबला क्या करेगा? सन्त, ऋषि और देवता बनने से पहले हमें मनुष्य बनना चाहिए। जिसने मनुष्यता की शिक्षा पूरी नहीं की, वह महात्मा क्या बनेगा?

जप-तप आवश्यक है। आत्म-कल्याण के लिए उनकी भी आवश्यकता है। पर यह ध्यान रखना चाहिए कि गुण कर्म स्वभाव में आवश्यक सुधार किये बिना न आत्मा की प्रगति हो सकती है न परमात्मा की। इसलिए आत्मकल्याण के इच्छुक प्रत्येक व्यक्ति को आत्म-चिन्तन की साधना भी आरम्भ करनी चाहिए और उसका श्रीगणेश तप-त्याग जैसे उच्च आदर्शों से नहीं, गुण-धर्म स्वभाव का मानवोचित परिष्कार करते हुए व्यक्तित्व को सुविकसित करने में संलग्न होकर करना चाहिए।


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